धार्मिक मान्यतानुसार अक्षय तृतीया पर्व वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीय तिथि को मनाया जाता है। मान्यता है कि इस दिन कोई भी शुभ कार्य करने के लिए अबूझ मुहूर्त होता है। अक्षय तृतीया पर किए गए कार्यों का कई गुना फल प्राप्त होता है। इसे ‘आखातीज’ के नाम से भी जाना जाता है। पुराणों में ऐसा बताया गया है कि यह बहुत ही पुण्य फलदायी तिथि है, जो कुछ भी पुण्य कार्य इस दिन किए जाते हैं उनका फल अक्षय होता है।
अक्षय तृतीया मनाने के कई कारण माने जाते हैं, उनमें से प्रमुख हैं-
- इस दिन भगवान विष्णु के छठे अवतार माने जाने वाले भगवान परशुराम का जन्म हुआ था। परशुराम ने महर्षि जमदाग्नि और माता रेनुका देवी के घर जन्म लिया था। यही कारण है कि अक्षय तृतीया के दिन भगवान विष्णु की उपासना की जाती है। इस दिन परशुराम जी की पूजा करने का भी विधान है।
- इस दिन मां गंगा स्वर्ग से धरती पर अवतरित हुई थीं। राजा भागीरथ ने गंगा को धरती पर अवतरित कराने के लिए हजारों वर्ष तक तप किया था। मान्यता है कि इस दिन पवित्र गंगा नदी में डूबकी लगाने से मनुष्य के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं।
- इस दिन मां अन्नपूर्णा का जन्मदिन भी मनाया जाता है। इस दिन गरीबों को खाना खिलाया जाता है और भंडारे किए जाते हैं। मां अन्नपूर्णा के पूजन से रसोई तथा भोजन में स्वाद बढ़ जाता है।
- अक्षय तृतीया के अवसर पर ही महर्षि वेदव्यास जी ने महाभारत लिखना शुरू किया था। महाभारत को पांचवें वेद के रूप में माना जाता है। इसी में श्रीमद्भागवत गीता भी समाहित है। अक्षय तृतीया के दिन श्रीमद्भागवत गीता के 18 वें अध्याय का पाठ अवश्य करना चाहिए ।
- बंगाल में इस दिन भगवान गणेशजी और माता लक्ष्मीजी का पूजन कर सभी व्यापारी अपने बही-खाते की किताब शुरू करते हैं। वहां इस दिन को ‘हलखता’ कहते हैं।
- भगवान शंकरजी ने इसी दिन भगवान कुबेर को माता लक्ष्मी की पूजा अर्चना करने की सलाह दी थी। जिसके बाद से अक्षय तृतीया के दिन माता लक्ष्मी की पूजा की जाती है और यह परंपरा आज तक चली आ रही है।
- अक्षय तृतीया के दिन ही पांडव पुत्र युधिष्ठर को अक्षय पात्र की प्राप्ति हुई थी। इसकी विशेषता यह थी कि इसमें कभी भी भोजन समाप्त नहीं होता था।
- जैन-धर्म में ‘अक्षय तृतीया’ पर्व का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि इसका संबंध प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से है। ऋषभदेव अयोध्या के राजा नाभि और रानी मरुदेवी के पुत्र थे। रानी मरुदेवी ने गर्भधारण के समय पहला स्वप्न ‘वृषभ’ का देखा था। अतः बालक का नाम ऋषभ रखा गया; क्योंकि वृषभ और ऋषभ दोनों एकार्थक हैं। भगवान ऋषभदेव के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने ही सृष्टि के कार्यों का शुभारम्भ किया। उन्होंने ही मानव जाति को सर्वप्रथम असि, मसि और कसि अर्थात् कृषि, पशुपालन और औजार निर्माण संबंधी ज्ञान दिया। वे एक हजार वर्ष तक गृहस्थ जीवन में रहे, संयम स्वीकार करने के पश्चात भगवान ने मौनव्रत धारण कर लिया। वे ज्ञान, ध्यान और स्वाध्याय में लीन रहने लगे। भिक्षा के समय वे नगर में जाते तो कोई उन्हें मोतियों से भरा हुआ थाल भेंट करता तो कोई घोड़े हाथी आदि सवारियां । लेकिन अन्न-जल भेंट करने के लिए कोई नहीं कहता था। कोई भी यह अनुमान लगा पाने में समर्थ नहीं था कि भगवान हमारी भेंट क्यों नहीं स्वीकार करते और रोजाना खाली हाथ क्यों लौट जाते हैं? भगवान को किस तरह की भेंट की आवश्यकता है?
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कर्मों की गति बड़ी विचित्र है, ऐसा होते-होते पूरा एक वर्ष व्यतीत हो गया। लेकिन भगवान को आहार-पानी नहीं मिला। एक दिन विहार करते-करते भगवान ऋषभनाथ हस्तिनापुर पहुंचे। जब वे राजमहल के नीचे से पधार रहे थे तो संयोग से उस समय महल के गवाक्ष में राजकुमार श्रेयांस बैठा था। भगवान को देखते ही उसे जैसे जाति-स्मृति ज्ञान हो गया और वह दौड़ा-दौड़ा भगवान के दर्शन के लिए महल से बाहर आया। उसे यह ज्ञान हो गया कि भगवान को आहार की अपेक्षा है। अतः दर्शन-वंदन करके उसने प्रभु से पारणे की सविनय अर्ज की। उसके महलों में उस दिन ‘इक्षु रस’ के एक सौ आठ घड़े भरे हुए थे।
भगवान ने उसकी अर्ज स्वीकार कर खड़े-खड़े ही अंजुलि में इक्षुरस ग्रहण किया और पारणा किया। तब आकाश में देव-दुन्दुभि बजने लगी और देवताओं ने पुष्पवृष्टि के साथ-साथ सोनैयों की भी बरसात की। अहो दानम! अहो दानम! की ध्वनि से आकाश और पृथ्वी गुंजायमान हो गया। उस दिन वैशाख शुक्ल तृतीया का दिन था अतः इसे ‘अक्षय तृतीया’ के नाम से पुकारा जाने लगा। भगवान के वर्षीतप की आज भी हजारों श्रद्धालु श्रावक-श्राविकाएं अनुमोदना करते हैं और अक्षय तृतीया के दिन हर्षोल्लास से ‘इक्षु-रस’ से पारणा करते हैं तथा भक्ति पूर्वक भगवान ऋषभदेव की वंदना व स्तुति करते हैं। अपने आत्म-कल्याण का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
– सरिता सुराणा
हिन्दी साहित्यकार एवं स्वतंत्र पत्रकार
हैदराबाद