‘पुष्पक साहित्यिकी’ संयुक्तांक लोकार्पित, इसकी खासियत के बारे में जानिए डॉ आशा मिश्रा की जुबानी

[नोट- कादम्बिनी क्लब हैदराबाद की स्थापना के तीस वर्ष का जश्न रविवार को रामकोट स्थित कीमती सभागार में हर्षोल्लास के साथ मनाया गया। इस साहित्यिक उत्सव में ‘कविता कहाँ जा रही है’ विषय पर संगोष्ठी आयोजित की गई। दो सत्रों में आयोजित कार्यक्रम में प्रो शुभदा बाँजपे (पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष उस्मानिया विश्विद्यालय) रही है। मुख्य अतिथि डॉ अनिल सुलभ (अध्यक्ष , साहित्य सेवा समिति, पटना, बिहार) रहे हैं। मुख्य वक्ता प्रो ऋषभदेव शर्मा (परामर्शी (हिन्दी), दूरस्थ शिक्षा निदेशालय, मौलाना आज़ाद उर्दु विश्वविद्यालय, हैदराबाद) और वक्ता डॉ संगीता व्यास (असिस्टेंट प्रो. (हिन्दी), उस्मानिया विश्वविद्यालय, हैदराबाद) थे। साहित्यकर प्रवीण प्रणव कादम्बिनी क्लब के 30 वर्षों की साहित्यिक यात्रा का परिचय दिया। इस दौरान साहित्यकारों को सम्मानि किया गया। प्रथम सत्र का संचालन शिल्पी भटनागर ने किया। धन्यवाद ज्ञापन डॉ सुरभि दत्त ने दिया। और दूसरे सत्र में पुष्पक साहित्यिकी पत्रिका का लोकार्पण किया गया। इस दौरान डॉ अहिल्या मिश्रा, प्रो ऋषभ देव शर्मा, डॉ अनिल सुलभ, नरेन्द्र राय ‘नरेन’, वेणुगोपाल भट्टड एवं डॉ गंगाधर वानोडे मंचासीन रहे हैं। कवि सम्मेलन नगर के अनेक कवियों ने अपनी-अपनी रचनाओं का पाठ किया। सत्र का संचालन तृप्ति मिश्रा ने किया। डॉ सुषमा देवी धन्यवाद ज्ञापन दिया। प्रवीण प्रणव की ओर से कादम्बिनी क्लब के 30 वर्षों की साहित्यिक यात्रा पर संदेश दिया। साथ ही संपादक मंडल की सदस्य डॉ आशा मिश्रा ने पुष्पक साहित्यिकी त्रैमासिक अंक में प्रकाशित रचनाओं पर प्रकाश डाला और पत्रिका के प्रकाशन व उद्देश्य के बारे में विस्तार से समझाया। इस दौरान डॉ अहिल्या मिश्रा ने भी पुष्पक के संपादन मंडल पर पूर्ण विश्वास जताया पुष्पक सही हाथों में हैं। ‘तेलंगाना समाचार’ के पाठकों के लिए डॉ आशा मिश्रा का संदेश प्रकाशित कर रहे हैं। विश्वास है यह लेखकों और साहित्यारों के लिए उपयोगी साबित होगी।]

पुष्पक साहित्यिकी वर्ष 7 संयुक्तांक 26 – 27 अप्रैल – सितंबर 2024 की शुरुआत हो रही है क़तील शिफाई के शेर से की-
“दूर तक छाये थे बादल
और कहीं साया न था।
इस तरह बरसात का मौसम
कभी आया न था।।”

पुष्पक साहित्यिकी बादल और बारिश को काटते छाँटते सातवें वर्ष में चल रही है। प्रधान संपादक डॉ अहिल्या मिश्र का साहित्य के प्रति समर्पण, मार्गदर्शन और ऊर्जा तथा संपादक मंडल डॉ आशा मिश्रा , प्रवीण प्रणव एवं सह संपादक अवधेश सिन्हा का जोश और उत्साह है जिसकी वजह से यह पत्रिका पिछले 7 वर्षों से अनवरत प्रकाशित हो रही है।

मैं जहां तक समझती हूँ कि पढ़ना एक लत है और यह एक ऐसी लत है जिसकी चाहत हर किसी को होती है। और मुझे लगता है कि पढ़ने की लत लगाने के लिए पत्रिका एक बेहतर साधन होती है क्योंकि पत्रिका में कविता, कहानी, आलेख, समीक्षाएँ साहित्य की सारी विधाएँ मिल जाती हैं। इससे हमारी पढ़ने की क्षुधा पूर्ति तो होती ही है साथ ही ज्ञानार्जन भी हो जाता है। पुष्पक साहित्यिकी एक ऐसी पत्रिका है जो पढ़ने की क्षुधा पूर्ति में पूर्णरूप से सहायक है।

पत्रिका के इस अंक के संपादकीय में लोकतंत्र और स्वतंत्रता को बनाए रखने हेतु चुनाव में मतदान देकर सरकार चुनने के अधिकार एवं कर्तव्यों की ओर इशारा किया गया है। हम सब जानते हैं कि लोकतंत्र की रक्षा के लिए एक अच्छा सरकार का होना आवश्यक है। ऐसे में सरकार चुनना नागरिक का दायित्व बन जाता है। परंतु कितने लोग इस दायित्व का निर्वाह कर पाते हैं?

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चिंता व्यक्त करते हुए संपादक डॉ आशा मिश्रा ने लिखा है- “हमारे यहाँ कुछ ऐसे प्रबुद्ध लोग भी हैं जो स्वार्थी नहीं हैं लेकिन साथ ही उन्हें न देश से कोई मतलब है न ही सरकार से और न सत्ता से। कोई भी आये कैसे भी रहें वे अपने घरों में, दफ़्तरों में संतुष्ट हैं। मतदान न उनका अधिकार है न कर्तव्य। इसके लिए मिली छुट्टी को वे घर में आराम कर या सैर कर बिताते हैं। वे चाहते हैं कि भारत विश्व गुरु बने लेकिन इसे बनाने योग्य नेता चुनना अपना कर्तव्य नहीं मानते। वे ये नहीं समझ पाते कि समाज और देश को सुधारने का दायित्व सिर्फ़ सरकार का नहीं है बल्कि देश के हर उस व्यक्ति का है जो चाहता है कि बेहतर समाज का निर्माण हो। अधिकार पाने के लिए हम आंदोलन तो करते हैं लेकिन कर्तव्य की बातें आते ही शुतुरमुर्ग की तरह मुँह छिपा लेते हैं।”

आगे डॉ अहिल्या मिश्र की कलम से लिखा हुआ चिंतन के क्षण उपकार, “अपकार एवं संहार” पायेंगे जो पाठकों को अंतर में झांकने पर विवश करेगा।

“पत्रिका के शख़्सियत कॉलम के माध्यम से प्रवीण प्रणव जी हमें हिन्दी साहित्य के जाने माने साहित्यकारों से रूबरू करवाते रहते हैं। इस अंक में जिन साख़्शियत से उन्होंने परिचय करवाया है वे “पाश” हैं जिन्होंने पंजाबी कवि होने के बावजूद उन सभी भाषाओं में प्रसिद्धि पाई जिन भाषाओं में उनकी कविताओं का अनुवाद हुआ। पाश के लिए कवि नागार्जुन ने कहा था कि कि “पाश की पंक्तियों को यदि मूल पंजाबी में सुनने का सुअवसर मिलता तो हम पाश के आंतरिक ऊर्जा से अपने अंदर मृत संजीवनी की बूँदों का एहसास भरते”। उनकी क्रांतिकारी कविताओं और खलिस्तानी आंदोलनों के ख़िलाफ़ होने की वजह से कम उम्र में ही खलिस्तानियों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी। ऐसे कवि के समग्र जीवन का उल्लेख “हम लड़ेंगे साथी” शीर्षक के अंतर्गत आप पढ़ पायेंगे।

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धरोहर श्रेणी में इस पत्रिका के माध्यम से उन रचनाकारों से परिचय करवाया जाता है जिनकी जन्म तिथि या पुण्य तिथि पत्रिका प्रकाशन अंक के महीनों में आती है। धरोहर का मूल सूत्र है कि हम हमारे साहित्यकारों को पढ़ें न कि उन्हें धरोहर स्वरूप सहेज कर या अलमारी में सजाकर रख लें । सहेजें अवश्य परंतु सजाने के लिए नहीं उन्हें पढ़ने के लिए और उन्हें जानने के लिए । पत्रिका के इस अंक के धरोहर हैं केदारनाथ अग्रवाल, हुल्लड़ मुरादाबादी, बेकल उत्साही, कुंवर बेचैन, भारत भूषण अग्रवाल और खुमार बाराबंकवी।

इन सभी की एक-एक चुनिंदा कविता इसमें ली गई है। उदाहरण के तौर पर बेकल उत्साही की कविता देखें –

“फिर मुझको रसख़ान बना दें”
माँ मेरे गूँगे शब्दों को
गीतों का अरमान बना दें।
गीत मेरा बन जाये कन्हाई,
फिर मुझको रसखान बना दें।

देख सकें दुख-दर्द की टोली,
सुन भी सकें फरियाद की बोली,
माँ सारे नकली चेहरों पर
आँख बना दे, कान बना दें।

मेरी धरती के खुदगर्जों ने
टुकड़े-टुकड़े बाँट लिये हैं,
इन टुकड़ों को जोड़ के मैया
सुथरा हिन्दुस्तान बना दें

गीत मेरा बन जाये कन्हाई,
फिर मुझको रसखान बना दें

“नया सवेरा” शांति अग्रवाल जी की कहानी है जो सदा की भाँति संवेदना से पूर्ण है। “जीवन दृष्टि” कहानी डॉ अमिता दुबे की है जो एक मालकिन एवं गृहसेविका के अपनी अपनी भावनाओं को बहुत ही सरल एवं अत्यंत रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। पत्रिका के इस अंक में केशव शरण, वर्षा शर्मा , लक्ष्मी शर्मा, किरण सिंह, श्याम मनोहर सिरोिढ़िया और चंद्रप्रकाश दायमा जी की कवितायें शामिल हैं।

दायमा जी की कविता की चंद पंक्तियाँ देखें –

यार जयचंद हमे दुख है,
हमने उस समय
तुमको भला बुरा कहा
हमारी वजह से तुमने कितना सहा
क़ौम के प्रति तुम्हारी ग़द्दारी की,
हम नीति ही समझ नहीं पाये।
तुम दूर दृष्टि रखनेवाले राजनेता थे
तुम्हारी राजनीति ही नहीं समझ पाये।
लेकिन यार हमने बहुत बुरा कहा
तो तुमने इतना क्या बुरा मान लिया।
घृणा इतनी बढ़ा ली कि
बदला लेने की ही ठान लिया
रक्त बीज की तरह,
तुमने यहाँ अनेकों जयचंद बना डाले हैं
हमे पता ही नहीं
आज कितने साँप हमने
आस्तीन में पाले हैं।

“कला बेवकूफ बनाने की” एक ऐसी व्यंग्य रचना है जिसमें आपको विभिन्न प्रकार के बेवक़ूफ़ों से पाला पड़ेगा और स्वयं की बेवकूफियत की श्रेणी भी आप पता कर पायेंगे।

इसके लेखक हैं डॉ बलवीर सिंह भटनागर जो उदयपुर के हैं। रंगमंच कॉलम में डॉ उषा रानी राव ने प्राचीन तमिल नाट्य परंपरा का लोक नाट्य “कुथू” के संबंध में लिखा है। और फ़िल्म कॉलम में दीपक कुमार दीक्षित जी का आलेख “दक्षिण के अभिनेताओं के लिए बॉलीवुड एक अभेद्य क़िला” शामिल किया हुआ है। विश्व साहित्य में सह संपादक अवधेश कुमार सिन्हा ने नोबेल पुरस्कार विजेता तुर्की उपन्यासकार ओरहान पामुक के उपन्यास “माई नेम इज़ रेड” के कुछ अंशों का हिंदी में अनुवाद किया है । जैसा कि मैंने कहा कि आप इसमें सभी विधाएँ देख सकते हैं अतः लघु कथा, कविताएँ, आलेख, निबंध, व्यंग्य, समीक्षा, यात्रा वृतांत आदि कई सामग्री के साथ नये प्रकाशित पुस्तकों का संक्षेप समीक्षात्मक परिचय भी इसमें आपको मिल जाएगा। यात्रा वृत्तांत में पाठक गण प्रधान संपादक के साथ कुलु मनाली की यात्रा का आनंद ले सकते हैं। कुल मिलाकर पत्रिका में विविध साहित्यिक व्यंजनों को एकत्रित कर पाठकों को परोसने की कोशिश की गई है। जिसे पढ़ते हुए पाठक आनंद की अनुभूति से सराबोर होंगे।

पत्रिका – पुष्पक साहित्यिकी वर्ष 7 संयुक्तांक 26 – 27 अप्रैल-सितंबर 2024.
प्रकाशक : हरिओम प्रकाशन, हैदराबाद।

एक प्रति मूल्य – मात्र ₹100/-

पत्रिका सदस्यता :
वार्षिक – ₹300 /-
आजीवन – ₹5000/ –
पुस्तकालय एवं संस्थागत – ₹5500/-
संरक्षक – ₹11000/-

सदस्यता हेतु बैंक विवरण :

A/C Name – Pushpak Sahityiki
Bank Name – Canara Bank
Branch – Vengal Rao Nagar, Hyderabad-500038
A/C No – 6108201000091
IFSC Code – CNRB 0006108

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