सन् 1964 में गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार से स्नातक बनकर मई माह में मैं हैदराबाद आया। रविवार को आर्य समाज सुलतान बाजार के सत्संग में मेरा आदरणीय पं. गंगाराम एडवोकेट से परिचय हुआ। उन्होंने नगर के प्रतिष्ठित महानुभावों से मेरा परिचय करवाया। पण्डित जी को मैने एक दृढव्रती आर्य समाजी के रूप में पाया। उनका सारा जीवन ऋषि दयानन्द के सिद्धान्तों पर चलने और आर्य समाज के प्रचार-प्रसार में बीता। वे तत्कालीन आर्य प्रतिनिधि सभा, हैदराबाद के मन्त्री और सन् 1980 में नवगठित आर्य प्रतिनिधि सभा आंध्र प्रदेश के उप प्रधान निर्वाचित हुए।
पं. गंगाराम जी का कार्यक्षेत्र सुविस्तृत था। वे ‘वर्णाश्रम’ पत्रिका द्वारा अपने विचारों को स्पष्टतः व्यक्त करते थे। समाज में व्याप्त अनीतियों का वे खुलकर विरोध करते थे। पण्डित जी ने आर्यसमाज सुलतान बाजार में प्रति सप्ताह रविवार के दिन ‘सत्यार्थ प्रकाश की कथा’ नाम से एक क्रमबद्ध कार्यक्रम अबाध रूप से चलाया था। उन्होंने डॉ. रमेशचन्द्र भटनागर के सहयोग से वेद-गोष्ठियों का भी आयोजन किया था। इन गोष्ठियों में विद्वज्जन अपने विचारों को लेखबद्ध कर प्रस्तुत करते थे और उन पर परिचर्चा भी होती थी। उनकी इस योजना को सर्वत्र सराहा जाता था।
पण्डित गंगाराम जी की कथनी और करनी में अन्तर नहीं होता था। नीतिकार ने कहा है- ‘मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्।’ अर्थात जो महान व्यक्ति होते हैं। उनके जो मन में है, वही कहते हैं और वैसा ही आचरण करते हैं। यह वचन उन पर पूर्णत: चरितार्थ होता है। वानप्रस्थ की दीक्षा के अनन्तर पण्डित जी सतत स्वाध्याय, आत्म-चिन्तन और उनके क्रियान्वयन में अनवरत तल्लीन रहे। ऐसे थे हमारे महात्मा गंगाराम वानप्रस्थी। वो आज हमारे बीच नहीं है। फिर भी बार-बार उनकी याद आती है।
डॉ विजयवीर विद्यालंकार