[यह लेख पंडित श्रीलाल शुक्ल स्मारक राष्ट्रीय संगोष्ठी समिति भाग्यनगर एवं हिंदी प्रचार सभा हैदराबाद के संयुक्त तत्वावधान में ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता, प्रसिद्ध व्यंग्यकार पद्मभूषण पंडित श्रीलाल शुक्ल पर एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 31 दिसंबर को दोपहर 3 बजे से हिंदी प्रचार सभा नामपल्ली, सभागार में आयोजित कार्यक्रम के संदर्भ पर लिखा गया है।]
श्रीलाल शुक्ल का व्यक्तित्व अपनी मिसाल आप था। सहज लेकिन सतर्क, विनोदी लेकिन विद्वान, अनुशासनप्रिय लेकिन अराजक। श्रीलाल शुक्ल अंग्रेजी, उर्दू, संस्कृत और हिन्दी भाषा के विद्वान थे। श्रीलाल शुक्ल संगीत के शास्त्रीय और सुगम दोनों पक्षों के रसिक-मर्मज्ञ थे। वह श्रेष्ठ रचनाकार के साथ ही एक संवेदनशील और विनम्र इंसान भी थे। श्रीलाल शुक्ल की रचनाओं का बड़ा हिस्सा गाँव के जीवन से सम्बन्ध रखता है। ग्रामीण जीवन के व्यापक अनुभव और निरंतर परिवर्तित होते परिदृश्य को उन्होंने बहुत गहराई से विश्लेषित किया है। यह भी कहा जा सकता है कि श्रीलाल शुक्ल किसी भी विषय के मूल तक जाकर व्यापक रूप से समाज की छानबीन कर उसकी नब्ज को पकड़ते थे। प्रख्यात उपन्यासकार श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास ‘राग दरबारी’ स्वतंत्र भारत का एक ऐसा आईना है जिसमें मानवीय जीवन के चारित्रिक ह्रास और बहु विकृति व्यवस्था के कई मलिन तत्व प्रतिबिंबित होते हैं।
‘राग दरबारी’ वास्तव में एक ग्राम केंद्रित उपन्यास नहीं है, वरन् उसका कस्बाई वातावरण गाँव व नगर का अंतर मिटाते हुए उन कुप्रवृत्तियों को रेखांकित करता है, जो भारतीय जनतंत्र व विकास को खोखला बना रही है। इस संदर्भ में श्रीलाल शुक्ल का वक्तव्य दृष्टव्य है, ” राग दरबारी का संबंध एक बड़े नगर से कुछ दूर बसे हुए गाँव की जिंदगी से है, जो आज़ादी के बाद प्रगति और विकास के नारों के बावजूद निहित स्वार्थों और अनेक अवांछनीय तत्वों के आयातों के सामने घिसे रही है। यह उसी जिंदगी का दस्तावेज है।” 1
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‘राग दरबारी’ में यह राग उस लोकतंत्रीय दरबार का है, जिसमें भारत की आजादी के बाद लोग आहत, कुंठित, निराशा एवं अपंग की तरह डाल दिए गए हैं, उपन्यास में विद्यमान शिवपालगंज भारत के वर्तमान स्वरूप का विस्तृत चित्रण है। श्रीलाल शुक्ल ने अपने लेखन के माध्यम से वर्तमान युग की अत्यंत जटिल और क्रूर व्यवस्था, शोषण की नीति, सामाजिक और राजनीतिक विसंगतियों का पर्दाफाश किया है। आज के आधुनिकीकरण में दिखावे की जिंदगी जीने पर मजबूर जनता और आजकल के ठग्गू नेता जो बोलते कुछ और करते कुछ हैं वैसे ही ‘राग दरबारी’ के वैद्यजी बहुमुखी और असाधारण शक्ति सम्पन्न व्यक्ति हैं, वे नित्य ग्राम सेवा, शिक्षा की उन्नति, आदर्श चरित्र और नैतिकता की बात करते हैं किंतु आचरण में इन सबसे विपरीत हैं। वैद्यजी मूलता; चिकित्सक हैं, किंतु सम्पूर्ण रूप से राजनीति में डूबे हैं और चिकित्सा से कोसों दूर हैं। राजनीति करना भी एक कला है हर किसी के बस की बात नहीं होती। चुनाव अनैतिकता, धांधली और तिकड़म की त्रिवेणी पर अड़कर ही चुनाव लड़ा जा सकता है। सनीचर ग्रामवासियों से स्पष्ट कहता है कि “देखो भइयों मैं भी किसी से कम तिकड़मी नहीं हूँ और भला आदमी समझकर मुझे वोट देने से कहीं इंकार न कर बैठना। देश सेवा की सबसे बड़ी योग्यता तिकड़मी होना है।”2
गुंडागर्दी और पत्तेचाटी के बल पर जब अनपढ़, अज्ञानी, भ्रष्टाचारी के हाथ में सत्ता की कमान आ जाती है तब मूर्ख- बुद्धिमान पर, अविवेक- विवेक पर, अनादर्श का आदर्श पर और गधों का इंसान पर राज करना बनता है जो लोकतांत्रिक परंपरा का उपहास है। नेताओं के हाथ में जनता कठपुतली की तरह है जिस प्रकार मदारी डंडे के ज़ोर पर बंदर को नचाता है। बंदर मदारी की बात नहीं समझता उसका पूरा ध्यान डंडे पर होता है। इसी तरह भोली भाली जनता भी नेताओं के डमरू पर नाचने पर मजबूर है। नेता तो सभी एक जैसे हैं, बदलोगे तो भी ठगे जाओगे। नेता का काम है वोट माँगना और जीत जाने के बाद अगले चुनाव के लिए नए तिकड़म भिड़ाना। जो जितना बड़ा तिकड़मी वो सबसे बढ़िया राजनीतिज्ञ। किसी के हाथ में संविधान की पुस्तक तो किसी के हाथ में जातिवाद का पोस्टर। कोई बदहाल सड़कों का रोना रोता है तो कोई मँहगाई को रोता है। कुछ नहीं तो जातिवाद का ढिढोरा पीटना। समस्याएँ होती नहीं हैं, समस्याएँ बनाई जाती हैं / पैदा की जाती हैं। जाति प्रथा खत्म करने के लिए शुक्ल जी एक तरकीब बताते हैं – “इस देश में जाति प्रथा ख़त्म करने की यही एक सीधी-सी तरकीब है, जाति से उसका नाम छीनकर उसे किसी आदमी का नाम बना देने से जाति के पास कुछ नहीं रह जाता। वह अपने आप ख़त्म हो जाती है।”3
लोकतंत्र वह शासन व्यवस्था जिसमें सभी व्यक्तियों को समान अधिकार होता है। लेकिन ऐसा है नहीं। यहाँ जिसकी लाठी उसकी भैस वाला हाल है। जिसके हाथ में सत्ता / पावर है उसकी बल्ले-बल्ले। वैद्यजी सहकारिता की संपत्ति को सामूहिक संपत्ति बताते हुए गबन की परिभाषा देते हैं और साबित कर देते हैं कि सरकारी संघ में कोई गबन नहीं हुआ है- “सहकारिता में किसी की अपनी संपत्ति नहीं होती। वह सामूहिक हो जाती है। कई व्यक्तियों की संपत्ति एक जगह एकत्रित की जाती है। उसकी सुरक्षा वह करता है, जिसकी वह संपत्ति नहीं है। संपत्ति उसकी नहीं है, पर वह उसकी सुरक्षा के लिए नियुक्त होता है। यदि वह उसका अनुचित व्यय कर डाले तो वह गबन हो जाता है। ध्यान दे सज्जनों अपनी संपत्ति का आप अनुचित व्यय करें तो वह गबन नहीं है, दूसरा करे तो वह गबन है।”4
सत्ता और अधिकार के लोभ में राजनीतिज्ञ धोखा और विश्वासघात की नीति अपनाने में भी हिचकिचाते नहीं हैं। राजनेता भ्रष्टाचार के दलदल में फंसकर देश हित, ग्रामीण जनहित को बुलाकर स्वार्थ साधने लगा है। राजनीति और प्रशासन वर्तमान भ्रष्ट व्यवस्था ही प्रजातंत्र शासन की सुव्यवस्था की संज्ञा बन चुकी है। जनतंत्र में जनहित कोई अर्थ नहीं रखता। राष्ट्र नेता भ्रष्ट बन चुके हैं। राजनेता अवसर के अनुकूल अपनी राजनीतिक पैंतरेबाजी का कला कौशल दिखाते हैं।
श्रीलाल शुक्ल जी से एक भेंटवार्ता में मैंने एक प्रश्न किया कि भारतीय मान्यता है- सत्यम, शिवम, सुंदरम। सत्य, शिव और सुंदर को लेकर आपकी अवधारणा क्या है ?
उत्तर : जहाँ तक मेरी जानकारी है, सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् की अवधारणा मूलभूत रूप से भारतीय नहीं है। संभवतः यह कार्यालय के ‘द टू, दि गुड एण्ड द ब्यूटीफुल ‘ का भारतीय रूप है जिसे उन्नीसवीं शताब्दी में नवोन्मेंष (‘रानासॉ’) के काल में पहला ब्रह्म समाज में इस्तेमाल हुआ था। बाद में यह व्यापक रूप से इस्तेमाल किया जाने लगा। इस अवधारणा के मूल तत्वों को मैं मानवता के उत्कृष्ट गुणों से संपृक्त पाता हूँ।5
स्पष्ट है कि सत्यम, शिवम, सुंदर की अवधारणा को अपनाकर वर्तमान नेताओं के चरित्र में छल-कपट, पदलोलुपता, अवसरवादिता, अनैतिकता आदि सभी गुण विद्यमान है। यानि हाथी के दाँत खाने के और दिखाने के और। आज जो नेता भ्रष्टाचार में जितना डूबा हुआ है, उतना ही वह राजनीति का सफल खिलाड़ी बन चुका है।
डॉ सीमा मिश्रा