युवा उत्कर्ष साहित्यिक मंच : ‘आधुनिक गद्य साहित्य में भारतेन्दु हरिश्चंद्र का अवदान’ विषयक संगोष्ठी संपन्न

हैदराबाद: युवा उत्कर्ष साहित्यिक मंच (पंजीकृत न्यास) आंध्र प्रदेश एवं तेलंगाना राज्य शाखा की सप्तम वर्चुअल संगोष्ठी शनिवार को आयोजित की गई। डॉ रमा द्विवेदी (अध्यक्ष, आंध्र प्रदेश एवं तेलंगाना राज्य शाखा ) एवं महासचिव दीपा कृष्णदीप ने संयुक्त प्रेस विज्ञप्ति में बताया कि प्रख्यात व्यंग्यकार/साहित्यकार रामकिशोर उपाध्याय (राष्ट्रीय अध्यक्ष, युवा उत्कर्ष साहित्यिक मंच, दिल्ली) ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की। कार्यक्रम का शुभारंभ युवा साहित्यकार शिल्पी भटनागर (संगोष्ठी संयोजिका) के द्वारा सरस्वती वंदना के साथ हुआ।

अतिथियों का परिचय एवं स्वागत

तत्पश्चात अध्यक्षा डॉ रमा द्विवेदी ने अतिथियों का परिचय एवं स्वागत किया और संस्था का परिचय दिया।
‘आधुनिक गद्य साहित्य में भारतेन्दु हरिश्चंद्र का अवदान’ विषय का प्रवर्तन करते हुए डॉ.रमा द्विवेदी ने कहा कि भारतेंदु जी का भाषा पर असाधारण अधिकार था। उन्होंने गद्य लेखन में भाषा को विशेष महत्व दिया और विधा के अनुरूप अलग-अलग भाषा शैली को अपनाया। अपने नाटकों के पात्रों के अनुरूप बांग्ला, गुजराती, मराठी, पंजाबी तथा उर्दू भाषा का सफल प्रयोग किया। अनुवादित साहित्य की अशुद्ध हिंदी को परिष्कृत करके लेखकों में शुद्ध हिंदी लेखन के प्रति नवचेतना जगाई। उनका अतुल्य समग्र साहित्य लेखन ही उन्हें उच्चतम शिखर पर प्रतिष्ठित करता है।

‘अनमोल एहसास’

प्रथम सत्र ‘अनमोल एहसास’ और ‘मन के रंग मित्रों के संग’ दो शीर्षकों के अंतर्गत संपन्न हुआ। इस सत्र की मुख्य वक्ता, वरिष्ठ ग़ज़लकार/साहित्यकार सुश्री सुनीता लुल्ला (संयुक्त सचिव) ने ‘आधुनिक गद्य साहित्य में भारतेंदु हरिश्चंद्र का अवदान’ विषय पर अपना वक्तव्य दिया। उन्होंने अपने सारगर्भित व्याख्यान में कहा कि भारतेंदु हरिश्चंद्र की सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियां ऐसी थी की हिंदी पद्य से निकलकर गद्य की ओर बढ़ रही थी। क्योंकि तत्कालीन समय की मांग थी कि साहित्य की भाषा को परिष्कृत करके प्रस्तुत किया जाए, ताकि हर छोटे-बड़े, पढ़े लिखे और अनपढ़ तबके लोगों को भी समझ में आ जाए।

खड़ी बोली के पितामह

इसलिए उस समय के साहित्यकारों के साथ हरिश्चंद्र जी ने भी अपने लेखन का रुझान हिंदी में गद्य की ओर किया और इसके लिए खड़ी बोली का विकास किया। उन्हें लगता था कि भोजपुरी और ब्रजभाषा कविता की भाषा है, लेकिन अगर किसी को कुछ कह कर समझाना है तो उसके लिए भाषा में परिवर्तन करना पड़ेगा और विधा के अनुसार उन्होंने भाषा को चुना। इस प्रकार वे हिंदी खड़ी बोली के पितामह कहे जाते हैं। उन्होंने गद्य में नाटक, निबंध, आलेख, हास्य व्यंग्य एवं यात्रा वृतांत लिखे। भारतेन्दु जी इतना अधिक प्रभाव हुआ कि उस कालखंड का नाम ‘भारतेन्दु युग’ पड़ गया और उनके जीवन काल के पश्चात् भी पांच दशक तक यह युग अपना वर्चस्व बनाए रखा।

‘मन के रंग मित्रो के संग’

तत्पश्चात ‘मन के रंग मित्रो के संग’ में सुपरिचित साहित्यकार विनोद गिरि अनोखा ने अपने बचपन का अनुभव साझा करते हुए बताया, “माँ के प्रेम के आगे कुछ नहीं होता और अगर उन्हें उनका बच्चा सामने न दिखे तो कितना डर महसूस होता है उसे । माता पिता का यह अगाध प्रेम ही बच्चे को सुरक्षित रखता है”। अपने अध्ययक्षीय उद्बोधन में राष्ट्रीय अध्यक्ष रामकिशोर उपाध्याय ने कहा भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने हिन्दी गद्य साहित्य को तत्कालीन भाषाओं के प्रभाव से मुक्त कर हिन्दी गद्य का परिष्कृत रूप पहले पहल प्रस्तुत किया। उनके लेखन में विदग्धता और मौलिकता थी। उनके काल में हिन्दी गद्य अंग्रेजी या बंगला का अनुवाद नहीं रह गयी थी। परिष्कृत हिन्दी को भारतीय जनता ने बड़े प्रेम और सम्मान के साथ अपनाया।

नयी परिष्कृत हिन्दी का उदय

इसी कारण नयी परिष्कृत हिन्दी का उदय भारतेन्दु काल से माना जाता है। उन्होंने अपने लगभग पैंतीस वर्ष के अल्प जीवन काल में साहित्य, समाज और राष्ट्र हित में भाषा के माध्यम से अद्भुत कार्य किये। उन्होंने हिन्दी गद्य साहित्य में लगभग सभी विधाओं में अपनी लेखनी चलाई और लोहा मनवाया। उन्होने कविता, नाटक, निबंध, आलोचना, इतिहास, व्यंग्य-हास्य, खोज, यात्रा-वृतांत और संस्मरण आदि रूपों का विकास ही नहीं किया अपितु उनमें युगीन विशेषताओं और प्रवृत्तियों का समन्वय करने का अभूतपूर्व कार्य किया। उनके रचित निबंध, यात्रा-वृतांत और नाटकों में सूक्ष्म ऐतिहासिक दृष्टि और भारतीय संस्कृति की झलक मिलती है। उन्होंने सभी विधाओं के विस्तार के अतिरिक्त विधा के अनुरूप शैली का विकास किया जो अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है और सभी साहित्यकारों में सहजता से परिलक्षित नहीं होती।

हिन्दी गद्य साहित्य

हिन्दी गद्य साहित्य को उनका यह अवदान उन्हें कालजयी बनाता है। इसके साथ-साथ उन्होने नये लेखकों को प्रोत्साहित कर तैयार किया। यह इस बात से स्वयं सिद्ध है कि सन उन्नीस सौ तक अर्थात उनके असामयिक निधन के पंद्रह वर्षों बाद भी उनके लेखन और समकालीन लेखकों का आधुनिक हिन्दी साहित्य में दबदबा बना रहा। उनका हिन्दी गद्य साहित्य के विकास और विस्तार में योगदान अविस्मरणीय ही नहीं अपितु अनुकरणीय है। अतः भारतेन्दु हरिश्चंद्र को एक साहित्यकार ही नहीं, अपितु साहित्यकार का विराट रूप कहना अतिशयोक्ति न होगा। उन्होंने कार्यक्रम की सफलता हेतु अपनी शुभकामनाएं प्रेषित की।

दूसरे सत्र में काव्य गोष्ठी

तत्पश्चात दूसरे सत्र में काव्य गोष्ठी आयोजित की गई। संचालन दीपा कृष्णदीप द्वारा किया गया।
सभी उपस्थित रचनाकारों ने विविध विषयों पर काव्य पाठ करके माहौल में चार चाँद लगा दिए। डॉ सुरभि दत्त, भावना मयूर पुरोहित, शिल्पी भटनागर, सविता सोनी, सरला प्रकाश भूतोड़िया, विनोद गिरि अनोखा, दर्शन सिंह, डॉ सुषमा देवी, डॉ ममता श्रीवास्तव (दिल्ली), अवधेश सिन्हा, सुनीता लुल्ला, राम निवास पंथी (रायबरेली), रमाकांत श्रीवास, सी पी दायमा, वरिष्ठ गीतकार विनीता शर्मा (उपाध्यक्ष) व रमाकांत श्रीवास ने काव्य पाठ किया।

आभार ज्ञापन

श्री रामकिशोर उपाध्याय ने अध्यक्षीय सुस्वर में गीत, ग़ज़ल और मुक्तक का पाठ करके वातावरण को खुशनुमा बना दिया। सभी रचनाकारों की रचनाओं को सराहा और प्रोत्साहित किया। डॉ पीके जैन, डॉ जय प्रकाश तिवारी (लखनऊ), प्रो उषा सिन्हा (लखनऊ), वसुंधरा त्रिवेदी (इंदौर) श्रोता के रूप में उपस्थित रहे। शिल्पी भटनागर (संगोष्ठी संयोजिका) के आभार ज्ञापन के साथ कार्यक्रम समाप्त हुआ।

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