केंद्रीय हिंदी संस्थान: न्‍यायपालिका में भारतीय भाषाएं विषयक संगोष्‍ठी आयोजित

हैदराबाद: सरकार अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ शासन-प्रशासन के कामकाज में हिंदी भाषा अख्तियार कर ले तो हिंदी सहज तौर पर न्याय की भाषा भी बन जाएगी। उक्त बातें पूर्व राज्‍यपाल तथा पूर्व न्‍यायधीश उच्‍च न्‍यायालय श्री विष्‍णु सदाशिव कोकजे ने कही। मौका था केंद्रीय हिंदी संस्थान, विश्व हिंदी सचिवालय तथा अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद के तत्वावधान में वैश्विक हिंदी परिवार की ओर से आयोजित आभासी संगोष्ठी का। ‘न्यायपालिका में भारतीय भाषाएँ’ विषयक इस संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए माननीय पूर्व न्यायमूर्ति ने कहा कि निरंतर समृद्ध हो रही हिंदी भाषा के इस दौर में औपनिवेशिक गुलामी की प्रतीक अंग्रेजी का वर्चस्व अनादिकाल तक बरकरार रहने की धारणा तार्किक नहीं है क्योंकि भाषा काल सापेक्ष होती है।

भारत में पहले संस्कृत का प्रचलित थी। इस्लाम के पूर्व भारतीय न्याय शास्त्र भी संस्कृत में थे। इस्लाम के आने के बाद संस्कृत धीरे-धीरे पीछे छूटती गई। उर्दू फारसी को बढ़ावा मिला और राजकाज की भाषा मिश्रित उर्दू हो गई। अंग्रेजों के आने के बाद उर्दू की जगह अंग्रेजी को तवज्जो मिली। तभी से न्यायालयों सहित अन्य कामका कामकाज में अंग्रेजी प्रयुक्त होने लगी। अब अगर अनुकूल माहौल में हिंदी राजकाज की भाषा बनती है तो इसमें कोई दो राय नहीं कि धीरे-धीरे इसका चलन न्याय के क्षेत्र में भी मजबूत होने लगेगा।

उन्होंने कहा कि संस्कृत को छोड़कर हमने पूर्व में अपनी भाषा का नुकसान किया है। जब देश में संस्कृत अधिकृत भाषा थी। तब लोगों को कोई परेशानी नहीं होती थी क्योंकि स्थानीय भाषाओं में उसकी टीका टिप्पणी का प्रचलन था। आदि गुरु शंकराचार्य माधवाचार्य रामानुजाचार्य जैसे लोगों ने संस्कृत को ज्ञान के साथ-साथ व्यवहार की भाषा बनाने में बहुत बड़ा योगदान दिया था। पूर्व न्यायमूर्ति ने कहा कि भारत एक बहुभाषी देश है। यहां ढेर सारी भाषाएं और बोलियां प्रचलन में है। उन्होंने सुझाव दिया कि राज्य के स्तर पर इसकी पहल करनी चाहिए तथा सरकारी कामकाज में स्थानीय भाषाओं को पर्याप्त महत्व देते हुए हिंदी के सर्वांगीण विकास की राह आसान करनी चाहिए।

पाठ्यक्रम के अभाव संबंधी सवाल पर उन्होंने दो टूक कहा कि जो लोग एक भाषा में निष्‍णात होते हैं उन्हें दूसरी भाषा में भी काम करने में कोई दिक्कत नहीं होती। आज हिंदी का बाजार दुनिया भर में फैल रहा है। बड़ी-बड़ी विदेशी कंपनियां ग्राहकों को लुभाने के लिए हिंदी का सहारा ले रही है। राजकाज में हिंदी को बढ़ावा दिया जाए तो हिंदी बढ़ेगी। उन्होंने दावा किया कि जब इस देश में संस्कृत नहीं टिक सकी, उर्दू फारसी नहीं टिक सकी तो अंग्रेजी कैसे चिरस्थाई रह सकती है?

बार कौंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष मनन कुमार मिश्रा ने कहा…

बार कौंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष मनन कुमार मिश्रा ने अपनी बात रखते हुए कहा कि भारत जैसे विशाल देश के लिए यह विडंबनापूर्ण है कि यहाँ की जनता को जनता की भाषा में न्याय नहीं मिलता है। आजादी के 75 साल पूरे होने के बाद भी हम हिंदी को न्यायालयों व अन्य प्रशासनिक कामों में वह जगह नहीं दिला पाए, जिसका हमने संविधान में वादा किया है। श्री मिश्र ने शिक्षा को लेकर सरकार द्वारा बनाई गई, एक उच्च स्तरीय समिति के मुखिया चमू कृष्ण शास्त्री के प्रयासों का जिक्र करते हुए कहा कि भारतीय संविधान में अनुच्छेद 343 से लेकर 351 तक में हिंदी के उपबंध हैं। लेकिन अनुच्छेद 348 हिंदी की राह में हर बार रोड़ा बनकर खड़ा हो जाता है।

श्री मिश्र ने केंद्रीय हिंदी संस्थान के इस पहल को सार्थक बताते हुए उच्चतम न्यायालय सहित देश के सभी छोटे-बड़े न्यायालय में हिंदी को प्रतिष्ठा दिलाने के लिए सरकार से अपील करने तथा आवश्यक संघर्षों में साथ देने का आश्वासन दिया। उन्होंने कहा कि पाठ्य-पुस्तक और शिक्षकों का भी अभाव है। हिंदी में बेयर एक्‍ट तक नहीं बने हैं। इस मोर्चे पर सभी को मिलजुलकर रणनीति बनानी होगी।

वरिष्ठ अधिवक्ता इंद्रसेन प्रसाद के विचार…

इससे पहले पटना उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता इंद्रसेन प्रसाद ने कहा कि हिंदी देश के मौलिक अधिकार की भाषा है। वर्ष 1988 से ही राजभाषा की वकालत कर रहे, श्री प्रसाद ने कहा कि देश की बड़ी अदालतों में हिंदी में काम करना अभी भी बहुत कठिन है क्योंकि अदालतों द्वारा अनुवाद माँगा जाता है। अनुवाद माँगना गुलामी का प्रतीक तो है ही इससे न्याय भी महँगा हो रहा है, तथा कई बार गलत अनुवाद के कारण न्याय में बाधा उत्पन्न हो रही है। विनय कुमार सिंह बनाम बिहार राज्य एआईआर 2003 के मामले का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि अब समय आ गया है, कि जिस तरह देश की राष्ट्रवादी सरकार ने संविधान से धारा 370 निष्प्रभावी कर दिया। उसी तरह अनुच्छेद 348 को भी संविधान से बाहर का रास्‍ता दिखा देना चाहिए।

वरिष्ठ वकील नवीन कौशिक का वक्तव्य…

इस क्रम में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के वरिष्ठ वकील नवीन कौशिक ने कहा कि दुनिया भर में भारत ही एक ऐसा देश है। जहाँ के लोगों को न्याय उनकी भाषा में नहीं मिलता है। देश में मात्र 3% लोग ऐसे हैं। जिन्हें अंग्रेजी बोलना और पढ़ना लिखना आता है। एक तरह से यह शेष बचे 97% लोगों के अधिकारों का हनन है। हिंदी के विकास के लिए राजभाषा समिति द्वारा अब तक 9 बार मंतव्य प्रस्ताव सरकार को भेजा गया है लेकिन हर बार सरकार अनुच्छेद 348 के आईने में पारित एक कैबिनेट नोट का हवाला देकर प्रस्ताव प्रस्तर को किनारे रख देती है। उन्होंने कहा कि जब एक पुराने कैबिनेट निर्णय को आधार बनाकर हिंदी को पीछे किया जाता रहा है तो क्या एक नई कैबिनेट की बैठक कर पुराने निर्णय को ठीक नहीं किया जा सकता।

उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि बांग्लादेश की भाषा भी वहाँ के आम नागरिकों की भाषा ‘बांग्ला’ है लेकिन हमारे यहाँ अंग्रेजी का भूत सवार है। यहाँ तक कि यूरोप के 52 देशों में सिर्फ चार ही ऐसे देश बचे हैं। जहाँ अंग्रेजी है, बाकी देशों ने अंग्रेजी से पीछा छुड़ा लिया है और स्वभाषा को सम्मान दिया है। वर्तमान समय में केंद्र की सरकार हिंदी भाषा के अनुकूल है हरियाणा सरकार की ओर से भी हरियाणा के न्यायालयों में हिंदी का प्रयोग बढ़ने संबंधी प्रस्ताव भेजा गया है। उन्होंने कहा कि सामान्य प्रशासन प्रशासन की भाषा अगर हिंदी हो जाए तो न्यायालयों में हिंदी का प्रयोग जल्दी से शुरू हो जाएगा।

पत्रकार व भाषा कर्मी राहुल देव ने कहा…

पत्रकार व भाषा कर्मी राहुल देव ने वर्तमान में अंग्रेजी के वर्चस्व की बात करते हुए कहा कि हमें अंग्रेजी के साथ ही हिंदी के विकास और प्रसार का काम करना होगा क्योंकि अंग्रेजी की जड़ इस देश में इतनी गहरी हो चुकी है। कि अभी निकट भविष्य में अंग्रेजी हट नहीं सकती। उन्होंने कहा कि इसके लिए हमें चरणबद्ध तरीके से काम करने होंगे। न्यायालयों में हिंदी भाषा के लिए हमें कानून के स्कूलों से शुरुआत करनी होगी। पाठ्यक्रम हिंदी में बने, हिंदी में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए शिक्षक तैयार किए जाए तभी अदालतों में हिंदी का प्रयोग बढ़ेगा। श्री राहुल देव ने कहा कि अदालतों में जजों के स्थानांतरण का भी मसला पेचीदा है। आखिरकार एक जज को कितनी भाषाएँ आनी चाहिए कोई जज कितनी भाषा सीख सकता है। इस तरह के ढेर सारे प्रश्न हैं जिन पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।

उपाध्यक्ष अनिल शर्मा जोशी बोले…

संगोष्ठी को सानिध्‍य दे रहे केंद्रीय हिंदी शिक्षण मंडल के उपाध्यक्ष अनिल शर्मा जोशी ने उत्साह भरते हुए कहा कि भाषा हमेशा दीवानगी और जुनून की माँग करती है। वर्तमान में हिंदी के प्रति राज तथा समाज दोनों में उत्साह बढ़ा है। उन्होंने बताया कि इंजीनियरिंग में उच्च शिक्षा के लिए गुणवत्तापूर्ण पाठ्यक्रम तैयार कर लिया गया है, वहीं मध्य प्रदेश में मेडिकल की पढ़ाई हिंदी में किए जाने का भी मार्ग प्रशस्त हुआ है, श्री जोशी ने कहा कि देश की सबसे बड़ी पंचायत लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही जब हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाओं में हो सकती है, तो न्यायालयों में भी इसे मूर्त रूप दिया जा सकता है। श्री जोशी ने कहा कि पराई भाषा में अदालती कार्रवाई का खामियाजा आम आदमी को प्रतिदिन भुगतना पड़ता है। उन्होंने उदाहरण देकर समझाया कि किस तरह वकील अंग्रेजी न जानने वाले अपने मुवक्किल को गलत जानकारी देकर समय पर न्याय से वंचित करते हैं। उन्होंने कहा कि हिंदी का विकास सिर्फ रस्म अदायगी से नहीं होगा इसके लिए सभी भारतीय भाषाओं को साथ लेकर समावेशी विकास की बात करनी होगी।

स्वागत और धन्यवाद ज्ञापन

लगभग 2 घंटे तक चली संगोष्ठी के अंत में मारीशस से जुड़े सुनील पाहुजा ने सभी अतिथियों का धन्यवाद ज्ञापित किया। इससे पहले संगोष्ठी की शुरुआत करते हुए प्रोफेसर राजेश कुमार ने प्रस्तावना प्रस्‍तुत की, भुवनेश्वर के क्षेत्रीय निदेशक रंजन दास ने अतिथियों का स्वागत किया तथा परिचय दिया। संगोष्ठी का संचालन वैश्विक हिंदी सम्मेलन के एम एल गुप्ता ने किया।

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