[नोट- उस्मानिया विश्वविद्यालय आर्ट्स कॉलेज में 8 से 10 जनवरी तक आयोजित त्रिदिवसीय अनुवाद संगोष्ठी में डॉ सुरभि दत्त की चार पुस्तकों का लोकार्पण हुआ। इनमें ‘कौटिल्य अर्थशास्त्र में शासनतंत्र’ एक है। इस पुस्तक पर लिखे गये लेख में लेखक ने अभिमत व्यक्त किया है। हालांकि यह उसकी संक्षिप्त समीक्षा है।]
व्यष्टि से समष्टि तक की यात्रा वाली परमात्मब्रह्म की ‘एको$हंबहुस्याम’ की कामना ने ही सामुदायिकता किंवा सामाजिकता को जन्म दिया, ऐसा मैं मानता हूँ। एकाकी व्यक्ति का जीवन ही क्या, कुछ नहीं। व्यक्ति की आवश्यकता, उसकी पूर्ति के संसाधन और सभ्यतापेक्षी अनुशासन आदि के आविर्भाव की हेतु यह सामाजिकता ही हैं और यही सब हमारे ऋषि मुनियों द्वारा प्रणीत वेदादि संहिताओं के घटक हेतु बने हैं। कौटिल्य का अर्थशास्त्र इसी कोटि में रखा जाने वाला महत्वपूर्ण ग्रन्थ है।
तुलसी-प्रणीत रामचरितमानस यदि हमारे पारिवारिक व्यवहार की आचार-संहिता है तो श्रीमद्भगवद्गीता हमारे जीवन से सम्बन्धित लौकिक व्यवहार की आचार-संहिता। आचार संहिता को हम उस अनुशासन-तन्त्र की प्रबोधिका भी मान सकते हैं जिसने शासन-प्रणाली का महत्व और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसकी अपरिहार्यता सिद्ध की है। अर्थ’ को जब हम व्यापक अर्थों में लेंगे तभी उसके शास्त्र अर्थात् अर्थशास्त्र की उपादेयता समझ सकेंगे। ज़मीन से जुड़कर चले, राज-समाज के संघर्षों में आलोडित, पोर-पोर कष्टों एवं मानापमानों को झेलते हुए निष्ठित उद्देश्य की सफलता का एक आदर्श स्थापित करने वाले- चणकपुत्र, आचार्य विष्णु गुप्त, चाणक्य का नाम भला कौन नहीं जानता? उन्होंने न केवल एक अहंकारी सम्राट का मद मर्दित कर एक सुघर राज्य-शासन स्थापित किया प्रत्युत् आने वाली पीढ़ी के स्थाई उज्ज्वल के लिए ‘अर्थशास्त्र’ की रचना भी की, जिसको हम जीवन-व्यापार की अचार-संहिता भी कह सकते हैं। हैदराबाद, तेलंगाना के केन्द्र में स्थित स्नातक एवं स्नातकोत्तर, हिन्दी महाविद्यालय में राजनीति शास्त्र की प्रोफेसर, विदुषी डाँ. सुरभिदत्त ने उसी अर्थशास्त्र में शासन-तन्त्र के मुख्य बीज बिन्दु खोजकर, 165 पृष्ठ की अपनी पुस्तक ‘कौटिल्य अर्थशास्त्र में शासनतंत्र’ में विवेचनापूर्वक उद्घाटित किये हैं।

प्रतिष्ठित कवि साहित्यकार विद्या वाचस्पति आचार्य देवेन्द्र ‘देव’ जो बिरसा मुंडा, अग्नि ऋचा, क्रांतिमन्यु स्वामी श्रद्धानंद जैसे श्रेष्ठतम महाकाव्यों के रचनाकार है। साथ ही तुलसी सम्मान / पुरस्कार, महर्षि दधीचि पुरस्कार (संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार) आदि अनेक पुरस्कारों से सम्मानित, को ‘कौटिल्य अर्थशास्त्र में शासनतंत्र’ भेंट करती हुई लेखिका डॉ सुरभि दत्त।
प्रथम अध्याय ‘प्राचीन भारतीय चिन्तन-राजनैतिक विश्लेषण’ में चिरपुरातन नितनूतन और सत्यसनातन भारतीय संस्कृति और उससे समन्वय रखने वाली संस्कृतियों व उससे प्रेरित, प्रभावित राजनैतिक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है तो द्वितीय अध्याय में धर्म, वर्ण और आश्रम व्यवस्थापक्षी दण्डानुशासन की व्याख्या, अन्य विद्वानों के मतों के प्रकाश में की है। तृतीय अध्याय में राजतंत्र को राजा- शिर (सिर), मंत्री- नेत्र, मित्र- कान, कोश- मुख, बल- मन, दुर्ग- हाथ और पैर- राष्ट्र इस सप्तांग मानवी रूपक में बॉंधा है। चतुर्थ अध्याय में ‘राजपद, आधार और वर्णाश्रम धर्म’ तो पंचम में सभा, समिति, विदथ, परिषद, मंत्री (मंत्री परिषद), पुरोहित, सेनापति, ग्राम प्रशासन, पंचायतों की भूमिका का सविस्तार उल्लेख किया है।
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‘संघ जनपद-शासन व्यवस्था’ नामक छठे अध्याय में वार्ताशस्त्रोपजीवीसंघ और राजशब्दोपजीवी संघ, इन दो वर्गों में विभाजित कर उन जनपदों पर विजय प्राप्त करने के उपाय व्याख्यायित किये हैं, तो सातवें में विधि-विधान और भ्रष्ट जनों को समाज का कण्टक बताते हुए उन्हें निग्रहीत करने वाली दण्ड नीति का विश्लेषण भी किया है। ‘कल्याणकारी अर्थव्यवस्था’ नामक आठवें अध्याय में भूमि, कृषक, श्रमसम्बन्धी नियमों के साथ गौरक्षा, पशु-संवर्धन, शिक्षा, स्वास्थ्य सम्बन्धी कल्याणकारी योजनाओं और उनके प्रतिपूरक कोश के साथ सर्वधर्म समभाव का भी निरूपण किया है।
अन्तिम नवें अध्याय में परराष्ट्र सम्बन्ध अर्थात् विदेशनीति के अन्तर्गत सन्धि, विग्रह, यान, आसन, संश्रय और द्वैधीभाव, इस षाडगुण्यनीति, उसके क्रियान्वयन के भेदक उपायों के साथ-साथ दूत और चर (गुप्तचर) व्यवस्था और सैन्य-संचालन आदि का समग्रता के साथ विवेचन लेखिका ने किया है। सम्बन्धित सन्दर्भग्रन्थों की लम्बी तालिका देखकर अनुभूत होता है कि अध्यवसायिनी कृतियत्री ने अपनी कारयित्री प्रतिभा से कृति को प्रामाणिक बनाने के लिए प्रभूत परिश्रम किया है, कोई कसर नहीं छोड़ी है। इस रुचिकर विषय पर इस सारस्वत प्रदेय के लिए डॉ सुरभि दत्त को अनेकानेक साधुवाद और प्रयोजन के साफल्यार्थ कोटिश: बधाइयां।

– आचार्य देवेन्द्र देव
बरेली (उत्तर प्रदेश)