पिछले कुछ वर्षों में हैदराबाद के हिंदी जगत में तेजी से उभरी नई कलम, युवा कवयित्री डॉ सुषमा देवी ‘सुशी’ के कविता संग्रह ‘उन्मुक्ता’ (2024) की पांडुलिपि देखने का अवसर मिला। इस सामग्री को देखकर मन आश्वस्त हुआ कि ‘सुशी’ के भीतर सहज काव्य सृजन की बहुत संभावनाएँ विद्यमान हैं। वे एक संवेदनशील, भावुक और विचारवान मानस की स्वामिनी हैं तथा जीवन और जगत की अच्छी समझ और पहचान रखती हैं। भाषा पर भी उनका खूब अधिकार है। उनकी कविताओं को देखने से पता चलता है कि वे निरंतर प्रयास और अभ्यास में लगी हैं। कवि बनने को और क्या चाहिए?
राष्ट्रीयता
‘उन्मुक्ता’ की रचनाकार डॉ सुषमा देवी ‘सुशी’ अपने चारों ओर के परिवेश से – देशकाल से – गहरे जुड़ी हुई हैं और इस देशकाल की तमाम हरकतें और हरारतें उनके भीतर उद्वेलन उत्पन्न करती हैं। इस उद्वेलन को उन्होंने बहुत सतर्कता से अपनी कविताओं में शब्दबद्ध किया है। यहाँ संकलित कविताओं को पढ़ने से लगता है कि उनकी रचनाधर्मिता की पहली दिशा राष्ट्रीयता है। कवयित्री का मानना है कि भारत विभिन्न भाषाओं और प्रांतों या अन्य अनेक प्रकार की विविधताओं के बावजूद एक राष्ट्र है और एक समग्र संस्कृति का द्योतक है। भाषा और भूगोल की विविधता के बावजूद सभी भारतीयों का मूल भाव एक ही है। वे मानती हैं कि भारत-द्वेषियों को यही बात सबसे अधिक चुभती है कि भारतीय परस्पर हिल-मिलकर क्यों रहते हैं। वे भारत की विविधविध विविधता में छलकते एकत्व को बार-बार रेखांकित करती हैं और भारत की संस्कृति को मानवता की अनुपम संस्कृति कहकर उसकी अभ्यर्थना करती हैं।
हरित विमर्श
भारतीय संस्कृति की यह मानवतावादी दृष्टि कवयित्री को मानसिक विस्तार प्रदान करती है और वे केवल भारत ही नहीं, समग्र सृष्टि के लिए अपने मन में एक खास तरह का अपनत्व अनुभव करने लगती हैं। उन्हें यह देखकर बड़ा कष्ट होता है कि आज का मनुष्य धरती माता के धड़कते हुए दिल का भक्षण कर रहा है। इसीलिए वे रसवंती धरती की वेदना को न समझ पाने वाले आज के मनुष्यों को सचेत करने की भी चेष्टा करती दिखाई देती हैं। स्पष्ट है कि प्रकृति, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के प्रति कवयित्री की चिंता उनके काव्य की दूसरी दिशा है।
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विविध विमर्श
सुषमा के काव्य की तीसरी दिशा के रूप में उनके स्त्री विषयक सरोकारों की चर्चा की जा सकती है, जबकि चौथी दिशा उन दीन, हीन, विपन्न और विषण्ण लोगों के प्रति सहानुभूति की है जिन्हें न खाने को रोटी मिल पाती है और न सोने को जगह। इनमें रेहड़ी वालों से लेकर किसानों तक तमाम श्रमजीवी समुदाय शामिल हैं। और यहीं से उभरती है ‘उन्मुक्त’ की रचनाओं की पाँचवीं दिशा जिसका संबंध रचनाकार की नैतिक और राजनैतिक चेतना से है। बड़ी पीड़ा के साथ कवयित्री राजनीतिबाज नेताओं को देश को तोड़ने वाले कीड़े कहकर संबोधित करती हैं।
डॉ. सुषमा की कविता की छठी दिशा उन तमाम कुरीतियों और अंधविश्वासों के पर्दाफाश की है, जो सामान्य रूप से सारे समाज और विशेष रूप से स्त्री जाति के शोषण का आधार हैं। इस कविता संग्रह की सातवीं दिशा विभिन्न पर्वों और त्योहारों से जुड़ी भारतीय उत्सवधर्मिता को उभारने वाली है। जबकि आठवीं दिशा में विभिन्न ऐतिहासिक, पौराणिक और मिथकीय चरित्र अवस्थित हैं। इन चरित्रों में राम, कृष्ण, वैदेही, द्रौपदी और बुद्ध से लेकर तुलसीदास तक सम्मिलित हैं। कवयित्री की काव्यरुचि की नौवीं दिशा बहुत सी कविताओं की बालसुलभ मुद्रा से निर्मित है, तो दसवीं दिशा कोमल निजी संवेदनाओं की पुनःखोज से संबंधित है।
शुभाशंसा
मुझे विश्वास है कि इन कविताओं को पाठकों का भरपूर स्नेह मिलेगा और उस स्नेह के संबल से कवयित्री अपनी काव्यप्रतिभा को निरंतर निखारने की प्रेरणा पाएँगी!
चर्चित कृति
उन्मुक्ता (कविता संग्रह)/सुषमा देवी ‘सुशी’ (मो. 9963590938),
विधा प्रकाशन, दिल्ली/ 2024/ पृष्ठ 104/ ₹250/-

– प्रोफेसर ऋषभदेव शर्मा