वह कठोर है,
वह मजबूत है,
वह सहता है,
पर वह दर्द पीता है।
वह पुरुष है। इसीलिए उसे बचपन से ही सिखाया जाता है कि रोना कमजोरी की निशानी है। इसी वजह से उसके मन पर हमेशा एक बोझ रहता है। पुरुष को रोना नहीं चाहिए। उसे रोककर भी मजबूत बनकर रहना चाहिए। “रोता है क्या, लड़कियों की तरह?” कहकर उसकी भावनाओं को दबा दिया जाता है। इसीलिए आंसुओं को पीकर वह मजबूत बनता है, लेकिन अंदर कहीं न कहीं वह अकेला होता और अकेला ही रह जाता है।
उसे भी एक कंधा चाहिए, जो उसे सहारा दें। ताकि वह उसके आंसू पोंछे। उसके दिल में भी भावनाएँ होती हैं, लेकिन वह अपने दर्द का बोझ अकेले ही उठाता है। लड़कियों को समाज की ओर से रोने की छूट होती है और दी जाती है, उनसे कहा जाता है कि “रोने से दिल हल्का हो जाएगा,” लेकिन पुरुष को यही सिखाया जाता है कि “सहन करो।” समाज की इन उम्मीदों की वजह से उसकी भावनाएं मन के भीतर जमकर रह जाती हैं, उसके आंसुओं का पानी सूख जाता है।
पुरुष भी कईं तरह की सोच में उलझा रहता है- प्रेम, दोस्ती, कॅरियर, समाज, घर, परिवार, जिम्मेदारियाँ, अधिकार, अपेक्षाएँ, असफलता और सफलता की अनगिनत गहरी भावनाएँ उसके मन में होती हैं। लेकिन उन सभी भावनाओं का बोझ वह अपने मन के अंदर ही दबाकर/बांधकर रखता है, क्योंकि उसे अपनी भावनाओं को व्यक्त करना सिखाया ही नहीं गया। उसे भी एक दोस्त, माँ, बहन, दादी, मौसी या किसी प्रिय के रूप में एक साथी चाहिए, जिसके पास वह अपना मन खोल सके। यह रिश्ता कोई और भी हो सकता है, क्योंकि उसका होना किसी भी पुरुष के लिए महत्वपूर्ण होता है। कभी-कभी उसके भीतर के गहरे कपाट खुलते हैं और वह महसूस करता है कि वह भी संवेदनशील है। क्योंकि वह भी कभी टूट सकता है। कभी-कभी थक भी सकता है।
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उसके जीवन की कठोरता की परतों के पीछे एक संवेदनशील मन है, जो कभी-कभी अपने आपको व्यक्त करने का इंतजार करता है। उसके आंसुओं, उसके दर्द, उसकी भावनाओं को व्यक्त करने का उसे भी पूरा हक है। कईं बार उसके दोस्त, उसके भाई, उसके प्रियजन उसके साथ होते हैं, लेकिन वह खुद कभी अपने मन को नहीं खोल पाता। उसे डर होता है कि कहीं वह “कमजोर” न लग जाए? समाज के ढाँचें की वजह से उसमें एक संकोच घर कर जाता है और इसी कारण वह अपनी भावनाओं को मन में ही दबाए रखता है।
आज (19 नवंबर) विश्व पुरुष दिवस के अवसर पर यह संदेश है कि कठोर बने रहें, परंतु अपने मन को खोलने में संकोच न करें। मन की बातों को व्यक्त करने में कमजोर नहीं होना चाहिए, क्योंकि यही उसकी असली ताकत है। कभी दिल खोलकर रो लें, ताकि मन में सजी भावनाओं का पानी (आंसू) बह जाए, क्योंकि भावनाओं को व्यक्त करने से ही मन को सुकून मिलता है। हम सब मजबूत हैं। इसीलिए हमारे दिल को भी खुला रहने दीजिए। यह भी उतना ही आवश्यक है जितना हर किसी को हंसना और रोना जरूरी होता है। जीवन में बहुत कुछ सिखाने वाले, सहनशीलता की कहानियाँ गढ़ने वाले हर व्यक्ति को पुरुष दिवस की ढेर सारी शुभकामनाएँ।
सूरज कुमारी गोस्वामी, हैदराबाद