चुनावी लोकतंत्र और श्रीलाल शुक्ल का साहित्य: अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रो ऋषभदेव शर्मा का अध्यक्षीय आलेख

[श्रीलाल शुक्ल स्मारक राष्ट्रीय संगोष्ठी समिति भाग्यनगर हैदराबाद तथा हिंदी प्रचार सभा हैदराबाद के संयुक्त तत्वावधान में 31 दिसंबर को ‘चुनावी लोकतंत्र और श्रीलाल शुक्ल का साहित्य’ विषय पर अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी डॉ सीमा मिश्रा के संयोजन में सफलतापूर्वक संपन्न हुआ था। इस संगोष्ठी को प्रोफेसर ऋषभदेव शर्मा ने भी संबोधित किया था। उनका यह आलेख आम नागरिक से जुड़ा हुआ है। साथ ही संदेशात्मक है। इससे पहले डॉ सीमा मिश्रा का एक आलेख इसी विषय पर प्रकाशित किया गया है। वह यहां- राष्ट्रीय संगोष्ठी पर विशेष लेख : ‘चुनावी लोकतंत्र और श्रीलाल शुक्ल का साहित्य’ संलग्न है।]

भारतीय लोकतंत्र और चुनावी प्रक्रिया की जटिलताएँ समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से अनूठी हैं। इससे संबंधित ग्रामीण और शहरी समाजों के अंतर्विरोधों, सामाजिक संरचनाओं और राजनीतिक चतुराई को जिस सटीकता से श्रीलाल शुक्ल ने अपने साहित्य में उकेरा है, वह भारतीय साहित्य में अभूतपूर्व है। उनके चर्चित उपन्यास ‘राग दरबारी’ (1968) और अन्य कृतियों के माध्यम से चुनावी लोकतंत्र की बारीकियों और विसंगतियों को समझने का अवसर मिलता है।

लोकतंत्र की हकीकत को उजागर करता है

श्रीलाल शुक्ल की रचनाएँ भारतीय समाज के ग्रामीण ढाँचे और राजनीतिक परिदृश्य का जीवंत दस्तावेज़ हैं। उनकी रचनाओं में भारतीय लोकतंत्र की जड़ें और शाखाएँ स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं। लोकतंत्र में चुनाव को सामाजिक शक्ति संरचना का केंद्रबिंदु मानते हुए, उन्होंने दिखाया कि कैसे यह प्रक्रिया आदर्शवाद और व्यावहारिकता के बीच झूलती रहती है। ‘राग दरबारी’ में शिवपालगंज नामक गाँव को केंद्र में रखकर चुनावी प्रक्रियाओं की वास्तविकताओं और उसके पीछे छिपे स्वार्थों को व्यंग्यात्मक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। वहाँ सत्ता का संघर्ष, वोट बैंक की राजनीति और नैतिकता का हास्यास्पद पतन लोकतंत्र की हकीकत को उजागर करता है।

श्रीलाल शुक्ल

चुनावी लोकतंत्र: आदर्श और यथार्थ

श्रीलाल शुक्ल के साहित्य में चुनावी लोकतंत्र का चित्रण आदर्शवादी अपेक्षाओं और व्यावहारिक परिणामों के बीच फँसे हुए समाज की कहानी कहता है। ‘राग दरबारी’ में प्रधान, मास्टर साहब और वकील जैसे चरित्र लोकतंत्र के विभिन्न पहलुओं का प्रतिनिधित्व करते हैं।

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जनता की भूमिका

श्रीलाल शुक्ल ने चुनावों में जनता की भूमिका को एक निष्क्रिय और सक्रिय भागीदार दोनों रूपों में प्रस्तुत किया है। जनता एक ओर अपने अधिकारों के प्रति उदासीन दिखती है, तो दूसरी ओर जातिवाद और व्यक्तिगत लाभ के आधार पर अपने निर्णय लेती है। यह दिखाता है कि भारतीय चुनाव केवल मतदान के अधिकार के प्रयोग तक सीमित न रहकर सत्ता और सामाजिक संरचना का खेल बन चुका है।

चुनावों में जनता वोट तो देती है, लेकिन

श्रीलाल शुक्ल ने जनता को एक ऐसे पात्र के रूप में प्रस्तुत किया है, जो राजनीति की धारा में बहता तो है, लेकिन अक्सर उसकी अपनी कोई स्पष्ट दिशा नहीं होती। ‘राग दरबारी’ में शिवपालगंज के चुनावों में जनता वोट तो देती है, लेकिन निर्णय जाति, स्थानीय दबाव, और व्यक्तिगत लाभ के आधार पर लिया जाता है। उपन्यास में दिखाया गया है कि कैसे प्रधान के समर्थक वोटरों को ‘पार्टी की पर्ची’ पकड़ा देते हैं, और वे वोट डालने जाते समय सोचते हैं कि यह प्रक्रिया महज़ औपचारिकता भर है। इसी तरह, ‘मकान’ (1976) में एक बूढ़ा किरायेदार चुनावों के दौरान अपने मकान मालिक से कहता है, “हम तो इतने बरसों से किरायेदार हैं, पर नेता जी को पहली बार पर्ची लेकर याद आया कि हमारा भी वोट है।” यह दर्शाता है कि आम जनता चुनाव के समय ही नेताओं को याद आती है।

नेतृत्व का चरित्र

उनके साहित्य में नेता का चरित्र अवसरवादी, चालाक और प्रायः हास्यपूर्ण है। वह जनता के मुद्दों को अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए साधन बनाता है। उदाहरणस्वरूप, ‘राग दरबारी’ में प्रधान का चरित्र दिखाता है कि चुनाव कैसे बाहुबल और धनबल का अखाड़ा बन जाता है। दरअसल श्रीलाल शुक्ल ने नेताओं की अवसरवादिता और उनके दोहरे चरित्र को बेहद व्यंग्यात्मक ढंग से उकेरा है। प्रधान का चरित्र एक ऐसे नेता का प्रतिनिधित्व करता है, जो अपनी शक्ति बनाए रखने के लिए हर प्रकार का छल करता है। प्रधान का संवाद कि “गाँव में राजनीति एक रस्साकशी है, जिसमें जीत उसी की होती है जो रस्सी खींचने से पहले उसे ग्रीस लगा ले,” यह साफ दर्शाता है कि चुनावी नैतिकता उसके लिए कोई मायने नहीं रखती। इसी प्रकार, ‘विश्रामपुर का संत’ (1998) में चुनाव के लिए खड़ा नेता अपनी छवि सुधारने के लिए सामाजिक कार्यों का ढोंग करता है। वह सार्वजनिक रूप से गरीबों के बीच कपड़े बाँटता है, लेकिन अंदर ही अंदर सरकारी योजनाओं का दुरुपयोग कर अपनी संपत्ति बढ़ा रहा होता है।

प्रशासनिक तंत्र और भ्रष्टाचार

चुनावी लोकतंत्र को श्रीलाल शुक्ल ने भ्रष्ट प्रशासनिक तंत्र और पुलिस की भूमिका से भी जोड़ा है। उनकी रचनाएँ इस बात का संकेत देती हैं कि लोकतंत्र की प्रक्रिया में इन तंत्रों का किस प्रकार दुरुपयोग होता है। उन्होंने प्रशासन और पुलिस को भी चुनावी प्रक्रिया का हिस्सा दिखाया है, जो न केवल निष्पक्षता खो चुके हैं, बल्कि सत्ता के दलाल बन गए हैं। ‘राग दरबारी’ में पुलिस निरीक्षक एक ऐसे व्यक्ति के रूप में सामने आता है, जो प्रधान के इशारों पर काम करता है। यह प्रसंग कि “चुनाव के समय पुलिस थाने में जमा किए गए हथियारों का गुपचुप वापस वितरण हो जाता है,” प्रशासनिक तंत्र की नाकामी को उजागर करता है। इस भ्रष्टाचार को उपन्यासकार ने ‘आदमी का ज़हर’ (1972) में भी चिह्नित किया है। वहाँ चुनाव के दौरान, ब्लॉक स्तर के एक कर्मचारी को रिश्वत लेकर मतदाता सूची में ग़लत नाम जोड़ते हुए दिखाया गया है। यह स्पष्ट करता है कि भ्रष्ट प्रशासनिक तंत्र कैसे लोकतंत्र के आदर्शों को नुकसान पहुँचाता है।

चुनावी लोकतंत्र के सामाजिक प्रभाव

श्रीलाल शुक्ल ने चुनावों के सामाजिक प्रभावों को बड़े ही व्यंग्यात्मक और यथार्थपरक ढंग से चित्रित किया है। कहना न होगा कि श्रीलाल शुक्ल ने लोकतंत्र की इस नीच ट्रेजेडी का पर्दाफाश किया है कि कैसे आम जनता लोकतांत्रिक व्यवस्था में खुद को उपेक्षित और ठगा हुआ महसूस करती है। उनकी व्यंग्यात्मक शैली इस निराशा को और प्रभावशाली बनाती है।

जातिवाद और समुदायवाद

श्रीलाल शुक्ल के साहित्य में यह स्पष्ट होता है कि कैसे चुनाव जातिगत समीकरणों और समुदाय आधारित ध्रुवीकरण पर आधारित होते हैं। गाँवों में विकास के बजाय जातिगत समीकरण अधिक प्रभावी होते हैं। इस सत्य के अनुरूप चुनावी लोकतंत्र में जातिवाद का स्थान श्रीलाल शुक्ल की रचनाओं में स्पष्ट दिखता है। ‘राग दरबारी’ में प्रधान के लिए जातिगत समीकरण अहम हैं। एक स्थल पर प्रधान को यह कहते हुए दिखाया गया है कि, “जात-पात का खेल ऐसा है कि एक ही जाति का आदमी तुम्हारे साथ हो, तो बात चुनाव की नहीं, घर की हो जाती है।” इतना ही नहीं, ‘पहला पड़ाव’ (1987) उपन्यास में चुनाव जातिगत ध्रुवीकरण का परिणाम है। गाँव में एक स्थान विशेष पर दो समुदायों के बीच होने वाली लड़ाई को राजनीतिक रंग देकर चुनावी लाभ लिया जाता है।

विकास बनाम वादे

श्रीलाल शुक्ल ने यह भी बखूबी दिखाया है कि चुनाव के समय नेता विकास के वादे तो करते हैं, परंतु चुनाव के बाद जनता के साथ छलावा होता है। विकास और चुनावी वादों के बीच का यह अंतर उनकी कृतियों का केंद्रीय विषय है। ‘राग दरबारी’ में प्रधान अपने वादों में कहता है, “हम इस बार सड़क बनाएँगे,” जबकि पिछली बार भी यही वादा किया गया था। उपन्यास में दिखाया गया है कि सड़क निर्माण का बजट जारी होने के बाद भी सड़क अधूरी रहती है। ‘विश्रामपुर का संत’ में भी चुनाव से पहले नेता बिजली, पानी और सड़क का वादा करते हैं, लेकिन चुनाव जीतने के बाद केवल अपने लाभ के लिए सरकारी योजनाओं का इस्तेमाल करते हैं।

जनता की निराशा

शुक्ल की रचनाओं में यह मार्मिक विडंबना विशेष ध्यान खींचती है कि चुनावी लोकतंत्र जनता को सशक्त करने के बजाय उसे और अधिक कुंठित कर रहा है। चुनाव प्रक्रिया से जनता की निराशा श्रीलाल शुक्ल के पात्रों के संवादों और उनकी हताशा में साफ झलकती है। जैसे कि ‘राग दरबारी’ में मास्टर साहब कहते हैं, “यह राजनीति भी अजीब चीज है। जनता को जितना समझाओ, वह उतना ही अपने फटेहाल को अपना भाग्य मान लेती है।”

जनता की निराशा और तंत्र की नाकामी

उपन्यासों की तरह ही श्रीलाल शुक्ल की कहानियाँ भी जनता की निराशा और उसके यथार्थ को गहराई से अभिव्यक्त करती हैं। उनके व्यंग्यात्मक और यथार्थवादी लेखन में जनता की हताशा और लोकतंत्र की विडंबनाएँ स्पष्ट रूप से झलकती हैं। ‘सुरक्षा और अन्य कहानियाँ’ (1991) में संकलित कहानी ‘सुरक्षा’ में एक साधारण आदमी की सुरक्षा को लेकर सरकार और प्रशासन की संवेदनहीनता को उजागर किया गया है। जब एक गरीब आदमी अपने गाँव में हो रहे अपराधों और असुरक्षा के बारे में शिकायत करता है, तो अधिकारी उस पर ध्यान देने के बजाय औपचारिकताओं और कागज़ी कार्रवाई में उलझा देते हैं। अंततः आदमी को यह समझ आ जाता है कि उसकी सुरक्षा केवल कागज़ों तक सीमित है। यथा, “हम सबकी सुरक्षा में लगे हैं, बस आप अपनी सुरक्षा की चिंता न करें, कहने वाले लोग असल में सुरक्षा का मतलब ही भूल चुके हैं।” यह कहानी जनता की निराशा और तंत्र की नाकामी को गहराई से व्यक्त करती है।

सरकारी व्यवस्था और प्रशासनिक उदासीनता

इसी प्रकार, ‘इस उम्र में’ (2003) एक वृद्ध व्यक्ति की कहानी है, जो अपने अधिकारों और पेंशन के लिए सरकारी कार्यालयों के चक्कर काटता रहता है। सरकारी अधिकारी उसे बार-बार झूठे वादे और तारीखें देकर टालते रहते हैं। वह व्यक्ति अपने पूरे जीवन की मेहनत और ईमानदारी पर सवाल उठाने लगता है। यथा, “हमने उम्रभर ईमानदारी से काम किया, लेकिन अब इस उम्र में यह सोचने पर मजबूर हैं कि ईमानदारी से कुछ हासिल हुआ भी या नहीं।” यह कहानी उस निराशा को दर्शाती है, जो एक आम आदमी को सरकारी व्यवस्था और प्रशासनिक उदासीनता से मिलती है।

श्रीलाल शुक्ल की शैली और दृष्टि

श्रीलाल शुक्ल का व्यंग्य भारतीय लोकतंत्र की तमाम बड़ी कमज़ोरियों को उजागर करता है। उनके पात्र और घटनाएँ समाज की सच्चाई को इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं कि पाठक हँसते हुए भी उस विडंबना को महसूस करता है। उनकी भाषा सरल, किंतु तीव्र प्रभाव वाली है। श्रीलाल शुक्ल के साहित्य में चित्रित चुनावी लोकतंत्र का यथार्थ आज भी उतना ही विडंबनापूर्ण है जितना उनके समय में था। आज भी धनबल, बाहुबल, जातिवाद और सांप्रदायिकता चुनावी प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं। डिजिटल युग में भले ही प्रचार-प्रसार के तरीके बदल गए हों, परंतु समस्याएँ ज्यों की त्यों बनी हुई हैं।

चुनावी लोकतंत्र के आदर्श और यथार्थ के बीच की गहरी खाई

श्रीलाल शुक्ल का साहित्य चुनावी लोकतंत्र के आदर्श और यथार्थ के बीच की गहरी खाई के बारे में चिंतन के लिए विवश करता है। उसके मूल में यह यक्षप्रश्न निहित है कि क्या भारतीय लोकतंत्र वास्तव में जनता की शक्ति है या यह मात्र एक ढाँचा है, जिसे कुछ विशेष वर्ग अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करते हैं। उनका साहित्य एक जीवित दर्पण की तरह है, जो समाज को उसकी वास्तविकता दिखाता है। अतः निर्विवाद रूप से यह कहा जा सकता है कि श्रीलाल शुक्ल ने अपने व्यंग्य और कथात्मक शैली के माध्यम से भारतीय चुनावी लोकतंत्र की विसंगतियों और विरूपताओं को उजागर करने का अभूतपूर्व कार्य किया है। इस असौंदर्य की निशानदेही और शल्यक्रिया करके ही तो आखिर भारतीय लोकतंत्र के चेहरे को सचमुच सुंदर बनाया जा सकता है न!

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