‘महाकुंभ’ पर्व का विज्ञान-दर्शन

‘कुम्भ’ एक बहुआयामी शब्द है। इस आलेख में कुंभ पर निम्न लिखित कुछ आयामों पर थोड़ा थोड़ा प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है।

1 कुम्भ का निहितार्थ
2 लौकिक दृष्टि
3 पौराणिक दृष्टि
4 आध्यात्मिक दृष्टि
5 खगोलीय दृष्टि
6 गणितीय दृष्टि
7 सामाजिक सौहार्द्र दृष्टि

कुम्भ का निहितार्थ:

शब्द, नाम, रूप, गुण और परिकल्पना की दृष्टि से कुम्भ शब्द अत्यन्त प्राचीन है और वैदिक साहित्य में इसका उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद दशम मंडल सूक्त 89 मंत्र 7 में पहलीबार इसका उल्लेख दृष्टिगत होता है, तत्पश्चात अथर्ववेद के 19 मंडल, 53 सूक्त, तृतीय मंत्र में “पूर्ण कुम्भोधिकाल..” के रूप में तथा चतुर्थ मंडल सूक्त 34 में भी इसका प्रयोग हुआ है और दोनों ही प्रसंगों में इसका सम्बन्ध अलग – अलग कथानकों में है, किंतु इसका आशय जलपात्र के सन्दर्भ में ही हुआ है।

लौकिक दृष्टि:

यह सुंदर कुंभ, कलश, घट जो है प्रतीक उत्कृष्ट कला का, लक्ष्मी का, धन का, वैभव का, सम्पूर्णता का, औदार्य का, सहनशीलता का, श्रृष्टि का ब्रह्माण्ड का. और है एक परिचय – इस कला के सृजनहार का भी। इस कुम्भ के निर्माण में अंतर्भूत है – एक अजब कहानी. यह कुम्भ खेत का मिट्टी था, जिसके उपर फावड़ा चला था। जिसे विस्थापित होना पड़ा था निज गृह से… खेत से….., क्षेत्र से।

जिसे जल डालकर सड़ाया गाया, जिसे पैरों तले रौंदा गाया, जिसे थापी और लबादे सेपीटा गया, जिसे चाक पर नचाया गया, जिसे तपती धूप में सुखाया गया, जिसे जलती आग में पकाया गया. धुंआ भी न निकलने पाए बाहर, ऐसा कुछ व्यवस्था बनाया गया. लेकिन वाह रे कुम्भ! वाह!! गजब का जीवट है तेरा, तुम्हारी सहनशीलता को बार-बार नमन, शत शत प्रणाम मेरा.

जब बाहर आया कुंदन सा, चमकता – दमकता आया. फिर तो यह दुनिया की रीति है। चमकते को पुनः चमकाना और गले लगाना…। टूटे फूटे को घर से दूर भगाना. अब की गयी तेरी रंगाई – पुताई, गढ़े गए कल्पनाओं के कसीदे. और तू बन गया एक उदाहरण, एक दिव्य कथानक, कहानी अनुपम सौन्दर्य का। एक प्रतीक वैभव का, ठाट – बाट का।

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मिट्टी का यह कुंभ, पौराणिक अमृत कुंभ तू ही तो है। आज तू पड़ गया है भारी सोने-चांदी, हीरे-मोती के पात्रों पर भी. वैश्विक भौतिकता और चकचौंध पर भी। देखने वाले देखते हैं – तेरा वर्तमान, तेरा वैभव.. तेरी चमक – दमक…। सब चाहतें हैं तुझे पाना, अपने घरों में सजाना, कुछ धन से खरीदना चाहते हैं, कुछ मन से खरीदना चाहते हैं। कुछ छिन लेना चाहते हैं तुझे गढ़ने वाले उस कुम्भकार से। कुछ चुरा लेना चाहते हैं तुझे बस एक मौक़ा मिले चाहे जहाँ से भी, घर से, दुकान से…, मंदिर से, तीर्थ स्थल से… कुम्भ स्थल प्रयागराज से, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक से…।

सभी चाहते हैं तुझे पाना, हथियाना. परन्तु, कितने हैं ऐसे जो चाहते हैं – तुझ जैसा बन जाना? तुझ जैसा रौंदा जाना…, समय के थपेड़े खाना…, धूप में सुखाया जाना, आग में जलाया जाना. सब की अभिलाषा है मुफ्त में छा जाना…।। तेरे ही नाम से आज पर्व है, महापर्व जहां एकत्रित होते हैं श्रद्धालु विश्व के कोने कोने से। … आस्तिक भी, और … नास्तिक भी।

पौराणिक दृष्टि:

पौराणिक ग्रंथों में इसकी कुंभ की प्रसिद्धि “अमृत कलश, अमृत घट, अमृत कुंभ में प्राप्त होता है जब देवों और दैत्यों ने मिलकर समुद्र मंथन किया और इस मंथन से 14 दिव्य रत्नों की प्राप्ति हुई। 14वें दिव्य वस्तु के रूप में धन्वंतरि अमृतकुंभ लिए प्रकट हुए और इसकी प्राप्ति के लिए पुनः देवों और दैत्यों में विवाद संघर्ष में बदल गया, संघर्ष 12 दिनों तक चला। देव अमृतकुंभ ले लेकर भागते रहे दैत्य पीछा करते रहे। इस अवधि मे इस अमृतकुंभ को चार स्थानों पर रखा गया और रखने उठाने की प्रक्रिया में कुछ अमृत की बूंदें वहां छलक गई। ये चार पवित्र स्थान प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक थे जो तदोपरांत “कुम्भ नगर” के नाम से प्रसिद्ध हुए। देवों का एक दिन मानव के एक वर्ष के बराबर होता है। अतः पूर्णकुंभ पर्व प्रत्येक 12 वर्ष के बाद मनाया जाता है। अध्यकुंभ 6 वर्षों के अंतराल पर और “महामकुंभ” (12×12) 144 वर्षों के उपरान्त लगता है। इस वर्ष प्रयागराज कुंभ 144 वर्षों के उपरान्त लगने वाला महाकुम्भ है।

आध्यात्मिक दृष्टि:

आध्यात्मिक दृष्टि से भी इस कुम्भ पर्व का अत्यंत महत्व है। यह कुंभ मानव शरीर का प्रतीक है, पंचमहाभूत निर्मित क्या में ही अमृत, अविनाशी परमतत्व स्थित है। इस कुम्भ में ही उसका दर्शन, दिग्दर्शन, आत्मानुभूत करना है। इसके प्राप्ति के तीन स्थान बताए गए है। इंद्रियों द्वारा विश्व – ब्रह्मांड में, वृत्तियों, संस्कारों द्वारा मन में और हृदयाकाश में। कुंभमेले में लाघुविश्व की उपस्थिति में उसे अनुभूत किया जा सकता है। साधन द्वारा मन में और मनन/निद्धयासन द्वारा अंतःकरण या हृदयाकाश में उस “अमृत तत्व”, परमसत्य की अनुभूति की जा सकती है। यह काया रूपी कुम्भ कैसा है, उसमें अमृत तत्व कैसे भरा पड़ा है? इसकी चर्चा वेद में इस प्रकार है: हिरण्यमयेन पात्रेण सत्य स्यापीहितं मुखम… (ईश उप 15)। इसका दर्शन सूर्य ही करा सकता है। इस मंत्र में सूर्यदेव से ही सत्यमुख पर पड़े ढक्कन को उठाने की प्रार्थना की गई है।

खगोलीय दृष्टि:

आध्यात्मिक दृष्टि से सूर्य आध्यात्मिक देवशक्ति है और भौतिक दृष्टि से एक खगोलीय पिंड। सूर्य की स्थिति (कृपा) ही इस ढक्कन को उठाने और सत्यबोध में सहायक है। कुम्भ का सुयोग खगोलीय गणित और सूर्य, चन्द्र, बृहस्पति… की गति पर आधारित है। जब बृहस्पति का प्रवेश कुम्भराशि और और सूर्य का प्रवेश मकरराशि में पड़ता है तम कुंभस्थलों पर इस संक्रमणकाल में सुयोग, कृपा बरसती है जो जनसामान्य की सुषुप्त चेतना को ऊर्ध्वमुखी और जागृत कर देती है। खगोलीय गणना एक जटिल खगोलीय पंचांग गणना है। नासा आज हैरान है कि सहस्त्रों वर्ष पूर विकसित पंचांग पद्धति और नासा की अत्याधुनिक गणना में कितना आश्चर्यजनक साम्य है।

गणितीय दृष्टि:

कुम्भ समयकाल की गणना भारतीय पंचांग पर आधारित है और इस अमृतकाल में की गई छोटी से छोटी साधना भी असामान्य फल देती हैं। अमृत तत्व का पान कराती है। यह सामान्य साधक से विशिष्ट संत, वैज्ञानिक सभी के लिए समान रूप से उपयोगी है। बिना किसी निमंत्रण पत्र के संगम तट पर एकत्रित अपार जनसमूह और आस्था का इस पंचांग और ज्ञानमृत पर पूर्ण श्रद्धा और अटूट विश्वास है।

सामाजिक सौहार्द्र दृष्टि:

कुम्भ मेला एक सामाजिक, राष्ट्रीय सौहार्द्र ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय सौहार्द्र और विश्वबंधुत भावना, मिलन स्थल का जीता जगता प्रतीक नहीं, उदाहरण है। यह मानव का समागम है, मानवता है समागम है, मन, बुद्धि, विज्ञान और अध्यात्म का समागम है। आस्तिक ही नहीं नास्तिक भी जिज्ञासु भाव से आते है और संतुष्ट होकर जाते हैं।

तात्पर्य यह कि यह “कुम्भ” आध्यात्मिक दृष्टि से इस सृष्टि, ब्रह्माण्ड से भी व्यापक “महाकुंभ” है और व्यक्ति की दृष्टि से एकल एक घट या एकल कुम्भ। कुम्भ स्थल पर उपस्थित होना, दिव्यता से आप्लावित होने का सुअवसर है। किंतु इस दिव्यता से अबाधित आप्लावन की भी अपनी कुछ शर्तें है। अन्यथा यहां आ कर भी जलस्नान मात्र एक स्नान ही होगा यदि आपकी पात्रता उस दिव्य ऊर्जा को ग्रहण करने की नहीं बन पाई है। अतः महत्वपूर्ण है कि आगंतुक साधक दिव्यया से जुड़ता है या भव्य से यह उसकी पात्रता पर निर्भर है। यदि इस हिरण्यमय कुम्भ “अमृत भरे स्वर्ण कलश” के ढक्कन को हटाकर अमृतपान न किया जा सका तो हम स्वर्णिम चकाचौंध, लोकेशनों में ही घूमते रह जाएंगे और जिस प्रकार रीते हाथ गए थे, शरीर प्रक्षालन करके वापस खाली हाथ ही लौट आएंगे।

महाकुंभ पर्व पूरे विश्व को अमृत क्या है? अमृत तत्व क्या है? प्राप्ति कैसे हो सकती है? न केवल इसकी सम्यक जानकारी देता है अपितु इसका साक्षात् बोध, सम्यक अनुभूति भी कर देता है। इस महापर्व, इस दिव्य भारतभूमि, इन दिव्य कुम्भ स्थलों को नमन। इस सिद्धांत, प्रयोग और अनुप्रयोग पद्धति को नमन। मानव और मानवता के दिव्य स्रोत को सादर नमन।

डॉ जयप्रकाश तिवारी (94533 91020)
बलिया/लखनऊ, उत्तर प्रदेश

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