हैदराबाद में आर्य समाज आंदोलन की देन – पंडित गंगाराम

[नोट- स्वतंत्रता सेनानी पण्डित गंगाराम स्मारक मंच के चेयरमैन भक्तराम जी ने आगामी 17 सितंबर को विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े समाजसेवियों का सम्मान और स्थानीय आर्य कन्या विद्यालय, देवीदीन बाग, हनुमान टेकडी, प्रगति कॉलेज के समीप, कोठी, हैदराबाद में पढ़ रहे छात्रों के बीच प्रतिस्पर्धा आयोजित कर विजेता छात्रों को पुरस्कार प्रदान करने का फैसला लिया है। पुरस्कार प्रदान कार्यक्रम तेलंगाना सारस्वत परिषद (रामकोट) में दोपहर 2 से शाम 4.30 बजे तक आयोजित किया जाएगा। इसी क्रम में चेयरमैन ने लोगों की जानकारी के लिए स्वातंत्र्य सैनिक विशेषांक आर्य प्रतिनिधि सभा मध्य दक्षिण का मासिक पत्र ‘आर्य जीवन’ (संपादक नरेंद्र, सहसंपादक प्रा विजयवीर विद्यालयलंकार एम ए, प्रकाशक आर्य प्रतिनिधि सभा मध्य दक्षिण महर्षि दयानंद मार्ग, सुल्तान बाजार, हैदराबाद) मार्च-अप्रैल 1973 ई के अंक में पंडित गंगाराम जी के बारे में प्रकाशित लेख भेजा है। इसी क्रम में अब 6 जून 1999 डेली मिलाप में प्रकाशित एफएम सलीम जी का लेख और भेंट-वार्ता भेजी है। विश्वास है कि पाठकों को अच्छी जानकारी मिलेगी। ज्ञातव्य है कि पंडित गंगाराम जी का जन्म 8 फरवरी 1916 और निधन 25 फरवरी 2007 में हो गया था। उत्तम जानकारी के लिए हम भक्तराम जी के आभारी है]

न्योछावर

हिंदू समाज को संगठित करने एवं वैदिक धर्म प्रचार के साथ-साथ हैदराबाद रियासत को निजाम शासन से विमुक्ति दिलाने में आर्यसमाज का जो अविस्मरणीय योगदान रहा है, उसको इतिहास के पन्नों पर स्वर्णिम अक्षरों से लिखा जाएगा। हैदराबाद में आर्यसमाज की स्थापना (1931) के बाद अपनी युवावस्था से ही समाज की गतिविधियों में भाग लेकर उस को सशक्त बनाने वालों में पण्डित गंगाराम वानप्रस्थी का नाम उल्लेखनीय है। देखा जाए तो स्थापना से लेकर अब तक आर्यसमाज से सैकड़ों लोग जुड़े, काफी अरसे तक काम किया और फिर वक्त के साथ अपने – अपने जीविकोपार्जन में लग गये, लेकिन पंडित गंगाराम ने अपने आपको पूरी तरह समाज के लिए समर्पित कर दिया। वे आज 83 वर्ष की आयु में आर्यसमाज के सिद्धांतों के प्रचार के कार्य में लगे हुए हैं।

पंडित गंगाराम का पूरा नाम गंगाराम शेंडगे है। जबसे उन्होंने वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश किया तब से वे पंडित गंगाराम वामप्रस्थी के नाम में जाने जाते हैं। ”पंडित” शब्द भी आर्य समाज से जुड़ने और पढ़े – लिखे होने के कारण उनके नाम के आगे जुड गया। उनका जन्म 8 फरवरी, 1916 को बसंत पंचमी के दिन हैदराबाद के हुसैनी अलम क्षेत्र में स्थित चंद्रिकापुर मुहल्ले में हुआ। माता का नाम बालूबाई और पिता का नाम अनन्तराम था। बचपन से ही, परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होने के कारण कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। अभी 3 वर्ष के ही थे कि 1918-19 में आये ‘प्लेग’ ने उनसे उनके पिता, बड़ी बहन एवं दादी को छीन लिया। उनकी माता ने अपने दोनों बच्चों (गंगाराम एवं उनकी छोटी बहन) के पालन – पोषण के लिए एक छोटी दुकान खोल ली। वह चाहती थी कि उनका बेटा खूब पढ़े। खूब पढने से उनका अभिप्राय यह था कि उसे अंग्रेजी अखबार पढ़ना आए। चुनांचे उन्होंने कड़ी मेहनत की और अपने पुत्र को स्कूल में प्रवेश दिलाया।

गंगाराम ने अंग्रेजी माध्यम से 10 वीं कक्षा की परीक्षा धर्मवंत हाईस्कूल से पास की। 1944 ई. में उन्होंने बी.एस.सी की डिग्री उस्मानिया विश्वविद्यालय से प्राप्त की। शिक्षा प्राप्ति के दौरान उन्हे निजाम सरकार की छात्रवृत्ति मिलती थी और उनकी फीस भी माफ थी। विश्वविद्यालय वे हुसैनी अलम से पैदल आते – जाते थे जो कि लगभग 10 किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है। बीएससी करने के दौरान ही वे आर्य समाज के संपर्क में आए। विनायकराव विद्यालंकार के मार्गदर्शन में स्थापित केशव मेमोरियल की स्थापना में खंडेराव कुलकर्णी तथा कृष्णदत्त एवं गंगाराम भी शामिल थे। इसी में अध्यापन का कार्य भी करने लगे थे। दूसरी ओर उन्होंने उस्मानिया विश्वविद्यालय में एलएलबी में भी प्रवेश लिया, लेकिन उन्हें कालेज में शिक्षारत रहने के दौरान किसी संस्था से संबंध न रखने का आदेश दे दिया गया और उन्हें कॉलेज से भी निकाल दिया गया।

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इधर उन्होंने केशव मेमोरियल भी छोड़ दिया और पूरी तरह आर्यसमाज से जुड़ गये। 1944 से 49, तक वे आर्य प्रतिनिधि सभा के सक्रिय कार्यकर्ता रहे। उसके पश्चात मंत्री बनाये गये। ‘रजाकार तहरीक’ के समय उन्होंने आर्य प्रतिनिधि सभा के कार्यकर्ता के रूप में रजाकारों का प्रतिकार करने के लिए लोगों को हिम्मत बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ‘रजाकार’ मुसलमानों की संस्था थी, जो निजाम हुकूमत की तरफदारी करती थी और हिंदुओं की संस्था आर्यसमाज का विरोध करती थी।

1945 – 46 में जब बंगाल में नोआखाली में मुस्लिम लीग के कार्यकर्ताओं द्वारा हिंदुओं पर जुल्म ढाया जा रहा था तो वहां के लोगों को राहत और सहयोग पहुंचाने के लिए पंडित गंगाराम जी ने हैदराबाद में घूम-फिर कर उस समय 25,000 रुपये जमाकर नोआखाली भेजे। निजाम सरकार ने उनके इस कार्य से नाखुश होकर उनकी गिरफ्तारी के आदेश जारी कर दिये। यहां से वे निजाम सरकार की पुलिस को चकमा देकर कलकत्ता चले गये। यहां से फरार होने में विनायकराव विद्यालंकार ने उनकी मदद की।

कलकत्ता से जब वे नोआखाली पहुंचे तो वहां लाला खुशालचंद (आनंद स्वामी) (‘मिलाप’ के संस्थापक) आर्य समाज का कार्य करते थे। पंजाब में गड़बड़ हुई तो महात्मा आनंद स्वामी पंजाब चले गए और नोआखाली का काम पं. गंगाराम को सौंप गये। उन दिनों गांधीजी भी वहां सांप्रदायिक सद्भाव की स्थापना के लिए आए थे। पंडित गंगाराम जी नियमित रूप से उनकी सायंकालीन प्रार्थना सभा में शामिल होते थे। उन्होंने स्थानीय लोगों की सहायता के लिए दस राहत केंद्र खोले। राहत कार्य में उनके साथ डॉ राजा प्रसाद मुखर्जी, एनसी चटर्जी और ठक्कर बप्पा भी शामिल थे। वहां से लौट कर उन्होंने अपनी एलएलबी की अधूरी शिक्षा प्राप्त पूरी की।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी उन्होंने आर्य समाज और समाज – सेवा का दामन नहीं छोड़ा। 1950 में उन्होंने ठेलाबंडी में घंटी लगा कर, घर-घर जाकर लोगों से बेकार कपड़े जमा किये। इस अभियान में जमा हुए लगभग 5000 कपड़ों को ठीक ठाक कर राज्य के सलाहकार एमके वेलोडी के हाथों जरूरतमंदों में बांटने के लिए दिया। दूसरे वर्ष भी इसी तरह 23000 कपड़े जमा किये और तत्कालीन मुख्यमंत्री बी रामकिशन राव के हाथों गोशामहल हाउस में बंटवाये।

वैदिक प्रचार के क्षेत्र में उनका महत्वपूर्ण कार्य यह रहा कि उन्होंने धर्म प्रचार हेतु लोगों से 5-5 पैसे जमा करना आरंभ किया। 13 वर्षों में 50 हजार रुपये जमा किये। एक ट्रस्ट स्थापित कर इन रुपयों के ब्याज से ट्रस्ट के मार्गदर्शन में 15 धार्मिक पाठशालाओं की स्थापना की गयी।

वैदिक प्रचार के लिए लगभग 75 हजार बुकलेट मुफ्त बांटे गये। सन 1980 से वे ‘वर्णाश्रम पत्रक’ नामक एक पत्रिका प्रकाशित कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त वे प्रति रविवार गंडीपेठ में यज्ञ का आयोजन करते हैं और वैदिक सिद्धांतों पर प्रवचन देते हैं। आर्य समाज के सिद्धांतों के अनुरूप उन्होंने जाति – तोड़ विवाह किया। अभी उनके साथ उनकी पत्नी और बेटों के परिवार रहते हैं।

समाज के कार्य के साथ-साथ उन्होंने अपनी जीविका चलाने के लिए सिटी सिविल कोर्ट में वकालत की। 1978 ई तक वकालत करते रहे। संप्रति वे वर्णाश्रम पत्रिका का प्रकाशन एवं संपादन कर रहे हैं।

उनसे हुई भेंट – वार्ता के कुछ अंश यहां प्रस्तुत है

आर्य समाज ने अपनी स्थापना के बाद से आजादी के कुछ वर्षों बाद तक महत्वपूर्ण कार्य किये, लेकिन अब आर्यसमाज की गतिविधियां बिल्कुल अवरूद्ध हो गयी है। क्या कारण है?

राजनीति का प्रभाव है। आर्य समाज में भी राजनीति दाखिल हो गयी है। लोगों में सेवाभाव नहीं रहा। लक्ष्य बदल गया है। लोग व्यक्तिगत स्वार्थों में पड़ गये हैं। लोगों का सामाजिक तौर पर जीवन कुछ अच्छा नहीं है। 1931 में जब हैदराबाद में आर्यसमाज की स्थापना हुई थी तो, उसका उद्देश्य हरिजनोंद्धार, धार्मिक एकता का प्रचार एवं जात – पात तोडकर एकता का प्रचार करना था। लोग जात-पात का भेदभाव तोड़कर आर्यसमाज में आये थे। यहां तक कि जातीय बंधन की परवाह नहीं की। मैं जब आर्यसमाज में आया तो मेरे संबंधियों ने हमारे घर से संबंध तोड़ लिए थे।

आर्य समाज में आने की प्रेरणा आपको कहां से मिली?

पंडित नरेंद्र, कैप्टन सूर्यप्रताप आदि मेरे प्रेरणा – स्त्रोत थे। इनके मार्ग – दर्शन में मैं आर्यसमाज के कार्य के लिए आगे आया।

आर्य समाज से भविष्य में आप क्या आशा रखते हैं?

आशा तो रखनी चाहिए। लेकिन जिन बातों पर अमल किया जाना चाहिए उन पर अमल नहीं हो रहा है। गुरुकुल बंद हो गये हैं। स्तिथि जल्दी सुधरने के आसार दिखाई नहीं दे रहे हैं।

वर्तमान में आर्यसमाजियों के लिए आप क्या संदेश देना चाहेंगे?

अगर वे अपना भला चाहते हैं, अपना कल्याण चाहते हैं तो उन्हें वैदिक – सामाजिक व्यवस्था के अनुसार चलना चाहिए। यही मार्ग सबसे अच्छा है। इसमें भोग भी है और त्याग भी है।

कोई यादगार घटना?

स्कूली जमाने में जब हम स्काउट के साथ निजामाबाद गए थे। गोदावरी नदी के निकट रुके थे। अचानक दो बाल- विधवाओं ने नदी में कूद कर आत्महत्या करने का प्रयास किया था। मैंने नदी में कूद कर एक बाल – विधवा को बचा लिया। इस कार्य से प्रसन्न होकर निजाम सरकार ने मुझे “गैलंट्री अवॉर्ड” दिया था।

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