डॉ अहिल्या मिश्र के अमृतोत्सव के अवसर पर उन्हें समर्पित विशाल अभिनंदन ग्रंथ “वट वृक्ष की छाँव” में सम्मिलित अभिनंदन आलेख

हिरनी-सी भटकती फिरूँ, नाभि में कस्तूरी!

भाषा, साहित्य, संस्कृति और समाज की सेवा में तन-मन-धन से समर्पित डॉ. अहिल्या मिश्र (जन्म 1948) के अमृतोत्सव के अवसर पर यह हार्दिक शुभकामना कि वे शतायु हों; दिव्य आयु प्राप्त करें।

यों तो अहिल्या जी के लेखन से मैं काफ़ी पहले से परिचित था, लेकिन 1995 में जब मेरा स्थानांतरण चेन्नई से हैदराबाद हुआ तो उनसे प्रत्यक्ष परिचय का अवसर मिला। डॉ. रोहिताश्व, स्वाधीन और पुरुषोत्तम प्रशांत इस परिचय के माध्यम बने। इन त्रिदेवों ने ही मुझे कादंबिनी क्लब (हैदराबाद) के मासिक कार्यक्रमों में शिरकत के लिए प्रेरित किया। यह जानकर अच्छा लगा कि इस संस्था की गोष्ठी हर हाल में हर महीने तीसरे इतवार को एक ही स्थान पर एक ही समय हुआ करती थी। गोष्ठियों की विषयवस्तु से अधिक उनके पारिवारिक स्वरूप ने मुझे विशेष आकर्षित किया।

शहर भर के हिंदी कवि-कवयित्री इन गोष्ठियों में जिस आत्मीय भाव से तब जुड़ते थे, उसी से आज भी जुड़ते हैं। सबका डॉ. अहिल्या मिश्र के साथ घरेलू रिश्ता है। मुझे भी साल, दो साल परखने के बाद उन्होंने भाई बना लिया। मैं भाग्यशाली हूँ कि अहिल्या जी जैसी बड़ी बहन हैदराबाद में मेरी अभिभावक हैं, संरक्षक हैं। जब वे स्नेह से ‘इन्हें’ भाभी कह कर पुकारती हैं और ममता से गले मिलती हैं, तो ‘ये’ भी गद्गद हो उठती हैं। ऐसा निश्छल और अहैतुक वात्सल्य आज की दुनिया में भला सबको कहाँ नसीब होता है? लेकिन कादंबिनी क्लब (हैदराबाद) परिवार के सब सदस्यों को अहिल्या जी से समभाव से यह वात्सल्य मिलता है। वे सहज वत्सलता का अवतार हैं।

मैंने देखा है, कई बार ऐसा हुआ कि किसी ने अहिल्या जी के इस वत्सल भाव पर आघात किया, तो वे छटपटा कर वेदना और आक्रोश से भर उठीं। उन्हें छली और प्रपंची लोग क़तई पसंद नहीं है। कुछ लोग ऐसी स्थितियों में चुपचाप किनारे हो जाते हैं, लेकिन अहिल्या जी ऐसे लोगों को तब तक खदेड़ती हैं जब तक वे अपने बिलों में न घुस जाएँ। एक ख़ास तरह की ज़मींदारना दबंगई भी उनके व्यक्तित्व का हिस्सा है – लेकिन सकारात्मक। दरअसल, वे सहज प्रेम पर प्रहार उसी तरह बरदाश्त नहीं कर पातीं, जिस तरह आदिकवि वाल्मीकि क्रौंच पक्षी पर बहेलिये के हमले को बर्दाश्त नहीं कर पाए थे।

इसीलिए वे जब कहीं कुछ अघटनीय घटित होते देखती हैं, तो उनके भीतर का यह आदिकवि विचलित हो उठता है। यही वजह है कि वे केवल काग़ज़ रंगते रहने वाले निष्क्रिय बुद्धिजीवियों की जमात में शामिल नहीं हैं। बल्कि आज 75 वर्ष की अवस्था में भी, ख़ासतौर से स्त्रियों और बच्चों के लिए, कर्मरत रहने वाली सक्रिय कार्यकर्ता हैं। प्रश्न भाषा का हो या साहित्य का, स्त्रियों का हो या संस्कृति का, वे उससे सीधे टकराती हैं। उनके व्यक्तित्व के ये दोनों आयाम – वात्सल्य और जुझारूपन – उनके समग्र साहित्य की आधार भित्ति का निर्माण करते हैं।

अहिल्या जी ने खूब लिखा है, लगातार लिखा है और सार्थक लिखा है। कविता हो या कहानी, नाटक हो या निबंध, संस्मरण हो या आत्मकथा – वे वाग्जाल नहीं फैलातीं। वे अत्यंत प्रभावशाली वक्ता भी हैं, लेकिन वहाँ भी उतनी ही बे-लाग-लपेट दिखती हैं, जितनी अपने लेखन में हैं। उन्होंने अपने लेखन में व्यापक सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय सरोकारों को हमेशा सीमित व्यक्तिगत सरोकारों पर तरजीह दी है। उन्हें अपनी कविताओं में भारतवर्ष के सभी क्षेत्रों में बसने वालों की एकात्मता के लिए प्रार्थना करते, गौरवशाली इतिहास को बार-बार दोहराते और जागरण, बलिदान, परिवर्तन व नवनिर्माण के गीत गाते देखा जा सकता है। अहिल्या जी की पक्षधरता में किसी भ्रांति की गुंजाइश नहीं है। वे हमेशा बच्चों, स्त्रियों, दलितों, युवकों और वंचितों के पक्ष में तथा वर्चस्ववादियों और शोषकों के ख़िलाफ़ चुनौती की मुद्रा में खड़ी दिखाई देती हैं:

ज़ुल्म के मुखौटों से गीत तो न बना सकोगे,
किंतु फिर भी मेरे गीत तुम न छीन सकोगे।

इसका अर्थ यह बिलकुल नहीं है कि डॉ. अहिल्या मिश्र के साहित्य सरोकार में कोमल भावनाओं के लिए जगह नहीं है। इसके विपरीत सच तो यह है कि कर्मशिला से बनी हुई इस अडिग मूरत के भीतर मसृण भावुकता का मधुर स्रोत हिलोरें मारता है। ख़ुद मैंने कभी उनकी कविताओं में यह लक्षित किया था कि:

वे प्रिय से प्रिय शब्दों के स्पर्श द्वारा प्राण में गंगाजली भरने की मनुहार करती हैं, मन में सावन के घन जैसी आशा और शरच्चंद्रिका जैसे स्वच्छंद विश्वास की कामना करती हैं, संगदिल सनम की स्मृति में दिलों पर ख़ार की मेहरबानी और मादक प्याला पिलाने वाले साक़ी के कदमों के निशान को अंकित करती हैं और साथ ही अपने भावनात्मक अकेलेपन को रूपायित करते हुए कहती हैं – किससे करूँ गिला, कि कोई हमनशीं न मिला!

अभिप्राय यह कि अहिल्या मिश्र का समग्र साहित्य उनके अफाट जीवनराग की निष्पत्ति है। यही वजह है कि बहुत बार हमें उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में कबीर और मीरा की अनुगूँजे एक साथ सुनाई पड़ती हैं:

देहरी से अँगना की दूरी की मजबूरी
हिरनी-सी भटकती फिरूँ
नाभि में कस्तूरी!

इसी क्रम में अगर डॉ. अहिल्या मिश्र के कथाकार रूप का भी अवलोकन किया जाए, तो लगेगा कि जो चीज़ें उनकी कविताओं में बीज या संकेत के रूप में उपस्थित हैं, कहानी सहित अपने सारे गद्य लेखन में वे उन्हें बाक़ायदा पल्लवित, पोषित और संप्रेषित करने में पूर्ण सफल रही हैं। इस लिहाज़ से उनकी कहानियाँ अधिक प्रभावशाली बन पड़ी हैं। एक कहानीकार के रूप में वे हिंदी कहानी के समसामयिक परिदृश्य से बड़ी हद तक असंतुष्ट हैं और चाहती हैं कि कहानियाँ सामाजिक विघटन, राष्ट्रीय विखंडन, वर्ण, वर्ग, जाति, धर्म व संप्रदाय के नाम पर चलने वाले युद्धों तथा स्त्रियों और वंचितों के मानवाधिकार हनन जैसे सवालों पर खुल कर बोले, ताकि साहित्य के मूलधर्म की क्षति न हो। वे मानती हैं कि साहित्य को लोकमंगल का पक्ष लेते हुए मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए समर्पित होना चाहिए। यही वजह है कि उनकी ज़्यादातर कहानियाँ यथार्थ पर आधारित होते हुए भी आदर्श की दिशा में इंगित करती हैं।

डॉ. अहिल्या मिश्र की जड़ें मिथिला में हैं और उनके साहित्यिक व्यक्तित्व का कल्पवृक्ष हैदराबाद की आबोहवा में लहलहाया है। इसलिए उनकी कहानियों में बहुत बार शहरी मूल्यों के प्रति असंतोष और मैथिल संस्कृति के प्रति प्रेम झलकता-छलकता दिखाई देता है। बचपन की स्मृतियाँ प्रौढ़ावस्था के अनुभवों से टकराती हैं, तो लेखिका अनेक सामाजिक मान्यताओं और आचारों का निर्मम मूल्यांकन करने में व्यस्त हो जाती हैं। उन्होंने अपने आसपास के परिवेश को उसके सारे अमृत और विष के साथ इस तरह गटक रखा है कि कहानियों के देशकाल, विषयवस्तु और पात्रों में उसकी प्रामाणिकता सहज साकार हो उठती है। कहने को बहुत कुछ है। लेकिन फ़िलहाल इतना ही।

पुनश्च
देखें शत शरदों की शोभा,
जियें सुखी सौ वर्ष!’

– प्रोफेसर ऋषभदेव शर्मा

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