पुस्तक ‘इतिहास हुआ एक अध्यापक’: डॉ सुषमा देवी की समीक्षा

तस्मै श्री गुरवे नमः

विवेच्य ग्रंथ ‘इतिहास हुआ एक अध्यापक’ के ग्रंथनायक डॉ प्रेमचंद्र जैन का जीवन स्वयं एक महाग्रंथ स्वरूप है। यह महाकाय ग्रंथ साहू जैन कॉलेज, नजीबाबाद (उत्तर प्रदेश) के आचार्य स्वर्गीय डॉ प्रेमचंद्र जैन की पुण्य स्मृति को समर्पित है। बतौर शिक्षक वे ज्ञान और मूल्य के जीवंत उदाहरण थे। उन्होंने शिक्षक-जीवन की ऐसी कृतार्थता उपलब्ध की थी, जब समाज में शिक्षक के शब्दों से अधिक उसका व्यवहार बोलने लगता है। निश्चय ही यह उस समाज की भी धन्यता है। संपादकों ने इस ग्रंथ में जहाँ उनके अप्रकाशित साहित्य-कविता, कहानी, आलोचना, वार्ता और व्याख्यान- को शामिल किया है, वहीं हिंदी सेवियों और साहित्यकारों के साथ उनके पत्राचार को भी सहेजा है। उनसे जुड़े अनेक संस्मरण यहाँ हैं, तो उनके जीवन-संघर्ष की वह गाथा भी, जो ऐतिहासिक महत्व की है। उनके साहित्य पर समीक्षात्मक आलेख इस सारी सामग्री को परिपूर्णता प्रदान करते हैं। कुल मिलाकर यह स्मृति ग्रंथ एक अध्यापक के संघर्ष, सामाजिक संपृक्ति, रचनधर्मिता और सर्जना का साक्ष्य है, जिसमें नई पीढ़ी के लिए अनेकविध प्रेरणा विद्यमान है।

डॉ प्रेमचंद्र जैन की कविताओं की बात करें तो ‘अपना परिचय स्वयं हूँ’। वे स्वयं से अधिक अपने आपको विद्यार्थियों का मानते हैं। ‘शनै: शनै: उभर रहा चित्र’ में कवि ने स्त्री की अस्मिता के रक्षक कृष्ण से अधिक चारों ओर दुर्योधन के शरविद्ध होने की कामना की है। ‘समय के फलक पर’ जीवन-सत्य का उद्घाटन करने वाले कवि ने ‘गरूर’ में दर्शाया है कि असाध्य रोग भी शिक्षक को कर्म से विरत नहीं कर सकते। ‘राष्ट्रीय सेवा योजना के वीर’ में शिक्षा के व्यापारी रूप से त्रस्त कवि चहुँओर भ्रष्टाचार को देखकर आहत हैं।

डॉ प्रेमचंद्र जैन की कहानियों में, ‘स्वाभिमानी लाला जी’ में नायक के स्वाभिमानी स्वरूप का चित्रण है, तो ‘रानी फूलनदे’ कहानी में लोककथा के माध्यम से जीवन मूल्य का चित्रण है। ‘कलजुगावतारी’ में लोककथा के माध्यम से शेर द्वारा कथानायक के बहाने भ्रष्टाचारियों पर व्यंग्य किया गया है , यथा- ‘मैं तुम जैसे भूखों को नहीं खाता। बड़े-बड़े पैसे वाले, गरीबों का खून चूसकर घर भरने वाले मालदार मोटों को खाता हूँ।‘ (इतिहास हुआ एक अध्यापक, पृष्ठ 37)।

विद्या और कला की महिमा’ कहानी में भी लोककथा के माध्यम से लेखक ने विद्या, कला, वीरता की महिमा का बखान करते हुए इन्हें धन और राजपाट से अधिक महत्वपूर्ण बताया है। ‘एक राजकुमार का ब्याह’ कहानी में जीवन में सही-गलत की सीख राजा, रानी और राक्षस पात्र के माध्यम से दी गई है। चार खंडों वाली ’चाचा की कहानी’ के पहले खंड में फंतासी के माध्यम से न्याय-व्यवस्था पर कटाक्ष किया गया है। दूसरे खंड में प्राचीन ग्रामीण शिक्षा की व्यावहारिकता को रोचक ढंग से बताया गया है। तीसरे में बंदर, राक्षस और पंडित के माध्यम से रोचक कथा बुनी गई है तो चौथे और अंतिम खंड में राजा, रानी, राजकुमारी, सेनापति आदि पात्रों के सहारे कर्म की सर्वोपरिता का प्रतिपादन किया गया है। ‘नानी की कहानी’ में अच्छी और बुरी संगत के बारे में रोचक कहानी कही गई है। ‘माँ की कहानी (तू खा गलागल खिचड़ी, मैं सैलाऊँ तेरी पूँछड़ी)’ में हरियाणवी लोककथा की लेखक ने ऐसी प्रस्तुति की है मानो पाठक कहानी पढ़ न रहे हों, बल्कि उसके साक्षी बने हो। लघुकथा ‘आपबीती’ में लेखक ने बेरोजगारी पर बड़ी मार्मिक कथा लिखी है। ये सभी कहानियाँ लोकजीवन और लोकमानस से लेखक के गहरे जुड़ाव का तो पता देती ही हैं, संस्कारों के निर्माण में लोक साहित्य की महत्ता के प्रति उनके विश्वास को भी दर्शाती हैं।

‘विचार विवेचन’ में डॉ प्रेमचंद्र जैन के शोधपूर्ण लेखन की बानगी प्रस्तुत की गई है। ‘प्रेमाख्यानक परंपरा और जायसी का पद्मावत’ में लेखक ने प्रेम जैसी शाश्वत भावना की कबीरदास के दोहे, डॉ भगवानदास के ‘साइंस ऑफ़ इमोशंस’, कार्ल मेनियर के ‘लव अगेंस्ट हेट’, वात्स्यायन के ‘कामसूत्र’, भवभूति, घनानंद आदि के प्रेम के संदर्भ में दिए गए विचारों के साथ जायसी की प्रेमाख्यानक परंपरा का गहन विश्लेषण किया है। ‘बोधिसत्व का अवतरण’ में गौतम बुद्ध के जीवन को तथा उनके द्वारा प्रसारित विचारों को मानव के लिए अत्यंत आवश्यक बताया है। ‘हमारे पथ प्रदर्शक भारतीय दर्शनों में जैन धर्म’ में लेखक कहते हैं, ‘मैं मानता हूँ कि व्यक्ति और आत्म-स्वातंत्र्य के लिए दर्शनों की यह विविधता या अनेकता शुभ लक्षण है। जैन दर्शन वस्तु को अनेक गुण-धर्म वाला मानता है। हमने देखा, पथ और पथ-प्रदर्शक अनेक हैं। इनका वर्गीकरण करें तो पथ और पथ-प्रदर्शकों की ‘सु’ और ‘कु’ उपसर्ग पूर्वक दो श्रेणियाँ बनेंगी।’ (वही/88)। ‘निराला की सामाजिक व सांस्कृतिक चेतना’ में लेखक निराला की क्रांति-प्रेरक विचारधारा की प्रसूति वेदांत से मानते हैं, क्योंकि ‘वे मार्क्सवाद को स्वीकार नहीं करते। एक ही ब्रह्म से सारी आत्माएँ प्रसूत हैं, ऐसा बताते हैं। इसी को व्यवहार में लाते हैं, इसीलिए मार्क्सवाद से दो कदम आगे हैं।’ (वही/92)।

डॉ प्रेमचंद्र जैन के वक्तव्यों को उनकी विचारधारा का प्रतीक माना जा सकता है। उनके वक्तव्यों की कड़ियों को संपादक ने बड़ी सुंदरता से संकलित किया है। ‘डॉ पीतांबर दत्त बड़थ्वाल : हिंदी के गौरव’ में डॉ बड़थ्वाल की शोध दृष्टि के व्यापकत्व पर प्रकाश डालते हुए डॉ. जैन कहते हैं, ‘संस्कृति, व्यक्ति, समाज और योग मानस की संस्कार प्रक्रिया है, जिससे व्यक्ति के व्यक्तित्व का प्रकाशन होता है। मूलतः रचनाकार का जिस पर प्रातिभ संरंभ है, उसके कथ्य पर ध्यान न देना न्यायोचित नहीं होगा।’ (वही/99) ‘रेडियो वार्ता’ के अंतर्गत ‘रीतिकालीन काव्य में शरद ऋतु वर्णन’ में वे कहते हैं, ‘सृष्टि के आदि से लेकर अब तक ऋतुएँ आती-जाती रही हैं। किसी भी संस्कृति की थाती उसका साहित्य होता है।’ (वही/106)। लेखक ने रीतिकाल की शृंगारिकता के उपेक्षकों को आड़े हाथों लिया है। शरद ऋतु को संस्कृत, अपभ्रंश तथा हिंदी के वीरगाथाकाल और भक्तिकाल की रचनाओं में भी उद्घाटित किया है। ‘दीपावली का महत्त्व’ वार्ता में दीपावली की पौराणिक, सांस्कृतिक तथा विज्ञानसम्मत व्याख्या की गई है। ‘गाँधी दर्शन: आज के परिप्रेक्ष्य में’ वे कहते हैं, ‘समस्त सोद्देश्य मानव कर्म जीवन-दर्शन द्वारा परिचालित एवं नियंत्रित होते हैं। इसके बिना कोई भी समाज-व्यवस्था उद्देश्यहीन एवं मानव-कर्म अन्धवत होते हैं।’ (वही/115)। लेखक का बहुआयामी व्यक्तित्व उनके विचारों एवं लेखन में सहज ही दृष्टव्य होता है। ‘राजभाषा हिंदी की संवैधानिक स्थिति’ की विवेचना करते हुए डॉ जैन कहते हैं, ‘विडंबना ही है कि सांस्कृतिक एकता स्थापित करने के उद्देश्य से शंकराचार्य द्वारा स्थापित चारों धामों की यात्रा में भाषा कभी बाधक नहीं बनी। उत्तर-दक्षिण, आर्य-अनार्य का प्रसंग नहीं उठा। राष्ट्रभाषा हिंदी पर ही अड़ंगा क्यों?’ (वही/130 )।

‘रचना का भीतरी सच’ नामक खंड में विभिन्न विद्वानों द्वारा डॉ प्रेमचंद्र जैन की रचनायात्रा की समीक्षा की गई है। प्रो गोपाल शर्मा ने ‘पुरुष कहाणी हौं कहौं जसु पत्थावे पुन्नु (अपभ्रंश कथाकाव्य से हिंदी प्रेमाख्यानक तक)’ में डॉ जैन की प्रेमाख्यानक के संदर्भ में प्रतिपादित वैचारिक स्थापनाओं का गहन मंथन किया गया है। इसमें हिंदी की जननी भाषा के अवदान को भी रेखांकित किया गया है। डॉ ऋषभदेव शर्मा ने ‘नित प्रति धोक हमारा हो!’ में ललित निबंधात्मक शैली में डॉ प्रेमचंद्र जैन की जैन दर्शन की विवेचना का परिचय दिया है। यथा, ‘दूसरों के घरों में घूमते-घूमते हमने अनंत काल बिता दिया। यहाँ-वहाँ न जाने कैसे-कैसे नाम रखे गए। हम अपने घर कभी नहीं आए। अध्यात्मपरक भाव यह है कि कवि निरंतर आत्मा में पछताता है और व्यग्र होता है कि यह भूल क्यों रहा हूँ। फिर भी आत्म-परिणति प्राप्त नहीं कर सका। पर-परिणतियों में ही घूमते हुए न जाने कितने भव व्यतीत हो गए, फिर भी निज घर नहीं आया।’ (वही/146)। ‘मन की तरंग के कवि : डॉ प्रेमचंद्र जैन’ में डॉ अरुण देव ने कवि की जीवटता का उल्लेख किया है कि वे अपने जीवन के उलझनों से उकताकर संन्यास की राह की ओर देखते रहे, किंतु शीघ्र ही कर्मपथ पर बढ़ चले। वे धर्म, अध्यात्म और साहित्य पथ के बटोही होकर भी धार्मिक संकीर्णताओं से सर्वथा मुक्त थे। ‘वे कहते हैं कि दीमक चट कर जाए ऐसी नींव नहीं हूँ और यह भी कि मैं अपने पैरों के पुल पर खड़ा हुआ हूँ।’ (वही/149)।

डॉ बी बालाजी तथा शीला बालाजी के लेख ‘मानवता में आस्था के कवि डॉ प्रेमचंद्र जैन’ डॉ प्रेमचंद्र जैन की कविताओं ‘गुदगुदी घास’, ‘हम अहिंसक हैं’, ‘ओ छब्बीस जनवरी’, ‘इकतीसवाँ गणतंत्र दिवस’, ‘कृषक मेले के अवसर पर’, ‘एक पाती मेरी भाती’, ‘कवि छोड़ो’, ‘रे कलियुग के देव’, ‘चश्म नम हैं मुफलिसों को देखकर’, और ‘रंग में सराबोर’ के आधार पर कवि की दृष्टि-विविधता को विश्लेषित किया गया है। प्रवीण प्रणव ने ‘शायद पता चले, शायद नहीं भी’ में डॉ प्रेमचंद्र जैन की विविधरंगी कविताओं का हिंदी के अन्य रचनाकारों के रचनात्मक साम्य के साथ विवेचन किया है। डॉ जैन के संदर्भ में वे कहते हैं, ‘आत्ममुग्धता के इस दौर में जहाँ हर आदमी अपनी ही प्रशंसा का आकांक्षी हो, डॉ जैन जैसे लोग विरले ही हैं, जो दूसरों की खुशीमें अपनी खुशी पाते हैं। एक शिक्षक का भी अपने छात्रों से स्नेह संबंध सामान्यतः शिक्षण के दौर तक ही रहता है, कम ही शिक्षक हैं जो अपने पूर्ववर्ती छात्रों से भी स्नेह बनाए रखते हैं।’ (वही/165)।

डॉ चंदनकुमारी ने ‘प्रेमचंद्र जैन की समीक्षा दृष्टि’ पर विस्तार से चर्चा की है। ‘समाज में महिलाओं की स्थिति’, ‘अपभ्रंश साहित्य में पर्यावरण चेतना’, ‘जीवन बनाम वैचारिक गंगा स्नान’ आदि के सहारे डॉ जैन के वैचारिक विस्तार को उद्घाटित किया गया है। डॉ सुपर्णा मुखर्जी के ‘अंतरिक्षीय शब्दों को समझने का प्रयास’ के अंतर्गत भारतेंदु, शरत, डॉ हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ शिवप्रसाद सिंह आदि के संदर्भ में लेखक की वैचारिकता को उद्घाटित किया गया है। प्रसंगवश यह जानकारी भी कि डॉ जैन ने अपने पिता की इच्छा के विपरीत शिक्षा कर्म को चुना। पिताजी उन्हें जैन धर्म के पंडित, व्याख्याकार तथा ज्योतिषी के रूप में जीवन वृत्ति अपनाने के पक्षधर थे। ‘उनके लिए धर्म केवल ईश्वर-ईश्वर चिल्लाते रहने का साधन नहीं था। धर्म उनके लिए मानवता, समरसता को जन्म देने वाला साधन था।’ (वही/
178)।

‘पत्र संग्रह से’ नामक खंड में डॉ. जैन के विशाल हृदय और तीक्ष्ण बौद्धिक तेज को देखा जा सकता है। पत्र व्यक्ति के मन के भावों का कच्चा चिट्ठा खोलता है। बनारसीदास चतुर्वेदी, शिवप्रसाद सिंह, नागार्जुन, कमलेश्वर, नर्मदेश्वर चतुर्वेदी, तेजपाल सिंह, ज्ञानेंद्र, अब्दुल बिस्मिल्लाह, मधुरेश, इंदु जैन, विष्णु प्रभाकर, धर्मेंद्र गुप्त, कृष्णबिहारी मिश्र, मैनेजर पांडेय, पद्मधर त्रिपाठी, शंभुनाथ, हरिपाल त्यागी, माहेश्वर तिवारी, पीतांबर देवरानी, जगतराम मिश्र ‘अकिंचन’, जवरीमल्ल पारख, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, वाचस्पति, श्रीराम आर्य, अजेय कुमार, चंचल चौहान, कुलदीप, भीमसेन निर्मल, सुमनलता, ठाकुर प्रसाद सिंह, चंद्रकला त्रिपाठी, भागचंद्र, बाबू लाल जी जमादार, अशोक, कस्तूर चंद कासलीवाल, तेज गंगवाल, पद्म चंद शास्त्री, लाल चंद शास्त्री, ज्ञानमाला जैन (बड़ी बहन ), हरीशचंद्र शर्मा, महेंद्र मधुकर, उमेश प्रसाद सिंह, मौ.अकरमखाँ,अशोक महेश्वरी, ऋषभदेव शर्मा और देवराज आदि डॉ. जैन के शुभाकांक्षी सतत पत्राचार करते रहते थे। इन पत्रों में अपनत्व की ऐसी झलक दिखती है कि यह तय करना सर्वथा असंभव प्रतीत होता है कि कौन इनके बंधु-बांधव हैं और कौन इनके साहित्यिक राहों के सहयात्री। सभी अधिकार भाव और स्वास्थ्य चिंता के साथ पत्र लिखा करते थे। साथ ही, समाज, साहित्य और भाषा की चिंताएँ भीं। देवराज के एक पत्र का यह अंश देखा जा सकता है, ‘अब कुछ लोगों ने फिर एक चाल चली है …हिंदी फिल्मों के बायकॉट की। यह कार्यक्रम 17 जून के लिए तय किया गया है, सिर्फ एक दिन के लिए। अब देखिए क्या होता है।‘ (वही/ 238)।

‘एक संघर्ष कथा यह भी’ खंड में डॉ देवराज के द्वारा लिखित ‘नजीबाबाद नगर और डॉ प्रेमचंद्र जैन (संघर्षों की इतिहास-कथा)’ में ग्रंथनायक के जीवन संघर्ष को इन शब्दों में समझा जा सकता है, ‘डॉ. प्रेमचंद्र जैन ने जिस धरती पर कदम रखा, वहाँ अमृत और विष दोनों ही थे। उन्हें अमृत-पान करके अपने को जन-संघर्ष के लिए तैयार करना था और नगर तथा इस अंचल को सांस्कृतिक-पतन की ओर धकेलने वाले विष को निष्प्रभावी बनाना था।’ (वही/ 246)। इस खंड में विस्तार से उनके शिक्षण एवं शिक्षणेतर संघर्षों की गाथा का उल्लेख है। इसी क्रम में ‘हथेली पर समय के साथ अनंत की ओर’ नामक खंड में डॉ देवराज द्वारा लिखित ‘इतिहास हुआ एक अध्यापक’ को शामिल किया गया है। इसमें डॉ। जैन के मधुर सामाजिक समरसतापूर्ण व्यक्तित्व को रमुआ और शन्नूराम के साथ उनकी अभिन्नता के आख्यान द्वारा साकार किया गया है और डॉ प्रेमचंद जैन के बचपन से लेकर उनके साहित्यिक, सामाजिक और पारिवारिक जीवन की अंतरंग चर्चा की गयी है, जो किसी उपन्यास जैसी रोचक है।

‘स्मृतियाँ और स्मरण’ नामक खंड में प्रो. भागचंद जैन ‘भास्कर’ के संस्मरण ‘अप्रतिम प्रतिभाशाली व्यक्तित्व‘में ग्रंथनायक के समग्र जीवन की संक्षिप्त प्रस्तुति द्रष्टव्य है। डॉ महेश सांख्यधर के ‘ढाई आखर प्रेम का’ में कहा गया है, ‘यह प्रेम डॉ प्रेमचंद्र जैन के मनसा-वाचा-कर्मणा में सर्वत्र भरा था। निश्छल मन, सपाट बयानी, अपनापन और कड़क आवाज़ सामने वाले को अपनी ओर खींचती ,तो खींचती चली जाती थी।’ (वही/ 295)। डॉ सरोज मार्कंडेय ‘ज्ञान, विवेक व संस्कार के प्रेरक पुंज: आचार्य डॉ प्रेमचंद्र जैन’ में बताती हैं कि एक शिक्षक के रूप में उन्होंने अपने विद्यार्थियों में सामाजिक ज्ञान, कर्म की गहरी नींव डाली। अशोक कुमार जैन ने ‘भाई साहब‘ में डॉ जैन के साथ बिताए आत्मीय क्षणों का उद्घाटन किया है। डॉ योगेंद्रनाथ शर्मा ‘अरुण’, का. रामपाल सिंह, वीरेंद्र जैन, महमूद, डॉ रमेश चंद्र जैन, इंद्रदेव भारती, जसवीर राणा, डॉ ज्योति जैन, प्रो हरीश कुमार शर्मा, सोज़ नजीबाबादी, डॉ आफ़ताब नोमानी, अनीता जैन, प्रियंका जैन, डॉ गजेंद्र सिंह ‘बटोही’, सैयद इकबाल हैदर, डॉ रजनी शर्मा, सैयद नसीम अब्बास, मुकेश सुमन, प्रदीप डेजी, डॉ हेमलता राठौर, इकबाल हिंदुस्तानी, शादाब ज़फ़र, पुनीत गोयल, एम. इकबाल शम्सी, राकेश जाखेटिया, डॉ. शहला अंजुम, डॉ. गोपेश शर्मा, जयश्री, निर्मल शर्मा के संस्मरणों से सज्जित इस पुस्तक में एक इतिहास को समेटने की कोशिश की गई है। ये सभी संस्मरणकार पास या दूर कहीं न कहीं डॉ प्रेमचंद्र जैन से प्रत्यक्ष परिचित थे। लेकिन इस खंड के दो आलेख इसलिए अलग से चर्चा करने योग्य हैं कि इनके लेखकों ने उन्हें व्यक्ति रूप में जानने से पहले उनकी मानस छवि का साक्षात्कार उनकी रचनाओं के माध्यम से किया। इनमें एक हैं डॉ गुर्रमकोंडा नीरजा जिन्होंने अपने ‘परदादा गुरु’ को ‘और जितने दीप हैं, मैं सभी में हूँ!’ में श्रद्धापूर्वक याद किया है और दूसरी हैं डॉ मंजु शर्मा जिन्होंने अपने आलेख में डॉ जैन के शिक्षक व्यक्तित्व की उदारता और विराटता को समेटा है।

अंततः इस पुस्तक चर्चा को डॉ प्रेमचंद्र जैन की इस प्रतिज्ञा के साथ समेटना उचित होगा कि- “हिंदी के सम्मान की रक्षा करने के लिए मैं वह सब करूँगा जो कि मैं कर सकता हूँ।” (वही/401)।

समीक्षक : डॉ सुषमा देवी
असिस्टेंट प्रोफेसर (हिंदी), भाषा विभाग,
भवन्स विवेकानंद कॉलेज, सैनिकपुरी,
सिकंदराबाद- 500094 (तेलंगाना)
मोबाइल: 9963590938.
ईमेल- dr.sushmadevi@gmail.com

पुस्तक : इतिहास हुआ एक अध्यापक
संपादक : दानिश सैफ़ी; सहयोगी संपादक : निर्मला शर्मा
प्रकाशन : अविचल प्रकाशन , ऊँचा पुल, हल्द्वानी- 263139
संस्करण : 2022
पृष्ठ : 413 (क्राउन आकार)
मूल्य : 850/-

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