Special Article : होली का सामाजिक – वैज्ञानिक दर्शन

होली का पर्व मात्र परंपरागत उत्सव नहीं; जीवन का मनोविज्ञान है, इसका एक सम्पूर्ण सामाजिक दर्शन है। पर्व और त्योहारों की सांस्कृतिक स्वीकृति ही इसलिए है कि समाज का प्रबुद्ध वर्ग इसे समझेगा, समाज को समझाएगा। यदि हम बात होली पर्व की ही करें तो यादि केवल इसी एक पर्व को भली – भांति समझ लिया जाये तो मानव जीवन की आधी उलझने, समस्याएं, उहापोह की स्थिति का शमन, समाधान और निराकरण स्वयं हो जायेगा; इसमें किंचित भी संदेह नहीं। तो क्या है होली? बात यहीं से प्रारम्भ करते हैं।

होलाष्टक और होली का अपना एक अलग विशिष्ट संबंध और संदर्भ है, उस पर बहुत कुछ लिख जा चुका है। किंतु होली का सर्वश्रेष्ठ मनोवैज्ञानिक अर्थ तो इसके अक्षर विन्यास में ही सन्निहित है – ( होली = हो + ली). अर्थात जो हो गया, जो बीत गया। अच्छा या बुरा, उचित या अनुचित; उस बात को छोड़ दो, ढोते न रहो। छोड़ने का तात्पर्य मात्र यह है कि उससे उत्पन्न निराशा और अवसाद – विषाद को कंधे पर लादे न रहो, मन – मष्तिस्क पर बोझ न बनाओ। घटना के मूल में स्वयं की सहभागिता ढूंढो। यदि उसमे कोई त्रुटि हो और संशोधन की सम्भावना हो तो बेहिचक करो। अपनी लिखी कॉपी का मूल्यांकन स्वयं कीजिए।

अपना निरीक्षक – परीक्षक स्वयं बनिए, आधी समस्या का समाधान तो इस प्राथमिक स्तर पर ही हो जायेगा। पूरा नहीं भी हुआ तो मात्र इतने से ही एक सार्थक और समुचित मार्ग मिल जायेगा, यदि परीक्षक की भूमिका बिना पक्षपात, पूरी ईमानदारी और सत्यनिष्ठा के साथ निभाई गयी है! यह सभी व्यक्ति और व्याधियो की अचूक दवा है। स्वयं से प्रारम्भ कर परिवार और समाज में निखार लाया जा सकता है। निजत्व के स्तर पर प्रारंभ हुआ यह परिष्कार, सामाजिक परिष्कार और राष्ट्र की अंतर्शक्ति सुदृढ़ कर उसे अंतर्राष्ट्रीय मॉडल के रूप में एक प्रेरणास्रोत बनाया जा सकता है। व्यक्ति विकास, व्यक्तित्व विकास की यह प्रगति, राष्ट्रीय प्रगति में परिणित हो सकती है, जिसकी आज महती आवश्यकता है।

होली पर्व मनाने के दो चरण हैं –
(i) होलिका – दहन
(ii) रंग – गुलाल प्रक्षेपण

क्या है यह “होलिका – दहन”? होलिका न तो कोई स्त्री प्रतीक है, न पुरुष प्रतीक; वह हमारी स्वयं की अपनी आतंरिक वृत्ति है, बुराई है, उसी को दहन करना है। विकृति और बुराई को अंकुरित होते ही, पनपते ही नष्ट कर डालना दैनिक साधना और आत्म संस्कार का उद्देश्य है। यह आदत, यह भाव मनोमालिन्य को धो डालता है। जो लोग किसी कारणवश इस दैनिक साधना से नहीं जुड़ पाते हैं, उन्हें इस वार्षिक साधना से तो अवश्य ही जुड़ना चाहिए। सामूहिक बुराइयों का दहन सामूहिक रूप से हो और सभी के समक्ष हो, यही तो है – होलिका – दहन। यही है इस होलिका – दहन का सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पक्ष। इस पक्ष को दूसरे ढंग से भी समझा जा सकता है।

अब प्रचलित प्रासंगिक कहानी से जुड़े हम..! विकृत अहंकार वृत्ति (हिरण्यकश्यप की आत्म श्लाघा) अग्नि सुरक्षा कवच धारण करने वाली ‘होलिका’ अग्नि के प्रकोप से बच नहीं पाई, क्यों? एक अत्यंत विचारणीय बिंदु है यह। सत्य के विरुद्ध, लोकमंगल के विरूद्ध, पाप वृत्तियाँ, अनाचार – भ्रष्टाचार चाहे कितने भी सुरक्षा प्रबंध करें, भेद खुल ही जायेगा और अंततः दोषी को परास्त होना ही पड़ेगा। ‘होलिका – दहन’ ध्वंसात्मक और नकारात्मक वृत्तियों की हार और सद्वृत्ति ‘प्रह्लाद की सुरक्षा’, सत्य तथा सृजनात्मक वृत्ति, लोकमंगल की विजय है। यही इस होली पर्व का तत्त्व-दर्शन है। इसे ही भली प्रकार समझने की आवश्यकता है।

बुराइयों के उन्मूलन के पश्चात, अच्छाइयों की शुरुआत अपने आप होने लगती है। होलिका के प्रतीक लकड़ियों के ढेर में आग लगते ही हर्षोल्लास से आप और हम क्यों चिल्ला उठते हैं? क्यों हमारे अंग – प्रत्यंग थिरकने लगते हैं? क्योंकि अच्छाइयों और सदगुणों की प्रचंड आंधी ने दिल – दिमाग के कपाट खोल दिए हैं। हम प्रत्येक व्यक्ति से, छोटा हो या बड़ा, बच्चा हो या बूढा, गले से लिपट जाते हैं, रंग – गुलाल पोत देते हैं। हाँ, स्नेह और सद्भाव के रंग में भीगकर दूसरे को भी सराबोर कर देना, सद्भाव में डूब जाना ही होली है! यह होली प्रतिदिन दैनिक निजी – साधना में हो, तो बहुत अच्छी बात है। यदि यह कार्य दैनिक नहीं हो पाता, तो भी कोई बात नहीं; वार्षिकोत्सव रूप में मनाएं, लेकिन एकल नहीं सामूहिक साधना के रूप में! इस पर्व में तो परिष्कार ही परिष्कार है, उल्लास ही उल्लास, उमंग ही उमंग है. इस उल्लास – परिष्कार – उमंग को वार्षिक ऊर्जा के रूप में तन – मन – आचरण में संचित कर लेना ही इसकी सफलता है। संक्षेप में यही इस पर्व का निहितार्थ, यही इसका सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पक्ष है। आपसी मनोमालिन्य दूर कर प्रेम – सौहार्द्र को शुभारम्भ कर उसे परिपुष्ट करने के सामूहिक शुभदिवस का नाम है – “होली”। मानव को अपने अन्दर की मानवता को विकसित करने के लिए होली से बड़ा कोई पर्व हो ही नहीं सकता…!

यह किसी एक समुदाय का पर्व नहीं, मानव – समुदाय का, मानव – जाति का पर्व है। इस पर्व के भौंडेपन से, कुरीतियों से, अमर्यादित भाषा प्रयोग से यथासंभव बचें…! अन्दर की विकृतियाँ निकाल बाहर करें।विकृतियों के बहिर्गमन से रिक्त जगह में सभ्यता और संस्कृति का वास होगा, निवास होगा। विरोधियो और शत्रुओं को स्नेह और सद्भाव के रंग में इतना रंग दो कि वह बाहर से ही नहीं, अन्दर से भी रंगीन हो जाये और विरोध का स्वर भूलकर सहयोग का जाप करने लगे। शत्रु को मित्र बना लेने की कला ही इस पर्व की सार्थकता है, यही इस पर्व की पराकाष्ठा भी है।

होली का एक दूसरा स्याह – धूमिल पक्ष भी है! न जाने कब और कैसे इस पर्व में हुडदंग के साथ – साथ अश्लीलता ने भी अपनी जडें जमा लीं..? दावे से साथ कुछ भी कह पाना कठिन है। लेकिन, आज जब हम होली का निहितार्थ जान गए हैं, फिर इसमें फूहड़ता और अश्लीलता का क्या काम? कपड़े यदि गंदे हो जाते हैं तो क्या उन्हें साफ़ नहीं किया जाता? मकान – दुकान की मरम्मत और रंगाई – पुताई नहीं होती? तन – बदन की मैल को क्या धुला नहीं जाता? तो फिर फूहड़ता को, विकृतियों को निकाल फेंकने में संकोच क्यों? चोर दरवाजे से आ घुसे विकृतियों को निकाल बाहर करने का दायित्व भी तो उन्ही का है, जो इस पथ को जान गए हैं, इसकी उपादेयता और महत्व को पहचान गए हैं। पहला कदम तो वही बढ़ाएंगे…. तो आइये, एक सत्साहस भरा संकल्पलें – हम होली मनाएंगे, खूब मनाएंगे… कलुष – कषाय – कल्मश और बुराइयों की होलिका जलाएंगे तथा विकृतियों, फूहड़पन, हुडदंग और अश्लीलता को दूर भगायेंगे…!

सर्वसमान्य को, मानव समाज को होली की शुभकामनाएं!
एक नयी होली… शुभ होली… सार्थक होली… भावनात्मक होली…
सृजनात्मक होली…

डॉ जयप्रकाश तिवारी
लखनऊ, उत्तर प्रदेश

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