संस्मरण और शोध लेख : वे अपनी जमीन से जुड़े रहे

10. 04. 2003 के दिन ‘तेलंगाना समाचार’ के राजन्ना जी का फोन आया। बतलाया कि डॉ. पसुमर्ति सत्यनारायण मूर्ति जी अब इस दुनिया में नहीं रहे। 09. 04. 2023 के दिन उनका देहावसान हो गया है।

स्लिम और आकर्षक व्यक्तित्व. लम्बाई 5’10” के आसपास। सर पर सफ़ेद चमकते घने बाल। उम्र 85 वर्ष के लगभग। पर चहरे पर एक तरह की रौनक। ब्लू कलर के शूट और टाई में एकदम टिप- टॉप। हंसमुख चेहरा। राजन्ना जी से उनके देहावसन की खबर सुनकर अचानक उनका यही रूप आँखों के सामने घूम आया। कुछ क्षणों की चुप्पी।

उनसे मुलाकात हुई थी 10 जुलाई 2022 के दिन। उन्होंने ‘अनसंग एंजिल्स’ नाम से एक उपन्यास अंग्रेजी में लिखा था। यह एक आत्मकथात्मक उपन्यास है। इसमें ब्रिटिशकालीन और उसके बाद के भारत में अछूतों की स्थिति को बहुत ही प्रभावी ढंग से दर्शाया गया है। चूँकि यह अंग्रेजी में लिखा गया था और विदेशों में सत्यनारायण मूर्ति जी के बहुत अच्छे कन्टैक्ट थे इसलिए वहां यह बहुत ही चर्चित रहा मुख्य रूप से ब्रिटेन में। इसका तेलुगु अनुवाद ‘अन्टारानी देवतलु’ शीर्षक से विभाष्यम राजेश्वर राव ने किया था। इसी उपन्यास को विशाखापट्टणम के नेवी स्कूल में हिंदी शिक्षिका के रूप में कार्यरत डॉ निर्मला देवी चिट्टाला ने ‘गुमनाम फरिस्ते’ शीर्षक से हिंदी में अनुवाद किया था। इस हिंदी संस्करण के लोकार्पण की अध्यक्षता करने के लिए मुझे आमंत्रित किया गया था। और यहीं पर मुझे उनसे मुलाकात का मौका मिला था।

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डॉ पसुमर्ति सत्यनारायण मूर्ति ने आंध्र विश्वविद्यालय मेडिकल कॉलेज विशाखापट्टणम से एम बी बी एस किया था। फिर आगे की पढाई के लिए लन्दन चले गए। ऍफ़ आर सी एस की उपाधि के साथ ही वहां के रॉयल कॉलेज ऑफ़ सर्जन, इंटरनेशनल साइंसेज अकादमी की भी उन्हें सदश्यता दी गयी थी। एक चिकित्सक के रुप में वहां उन्हें बहुत ही ख्याति मिली। उनकी ख्याति का अनुमान इसी से बात से लगाया जा सकता है कि लन्दन की शासन सभा में उन्हें सम्मानपूर्ण स्थान दिया गया था।

पर इतनी ख्याति और इतने अच्छे कॅरियर के बावजूद वे ब्रिटेन में नहीं रहे। दो दसक तक एक चिकित्सक के तौर पर अपनी सेवा देने के बाद वे वापस वहीँ आ गए। जहाँ उनकी पैदायशी हुई थी। जहाँ उन्होंने विद्याभ्यास किया था। जिस मिट्टी में वे खेल- कूद कर बड़े हुए थे। यहाँ की मिट्टी का ऋण चुकाने के लिए वे वापस आ गए थे।

उनके पिता भी एक नामी चिकित्सक थे। छुआ- छूत वे भी नहीं मानते थे। गरीबों और अछूतों के प्रति उनमें भी बहुत सहानुभूति थी। वे गरीबों का इलाज मुफ्त में या नाममात्र फीस लेकर करते थे। अपने पिता का यही गुण उन्हें विरासत में मिला था। इसी कारण ही तो ब्रिटेन की इतनी अच्छी नौकरी को ठोकर मार वे वापस आ गए थे अपने लोगों की सेवा करने के लिए। यहाँ पर एक अस्पताल का निर्माण किया और निःस्वार्थ भाव से लोगों का इलाज करते रहे। सामाजिक कार्यों में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते रहे।

उन्होंने दूसरे विश्वयुद्ध की भयावहता को अपनी आँखों से देखा था। वह 1942 का काल था। शायद उस समय वे 4-5 वर्ष के रहे होंगे। उपन्यास का आरम्भ ही वे द्वीतिय विश्वयुद्ध के माहौल से करते हैं। लिखते हैं- ‘विश्व में चहुँ ओर युद्ध के बादल छाये हुए थे। विशाखापट्टणम के नौका और मिलिट्री अड्डे पर बम गिरने की आशंका से सारा शहर डर की चपेट में आ गया था। पुलिस सतर्कता से लगातार जीप में गस्त लगा रही थी। बॉम्बिंग के समय नगरवासियों को किस तरह की सावधानियां बरतनी चाहिए इसकी सूचना लाउडस्पीकर पर दे रही थी।

वह बतला रही थी कि पूर्णा मार्केट और कुरपा मार्केट आदि भीड़ भरे इलाके में जमीन के तह में कांक्रीट के बंकर बनाये गए हैं। बॉम्बिंग के समय उसमें शरण लेकर अपने आपको सुरक्षित रखा जा सकता है। खतरा सूचित करने वाली घंटी के बजते ही घर से बाहर कदापि न निकलने, रात के समय दिया-बाती बुझा देने जिससे बम गिराने के लिए आये शत्रुओं के हवाई जहाजों को उनके शहर का पता न चले आदि के लिए लगातार सूचनाएं जारी कर रहीं थी। एक तरह से कहा जाय तो सारा विशाखापट्टणम शहर आतंक से, जान हथेली पर लिए बैठा हुआ था।

यहाँ पर एक अस्पताल का निर्माण किया और निःस्वार्थ भाव से लोगों का इलाज करते रहे। कई सामाजिक कार्यों में हिस्सा लेते रहे। और यही कारण था कि उनका परिवार विशाखापट्टणम छोड़ यलमंचलि नामक एक छोटे से गांव में आकर बस गया था। इस घटना के द्वारा वे बतलाते हैं कि युद्ध का प्रभाव लोगों पर किस तरह पड़ा था। लोग किस तरह माइग्रेट होने के लिए मजबूर हुए थे। वे ब्राह्मण जाति से थे। एक मायने में अच्छे खाते-पीते परिवार से। उनके परिवार का समाज में एक स्टेटस था। फिर भी वे ब्राह्मणवाद से बहुत दूर थे। छुआ-छूत वे बिलकुल नहीं मानते थे।

अपने इस उपन्यास में उस काल में भंगियों की सामाजिक स्थिति पर लिखते हुए बतलाते हैं कि विशाखापट्टणम में उनके घर के पिछवाड़े में चार शौचालय थे। परिवार के पुरुषों के लिए अलग और स्त्रियों के लिए अलग। भंगी उसे साफ़ करने के लिए आते थे। मल को टोकरी में जमा कर उसे उठा कर ले जाते थे। यह काम उन्हें किसी को दिखलाई न दिए बिना करना पड़ता था। अगर वे दिखलाई पड़ जाते तो मानों उन पर आफत ही आ जाती। जाते समय केवल एक आवाज आती- ‘माँजी काम हो गया है। वे बतलाते हैं कि बचपन में ‘मांजी काम हो गया है’ यह बात अक्सर सुना करते थे। पर यह कौन कह रहा है। क्यों कह रहा है। यह बहुत सर पीटने के बावजूद उसकी समझ में न आया था। माँ से पूछने पर झिड़की मिलती थी।

अपनी इसी जिज्ञासा को शांत करने के लिए सबकी नजरें बचाकर चोरी- छिपे वह देखता है और पाता है कि दुबली-पतली एक लड़की मैल से भरी टोकरी बगल में उठाये चली जा रही है। वह उसका रास्ता रोककर खड़ा हो जाता है। एक ऊँची जाति के, वह भी ब्राह्मण लडके को अपनी तरफ निहारता देख वह सिहर उठती है और कहती है- ‘चला जा ! जब तक तू नहीं जायेगा मैं नहीं जा सकती। तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ। बबुआ चले जा।’ यह थी उस समय के निम्न जातियों की दयनीय स्थिति. उस समय के सामाजिक जीवन का बहुत ही सजीव चित्रण मिलता है इस उपन्यास में। और अपनी सामाजिक मर्यादाओं का ख्याल किये बिना वे उस लड़की से उस समय तक संपर्क में रहते हैं जब तक कि सांप काटने से उसकी मृत्यु नहीं हो जाती है।

उम्र के बढ़ने के साथ वे हैदराबाद शिफ्ट हो गए थे। अपनी एकलौती पुत्री रमा और दामाद प्रभाकर के साथ बंजारा हिल्स, रोड नंबर 7 में आकर रह रहे थे। यहीं पर 2019 में उनकी पत्नी का देहांत हो गया। यह उनके लिए एक बहुत बड़ा सदमा था।
उनके इसी निवास में उनकी इस पुस्तक ‘गुमनाम फरिस्ते’ का लोकार्पण हुआ था। पुस्तक का लोकार्पण प्रतिष्ठित साहित्यकार डॉ कुमुद बाला जी के कर कमलों से हुआ था। पुस्तक की भूमिका उन्होंने ही लिखी थी। उनकी इस प्रतिष्ठित कृति के लोकार्पण कार्यक्रम की अध्यक्षता करने का श्रेय मुझे मिला था। इसके लिए सचमुच मैंने अपने आपमें बहुत ही गर्व महसूस किया था।

अनुवादिका डॉ निर्मला देवी चिट्टिल्ला विशेष रूप से इस कार्यक्रम के लिए इतनी दूर विशाखापट्टणम से आयीं थीं। डॉ गोपालकृष्णा, डॉ. प्रदीप कुमार, देवा प्रसाद मयला, के राजन्ना, उनकी सुपुत्री रमा, दामाद प्रभाकर, उनकी युवा नतिनी आदि लोगों ने चर्चा में भाग लिया था। लोकार्पण बहुत ही सौहार्दपूर्ण और परिवारिक वातावरण में हुआ था। उनकी मृत्यु का समाचार सुन एक बार लोकार्पण का वह दृष्य आँखों के सामने चलचित्र की तरह घूम गया। उनके जाने से समाज ने एक निःस्वार्थी चिकित्सक, एक कर्मठ सामाजिक कार्यकर्ता और एक अच्छे लेखक को खो दिया।

एन आर श्याम
12-285 गौतमीनगर
मंचेरियल (तेलंगाना) 504208
मो: 8179117800 ईमेल: nrs1327@gmail.com

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