गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागू पांय। बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।।
भारतीय लोक चेतना में सत्य की ओर गति कराने एवं जीवन को जीवंतता देने वाले गुरु को ईश्वर से भी ऊपर माना गया है। क्योंकि गुरु ही है जो अपने त्याग, तपस्या, ज्ञान एवं साधना से ना केवल भौतिक जगत मैं जीने की बल्कि आध्यात्मिकता से जुड़कर जन्म- मरण के चक्कर से छुटकारा पाकर मोक्ष पाने की राह दिखाते हैं। गुरु पूर्णिमा दिवस एक साधारण दिन या कोई औपचारिक अवसर नहीं है। यह दिवस हमारी सोच के नीलकंठ को उन ऊर्जादायिनी फुनगियों तक ले जाता है जहाँ से उसमें परवाज़ का हौसला पैदा होता है।
गुरु शिष्य के हर अविवेक को अपनी गुणग्राहकता और मर्मज्ञता से दूर कर उसकी अन्तर्दृष्टि और वैचारिक सामर्थ्य के कपाट खोलते हैं। कभी-कभार शिष्य को चेताने के लिए, उसे डाँटना भी पड़ता है। कुछ कठोर वचन भी कहने पड़ते हैं। कुछ उलाहना भी देना पड़ता है। यह सब उनकी सीख का ही हिस्सा है। वे शिष्य को कसौटी पर चढ़ाकर शुद्ध स्वर्ण बना देते हैं। सुगुरु पृथ्वी को एक बेहतर लोक बनाने के लिए बेहतर मानव तैयार करते हैं। शिष्य को उसकी अंतर्निहित शक्तियों से परिचय करवा कर आत्मा को परमात्मा बनाने वाले गुरु ही होते हैं।
यह भी पढ़ें-
गुरु ऊर्जा के अक्षय कोष होते हैं। गुरु दृष्टि में इतनी शक्ति होती है कि गुरु की करुणा दृष्टि यदि कंकर भी प्राप्त कर ले तो वह भी शंकर बन जाता है। गुरु वाणी का उर से सम्मान करने वाला शिष्य निश्चित ही गुरु के हृदय में निवास करता है। धन्य होते हैं वह शिष्य जिन्हें ऐसे सुगुरु मिल जाते हैं जो यह भव ही नहीं अगला भव भी परम आनंदमय बना देते हैं। जो शिष्य विनम्र होतें हैं। गुरु वचनों पर श्रद्धा रखतें हैं। समर्पण रखतें हैं। वे निश्चित ही एक दिन अपनी मंजिल पा लेतें हैं। भारतीय परंपरा में गुरु पूर्णिमा का सर्वोपरि महत्व दिया गया है। गुरु पूर्णिमा सन्मार्ग एवं सत-मार्ग पर ले जाने वाले महापुरुषों के पूजन का पर्व है। कहते हैं आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा के दिन महर्षि वेदव्यास का जन्म हुआ था, इसलिए इसे व्यास पूर्णिमा भी कहते हैं। इस दिन शिष्य अपने गुरु की पूजा करते हैं। यथाशक्ति अपने गुरु को दक्षिणा भी भेंट करते हैं।
वह सब गुरु की श्रेणी में आते हैं जिनसे हमें सद्ज्ञान मिलता है। प्रथम गुरु तो माता को ही माना जाता है। बच्चा जिस दिन से गर्भ में आता है माता उसी दिन से उसका प्रशिक्षण शुरू कर देती है। पिता दुनियादारी सीखा कर कर्म क्षेत्र में बच्चों को आगे बढ़ता है। विद्यालय और महाविद्यालय में प्रशिक्षक आचार्य पुस्तकिय ज्ञान दे कर जीवन यापन के गुण सीखाते हैं। आध्यात्मिक गुरु अपने शिष्य को क्रोध, मान, मद लोभ आदि विकारों से उबार कर उसके जीवन को ऊंँचा उठाते हैं। वैराग्य के अमृत सिंचन से उसके जीवन को मोक्ष पथ गामी बना देते हैं। गुरु पूर्णिमा के अवसर पर उन सबको नमन करती हूं जिन्होंने ज्ञान और त्याग के दृश्य-अदृश्य सरित् प्रवाहों को मेरे घट में प्रवाहित किया। इस संदर्भ में यह कविता गुरु की याद में प्रेषित है-

हूँ मैं आभारी
गुरु पूनम का शुभ, अवसर है आया।
गौरव अपने सब, गुरुओं का गाया।।
अपने गुरुओं की, हूँ मैं आभारी ।
जीवन मेरा है, उन से सुखकारी।।
मेरी पहली गुरु, है मेरी माता ।
सबसे पहले उन, से जोड़ा नाता।।
शत-शत उनको वंदन करती।
उन की हर आज्ञा ,सिर पर मैं धरती।।
अगला वंदन है, मम शिक्षा दाता।
पुस्तक शिक्षा का, खोला था खाता।।
लिखना पढ़ना था, जिस ने सिखलाया।
जिसने सब विषयों, को था समझाया।।
बचपन से ही मैं, लिखती थी कविता।
उतरी शोणित में,पापा गुण सरिता ।।
गुरु महेश जी ने, शिक्षा बरसाई।
विद्या छंदों की, विधिवत सिखलाई।।
अध्यात्मिक गुरु, महाश्रमण मेरे।
तोड़े भव बंधन, के मेरे फेरे।।
पल-पल वंदन मैं, करती गुरुवर को।
अध्यात्मिक जग के, सुर तरुवर को।।

लेखिका हर्षलता दुधोड़िया, हैदराबाद