राष्ट्रीय साहित्य समारोह-2024: ‘आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के साहित्य में मानवतावाद’ पर डॉ जयप्रकाश तिवारी का संबोधन

[27 अक्टूबर को युवा उत्कर्ष साहित्यिक मंच उप्र इकाई, लखनऊ एवं सनबीम स्कूल बलिया के संयुक्त तत्वाधान में एक दिवसीय राष्ट्रीय साहित्य समारोह-2024 (बलिया, उत्तर प्रदेश) में सकुशल संपन्न हुआ। चार सत्र में आयोजित राष्ट्रीय साहित्य समारोह में अनेक साहित्यकारों ने संबोधित किया। तेलंगाना समाचार को ‘आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के साहित्य में मानवतावाद’ विषय पर डॉ जयप्रकाश तिवारी जी का संबोधन प्राप्त हुआ है। हमारे पाठकों और शोधकर्ताओं की जानकारी के लिए उसे प्रकाशित कर रहे हैं। इस पर पाठकों की प्रतिक्रिया अपेक्षित है।]

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के साहित्य में मानवतावाद की परख के लिए यह नितांत आवश्यक हो जाता है पहले यह भलीभांति समझ लिया जाय कि मानवतावाद है क्या? विचारकों ने मानवहितों, मानवीय मूल्यों और मानव को ही केंद्र में रखकर मानव कल्याण के लिये रचे गए साहित्यिक तथ्यों, कथ्यों के उद्गम, उदघाटन को मानवतावादी साहित्यिक सिद्धांत माना है। यह मानवतावादी साहित्य तर्क और मानव की सर्वांग शुचिता के माध्यम से मानवीय कल्याण और उसके आध्यात्मिक उन्नयन, आत्मसाक्षात्कार की बात करता है। इस आधार पर सनातन संस्कृति, भारतीय दर्शन को मानवतावाद का जनक कहा जाना चाहिए।

सर्वश्रेष्ठ रचना मानव

मानव यदि सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ रचना है। तब इससे श्रेष्ठतर कुछ नहीं हो सकता कि साहित्य सृजन का केंद्रीय भूमि मानव और ‘मानव कल्याण’ ही हो। इस सृष्टि के सर्जक दो ही हैं (i) स्रष्टा जिसे प्रकृति या ईश्वरीय सत्ता कहा जाता है और (ii) साहित्यकार, कवि जो धरती पर मानवतावाद का स्रष्टा है। मानवाकृति धारण करना सरल है, यह प्रक्रिया मानव आकृति रूप में एक जैविक क्रिया है, किन्तु इस मानव आकृति में “मानवीय सद्गुणों का सृजन” अपेक्षाकृत अत्यधिक कठिन है। क्योंकि यह सिद्धांत मानव के अंदर छिपी दिव्यता की पहचान, उसके प्राकट्य और उसे वास्तविक अर्थों में मानवता, मनुष्यत्व पद तक पहुंचने को अपना लक्ष्य बताता है। मानवीय मूल्यों की कल्पना, सृजन और प्रतिष्ठापन कवि, साहित्य और साहित्यकार का ही पावन कर्त्तव्य है।

मानववाद व मानवतावाद

प्राथमिक स्तर पर यह दायित्व आध्यात्मिक साहित्य का है जिसने मानववाद, मानवतावाद के मानकों, नैतिक मूल्यों और आदर्शों का निर्धारण किया। बाद के कालखंडों में इस मानवतावाद को समाज, राष्ट्र में जीवंत बनाए रखने का दायित्व कवि, साहित्यकार के ही कंधे पर आ जाता है। इसलिए आध्यात्मिक ग्रंथों ने कवि, मनीषी साहित्यकार को स्वयंभू सर्जक कहा- कवि:मनीषी परिभू:स्वयंभू कहा (ईशोपनिषद 8)। इस मानवतावाद की स्थापना हेतु प्रथम शर्त है चारित्रिक शुचिता, अर्थात चरित्रवान होना महत्वपूर्ण है, धनवान होना नहीं। जो मनुष्य अपने बुरे आचरणों से घृणा कर उनका परित्याग नहीं कर देता, वह कभी भी आदर्शवादी, मानवतावादी नहीं हो सकता, वह प्रज्ञावान हो ही नहीं सकता- नाविरतो दुश्चरितान अशांतो ना समाहित:। ना शान्तमानसो वापि प्रज्ञानेन अनुपात (कठोपनिषद 1.2.24)।।

पुरुषार्थ

नियामक ग्रंथों ने आदर्श रूप में चार पुरुषार्थों का निर्धारण किया- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। होना तो यह चाहिए कि काम, अर्थ के लिए हो और धर्म का नियोजन मोक्ष के लिए किया जाय। इसी में मानवतावाद के सूत्र और आदर्श दोनों ही सन्निहित हैं। किंतु कुछ स्वार्थी विचारकों, छद्म कवियों, साहित्यकारों और सामाजिक नेतृत्व ने न जाने कैसे और कब इसका स्वरूप और निहितार्थ दोनों को विकृत कर दिया। एक नई परिभाषा इन्हीं छद्म चिंतकों ने दिया जिसने निहितार्थ ही बदल दिया; ‘पुरुषार्थ का अर्थ है पुरुष द्वारा अर्थ की प्राप्ति’। इस परिकल्पना में इतनी गुप्त चकाचौंध है, आकर्षण है, इतनी विनाशक, नकारात्मक अंतरशक्ति है, इतनी विनाशक ऊर्जा भरी पड़ी है कि मानववाद का स्थान दानववाद ने ले लिया।

संपूर्ण मानव समाज का विकास

इस चमकीले अर्थ-प्रधान हिरण्यमय पात्र में विष ही विष भरा हुआ है। यद्यपि अध्यात्म में बारंबार सचेत किया कि धन से तृप्ति नहीं हो सकती- न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यों… (कठोपनिषद 1.1.27)। हमारा आदर्श था, शास्त्र निर्देश था, धन का त्यागमय उपभोग करने का तेनत्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्वित धनं। किंतु उसे अनसुना किया जाने लगा। धन के त्यागमय उपभोग का निहितार्थ है शेष बचे धन का आर्थिक विपन्न मानव के कल्याण में उचित नियोजन। मानवतावाद का अर्थ एकल व्यक्ति का विकास नहीं, एक परिवार का विकास नहीं, संपूर्ण मानव समाज का विकास और उन्नयन है। मानव समाज के विकास की परिभाषा इतिहास, भूगोल की सीमाओं को नकार कर विश्वव्यापी होनी चाहिए। मानवतावाद का लक्ष्य होना चाहिए- सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:।

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मानव की विजय यात्रा

अब इस विंदु पर मानवतावाद के क्षरण, मानवीय मूल्यों में गिरावट को रोकने और मानवीय मूल्यों की पुनर्प्रतिष्ठा का दायित्व कवि, साहित्यकार के कंधे पर आ जाता है क्योंकि वे ही समाज के प्रकाश स्रोत, दीप स्तंभ हैं। राजा और शासक के कान उमेठने और सचेष्ट करने का अधिकार उन्हीं के पास सुरक्षित है। इस दृष्टि से, इस परिप्रेक्ष्य में जब हम आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के साहित्य का अनुशीलन, परिशीलन करते है तो यह मानवतावाद उनके निबंधों में, उनके समालोचना ग्रंथों में स्पष्ट दिखता है। निःसंदेह द्विवेदी जी का साहित्य मानवतावादी चिंता और चिंतन से ओतप्रोत है। उनकी कृति “अनामदास का पोथा” भारतीय संस्कृति और उपनिषद की बात करता हुआ आगे की यात्रा करता है। मनुष्य से बढ़कर कुछ भी नहीं है, क्योंकि यह प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ रचना है, यह सारा जड़ चेतनमय सृष्टि मानव की विजय यात्रा का साथी और सहचर हो सकता है।

कबीरदास का चयन

समालोचना के क्षेत्र में उन्होंने भारतीय संस्कृति, साहित्य, चिंतन में सर्वाधिक मुखर और अक्खड़ प्रवृति के कवि, साहित्य सुधारक के रूप में कबीरदास का चयन किया। कबीर पर उनके मानवतावादी चिंतन ने कबीर को “कईगुना वीर” कबीर बना दिया। कबीर के साहित्य और कबीर को महानायकत्व प्रदान करना ही आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के मानवतावादी होने का सशक्त, समुज्ज्वल प्रमाण है। यद्यपि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से पूर्व आचार्य परशुराम चतुर्वेदी जी ने “उत्तरी भारत की संत परम्परा” शीर्षक दीर्घकाय ग्रंथ में कबीर का सम्यक उल्लेख कर दिया था किंतु यह उल्लेख “संत कबीर” का था, अक्खड़ कबीर का नहीं। जिसे एक प्रखर रूप स्वरूप और सत्यान्वेषी प्रखर वक्ता, समाज सुधारक के रूप में प्रस्तुति मानवतावाद की मांग थी। इस उद्देश्य की पूर्ति आचार हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ही कबीर पर साहित्य लिख कर किया। दूसरे शब्दों में इसे यूं भी कहा जा सकता है कि साहित्य की तलहटी में पड़े संत कबीर को ढूंढने का कार्य यदि आचार्य चतुर्वेदी जी ने किया तो उन्हें गढ़कर समसामयिक ऊर्जस्वी, तार्किक प्रस्तुतीकरण से आचार्य द्विवेदी जी ने कबीर को शिखर पर पहुंचा दिया।

संकल्प और वचनबद्धता

दूसरे शब्दों में इसे यूं भी कहा जा सकता है कि साहित्य की तलहटी में पड़े कबीर को शिखर पर प्रस्थापित करने का श्रेय बलिया की उर्वर जोशीले मिट्टी में जन्मे मनीषीद्वय आचार्य परशुराम चतुर्वेदी जी और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी को ही जाता है। बलिया की मिट्टी में कर्तव्य, संकल्प की दृढ़ता का यह अजस्र भाव राजा बलि के काल से ही दिखता है, जब एक बार संकल्पबद्ध हो जाने पर गुरु शुक्राचार्य के आदेश की अवहेलना करते हुए अपना संपूर्ण राज्य, धन, वैभव, ऐश्वर्य खोने की आशंका होने पर भी अपना संकल्प पूरा करते हैं। उनके लिए यहां महत्व धन और संपदा का नहीं, महत्व संकल्प और वचनबद्धता का है। धन के केंद्रीकरण का नहीं, उसके उपयोग और विकेंद्रीकरण का है। दानवता में भी मानवता अन्तर्भूत है, यह बात राजाबलि और बलियाग (बलिया) ने हजारों वर्ष पूर्व ही दिखा दिया था।

भौतिकता और दिव्यता

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के साहित्य में मनुष्य के भीतर भौतिकता और दिव्यता दोनों ही गुणों का समावेश मिलता है। यदि भौतिकता की ओर मनुष्य का झुकाव हुआ तो अन्य चेतन और संवेदनशील प्राणियों से अपनी विशिष्टता सिद्ध करने में असमर्थ हो जाएगा, अतः साहित्य का उद्देश्य मनुष्य के इस दिव्यता का प्रकाशन करना है। कबीर का कथन- सार सार को गहि रहे थोथा देहु उड़ाय यही तो कह रहा है। इन उक्तियों ने द्विवेदी जी को कबीर साहित्य की ओर उन्मुख किया। कबीर की इन उक्तियों ने आचार्य द्विवेदी को कभी निराश, हताश और कुंठित नहीं होने दिया। आचार्य द्विवेदी जी लिखते हैं- … जिन्हें हम संस्कृति कहते हैं वह संपूर्ण समष्टि मानव के कल्याण के लिए है, क्योंकि वह निर्मात्री शक्ति है। वह बहुत कुछ सड़ी – गली छोड़ती जाती है और जो नवीनता आती है उसे ग्रहण करती जाती है।

आशावादी होकर आत्मविश्वास

प्रकृति का यह गुण उन्हें आशावादी बना देता है। आशावादी होकर आत्मविश्वास से भरकर वे लिखते है- … मनुष्य थका है, पर रुका नहीं है। वह बढ़ता जा रहा है। इतिहास के अवशेष उसकी विजय यात्रा के पगचिह्न हैं। इस विकास को उन्होंने कबीर के चिंतन और प्रज्ञा में देखा। अस्तु कबीर के व्यक्ति और कृतित्व में मानवीय गुणों को ढूंढना, उसे तार्किक ढंग से प्रकाशित करना, पाखंड, दिखावा, भ्रम का निवारण कर एक मानववादी, मानवतावादी समाज का सृजन और कबीर को साहित्य जगत में महानायकत्व तक पहुंचा देना आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का सबसे बड़ा मानवतावादी कार्य है। कबीर साहित्य पर चिंतन करते करते वे स्वयं भी कबीरमय ही हो गए थे क्योंकि कबीर में उन्होंने सनातन संस्कृति और वेदांत दर्शन के तत्वों को देखा था।

दोनों कवियों का उद्देश्य मानवतावाद की स्थापना था किंतु …

काशी हिंदू विश्वविद्यालय में कार्यरत रहते हुए वहां दो हिंदी के दो पुरोधा समालोचक हिंदी साहित्य के दो अलग-अलग मानवतावादी कवियों को प्रोत्साहित कर रहे थे। एक ओर आचार्य रामचंद्र शुक्ल मानवतावादी चिंतक के रूप में जहां तुलसीदास को मानवतावाद के महानायक रूप में प्रोत्साहित कर रहे थे। वहीं दूसरी ओर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कबीरदास को प्रोत्साहित कर रहे थे। यद्यपि दोनों कवियों का उद्देश्य मानवतावाद की स्थापना था किंतु गोस्वामी तुलसीदास का साहित्य जहां विनम्रता, मृदुलता, और सौम्यता का साहित्य था, वहीं कबीर का साहित्य प्रखरता, तेजोमयता, तेजस्विता, अक्खड़ता और विद्रोही प्रवृत्ति का प्रहारक काव्य था। सामाजिक परिवर्तन के लिए जिस कठोरता और अक्खड़ता युक्त प्रहार की आवश्यकता थी, वह कबीर साहित्य में ही था।

समाज को ललकारता है मानववादी

इसलिए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने कबीर का चयन किया, उनके मानवतावादी सृजन को चिह्नित कर तार्किक विधि से प्रस्तुत किया। कबीर ही ऐसा चिंतक है जो विद्रोही होते हुए भी मानवतावाद की लिए वेदांत शास्त्र के निर्देशों का अनुपालन करता है। शास्त्र निर्देश है- उत्त्तिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरानिबोधत (कठोपनिषद 1.3.14)। कबीर इस मानवतावादी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अपना घर फूंक कर निकल पड़ने को उद्यत है, स्वयं उठ खड़ा हुआ है, समाज को ललकारता है मानववादी बनने और बनाने के लिए। कबीर का विश्वासएकांत साधना में नहीं समाज साधना था- कबिरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ। जो घर फूंक अपना चले हमारे साथ।। जो कवि शास्त्रों के निर्देश के अनुपालन में सर्वस्व ध्वंस से भी नहीं झिझकता हो तो ऐसे कवि को आचार्य द्विवेदी जी ने महानायकत्व बनाने का बीड़ा यदि कस लिया तो क्या इसमें अत्युक्ति है?

मानवतावाद का प्रबल पोषक

इस प्रकार हम दावे के साथ कह सकते हैं कि यदि हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की अन्य कृतियों को छोड़ भी दिया जाय तो कबीर पर उनके द्वारा किए गए कार्य ही उन्हें मानवतावाद का प्रबल पोषक प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के मानवतावाद में मानव को केवल बौद्धिक और शुष्क ज्ञानी जीवनशैली का पथिक नहीं माना जाता। वे मानव जीवन में सरलता, तरलता और माधुर्य भाव की भी उपयोगिता पर बल देते थे। जीवन में लालित्य होना मनुष्य जीवन का माधुर्य पक्ष है। इसलिए उनके साहित्य में लालित्य भाव भी एक सबल पक्ष बन गया है। इसके लिए वे कालिदास को अपना माध्यम बनाते हुए अपना मनोभाव प्रकट करते हैं।

यदि आचार्य द्विवेदी जी की अन्य रचनाओं में भी हम मानवतावादी तत्व के दर्शन करना चाहें तो वहां भी प्रचुरता में मानवतावादी उदगार भरे पड़े है। बस दृष्टि दौड़ने की बात है। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य है-

1) ‘‘जो साहित्यकार अपने जीवन में मानव सहानुभूति से परिपूर्ण नहीं है और जीवन के विभिन्न स्तरों को स्नेहार्द दृष्टि से नहीं देख सका है, वह बडे साहित्य की सृष्टि नहीं कर सकता”

  • विचार और वितर्क, हजारी प्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 129

2) ‘‘वास्तव में हमारे अध्ययन की सामग्री प्रत्यक्ष मनुष्य है। अपने इतिहास में इसी मनुष्य की धारावाही जय-यात्रा पढी है, साहित्य में इसी के आवेगों, उद्वेगों और उल्लासों का स्पंदन देखा है। राजनीति में इसकी लुकाछिपी के खेल का दर्शन किया है। अर्थशास्त्र में इसकी रीढ की शक्ति का अध्ययन किया है। यह मनुष्य का वास्तविक लक्ष्य है’’

  • अशोक के फूल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहबाद, पृष्ठ 182

3) ‘‘क्या साहित्य और क्या राजनीति, सबका एकमात्र लक्ष्य इसी मनुष्यता की सर्वांगीण उन्नति है।’’

  • अशोक के फूल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहबाद, पृष्ठ 41

4) ‘‘मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूं। जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से बचा न सके, जो उसकी आत्मा को तेजोदीप्त न बना सके, जो उसके हृदय को संवेदनशील न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है।’’

  • अशोक के फूल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहबाद, पृष्ठ 166

5) ‘‘मनुष्य क्षमा कर सकता है। देवता नहीं कर सकता। मनुष्य हृदय से लाचार है। देवता नियम का कठोर प्रवर्तक है। मनुष्य नियम से विचलित हो जाता है पर देवता की कुटिल भृकुटि नियम की निरंतर रखवाली करती है। मनुष्य इसलिए बड़ा होता है कि वह गलती कर सकता है। देवता इसलिए बडा होता है कि वह नियम का नियंता है।”

  • मेघदूत – एक पुरानी कहानी, हजारी प्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 4

6) ‘चारुचंद्रलेख’ में एक जगह पर वे कहते हैं, ‘‘एक साधारण किसान जिनमें दया-माया है, सच-झूठ का विवेक है और बाहर-भीतर एकाकार है। वह भी बडे से बडे सिद्ध से ऊंचा है। चरित्र-बल समस्त शक्तियों का अक्षय भंडार है।

  • चारुचंद्रलेख, हजारी प्रसादद्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 135

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