महिला आत्मकथा लेखन पर डॉ अहिल्या मिश्रा का लेख – कहानीकार एन आर श्याम की जबरदस्त प्रतिक्रिया

ए असफल के संपादन में ग्वालियर से प्रकाशित होने वाली त्रैमासिक ‘किस्सा कोताह’ के अक्टूबर – दिसंबर 2022 के अंक में डॉ अहिल्या मिश्रा का एक लेख ‘हिंदी साहित्य में महिला आत्मकथा लेखन’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। इसमें इस विषय से सम्बंधित विस्तृत जानकारी है। आत्मकथा लेखन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमे उस लेखक के जीवन से सम्बंधित कुछ अनछुए पहलू सामने आते हैं। हर व्यक्ति अपने जीवन में कुछ ऐसी घटनाओं से गुजरता है जो जिंदगी भर उसका पीछा नहीं छोड़ती है। वह अंदर ही अंदर घुमड़ती रहती है। आत्मकथा लेखन के माध्यम से वह इसे सम्प्रेषित करता है और अपने मन का बोझ हलका करता है।

सम्पूर्ण जीवन का सार होता है

लेखक अपने बीते जीवन में जब पीछे मुड़कर देखता है तो पाता है कि जीवन की जिस मंजिल पर वह आज पहुंचा है उसके पीछे कई सफलताएं हैं तो असफलताएं भी हैं। जीवन में गहरे विषाद भी थे तो खुशियां भी थी। यही सब वह आत्मकथा में पाठकों के सामने रखता है। अपने इन अनुभवों को पाठकों से साझा करता है। इसमें उसके सम्पूर्ण जीवन का सार होता है। पाठक लेखक के सम्बन्ध में पूरी जानकारी ही नहीं प्राप्त करता है। बल्कि उस समय की संस्कृति, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक माहौल से भी परिचित होता है। एक सारे जीवन के अनुभव को वह चार – छह घंटे या कहें तो दो – चार दिन में पढ़कर प्राप्त करता है। पर आत्मकथा लेखन में पूर्ण ईमानदारी और साहस की आवश्यकता होती है।

पितृसत्तात्मक समाज

अपने जीवन के कुछ कमजोर प्रसंगों को लिखने में बदनामी के डर से या तो लेखक कन्नी काट जाता है या फिर तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करता है। पितृसत्तात्मक समाज होने के कारण पुरुष लेखकों को अपनी आत्मकथा में अपने भोगे हुए यथार्थ को लिपिबद्ध करने में जहाँ कुछ हद तक सुविधा होती है, वहीँ यह सुविधा लेखिकाओं के मामलों में बहुत कम ही होती है।

आत्मकथा बीच में ही रोक देना पड़ा

मुझे अच्छी तरह याद है हिंदी के एक बहुत ही प्रतिष्ठित लेखक की आत्मकथा को राजेंद्र यादव ने हंस में धारावाहिक रूप में देना आरम्भ किया था। उसमें उन्होंने दूसरी महिलाओं से अपने लैंगिक संबंधों के बारे में बहुत ही बोल्ड होकर लिखा था। पाठकों ने उसे अश्लीलता की संज्ञा देते हुए हो- हल्ला मचा दिया था। न चाहते हुए भी राजेंद्र यादव को वह आत्मकथा बीच में ही रोक देना पड़ा था। इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब एक इतने प्रतिष्ठित लेखक के लिए सचाई लिखना इतना कठिन कार्य है तो लेखिकाओं के लिए और कितना कठिन हो सकता है।

फिर कोई स्त्री अपनी आत्मकथा कैसे लिख पाती

इसी बात की ओर इंगित करती हुई डॉ अहिल्या मिश्र अपने लेख में लिखती है- ‘मनुस्मृति के अनुसार भाई, पिता या पुत्र के संरक्षण में वयनुपुर जीने के लिए स्त्रियां सीमाबद्ध हैं। इस पोंगापंडित विचारधारा में स्त्री का स्वतंत्र अस्तित्व विकसित हो पाना मुश्किल था। फिर कोई स्त्री अपनी आत्मकथा कैसे लिख पाती। पर धीरे – धीरे समय के बदलने के साथ पुरानी मान्यताएं टूटने लगी। महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति सजग होने लगी। वे समाज की रूढ़िवादी मान्यताओं रीति – रिवाजों और परम्पराओं से बाहर आने के लिए छटपटाने लगी।

आत्मकथाओं की सृष्टि

इसी छटपटाहट ने उन्हें आत्मकथा लेखन के लिए प्रेरित किया। उनके अनुसार महिला आत्मकथा लेखन की शुरुआत हिंदी में बहुत बाद में ही हुई। जबकि मराठी, बंगाली, पंजाबी आदि भारतीय भाषाओँ में इनकी शुरुआत कभी की हो चुकी थी। इनसे ही प्रेरित होकर हिंदी लेखिकाएं आत्मकथा लेखन की दिशा में अग्रसर हुईं। फलस्वरूप कौशल्या बैसंत्री का ‘दोहरा अभिशाप (1999)’, मैत्रयी पुष्पा का ‘कस्तूरी कुण्डल बसे (2002)’ और ‘गुड़िया भीतर गुड़िया (2008)’, प्रभा खेतान का ‘अन्य से अनन्य तक (2007)’, रमणिका गुप्ता का ‘हादसे (2005)’, अनीता राकेश का ‘संतरे और संतरे (2002)’, कृष्णा अग्निहोत्री का ‘लगता नहीं है मेरा दिल (2011)’, सुशीला टाकभौरे का ‘शिकंजे का दर्द (2011)’, मेरी कलम मेरी कहानी (2014)’, आदि आत्मकथाओं की सृष्टि हुई।

यौन शोषण का शिकार

इस लिस्ट में अमृता प्रीतम, चन्द्रकिरण सौनरिक्स, पद्मा सचदेव, निर्मला जैन जैसी प्रतिष्ठित लेखिकाएं और भी कई हैं। अपनी कहानियों, उपन्यासों, लेखों और हंस जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका का संपादन कर पाठकों को नयी दिशा देने वाले प्रगतिशील विचारधारा वाले राजेंद्र यादव के व्यवहार से बुरी तरह आहत हो उनकी पत्नी जहाँ मन्नू भंडारी जीवन पर्यन्त उनसे अलग रहने की बात अपनी आत्मकथा में बतलाती हैं। वहीँ 61 वर्ष की आयु में पति का घर त्याग कर अलग रहने ही बात कृष्णा अग्निहोत्री भी अपनी आत्मकथा में लिखती है। रमणिका गुप्ता अपनी आत्मकथा में लिखती हैं कि अल्पायु में बाहर वालों ने ही नहीं घर में रहने वालों ने भी उनके कच्चे बदन से खिलवाड़ किया है। मैत्रेयी पुष्पा जहाँ अपने परिचितों और संभ्रांत परिवार वालों द्वारा यौन शोषण का शिकार होती हैं, वहीँ प्रभा खेतान अपनी आत्मकथा में बतलाती हैं कि नौ वर्ष की उम्र में अपने घर में स्वयं अपने भाई द्वारा यौन शोषण का शिकार हुई थी।

‘दरकती दीवारों से झांकती जिंदगी’

वहीँ पर स्वयं लेखिका अहिल्या मिश्र अपनी आत्मकथा ‘दरकती दीवारों से झांकती जिंदगी’ में अनजान स्थान पर अपनी अस्मिता के लिए किये गए संघर्ष को दर्शाती है। इस तरह हम पाते है कि हिंदी में आत्मकथा लिखने वाली लेखिकाओं ने बिना किसी लाग लपेट के अपने भोगे हुए कटु यथार्थ को बहुत ही बोल्ड होकर लिपिबद्ध किया है। अहिल्या मिश्रा के इस विश्लेषण से उन आत्मकथाओं को पढ़े बिना ही उनके बारें में हमें बहुत सारी जानकारी हासिल होती है और आत्मकथा पढने की तरह ही पाठकों को विचलित करती है। इस दिशा में उनका यह सार्थक प्रयास है। उन्हें बधाई।

लेखक पता: 12-285 गौतमीनगर, मंचेरियल (तेलंगाना)- 504208 मोबाइल नंबर 8179117800

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Recent Posts

Recent Comments

    Archives

    Categories

    Meta

    'तेलंगाना समाचार' में आपके विज्ञापन के लिए संपर्क करें

    X