फाल्गुन पूर्णिमा से शुरू होने वाला पर्व होली दो दिनों का होता है। पहले दिन होलिका दहन होता है जो बुराई पर अच्छाई का प्रतीक है। अगले दिन धुलंडी मनाई जाती है। जहां पर लोग एक दूसरे को रंग लगाते हैं और पूरे उल्लास से रंग खेलते हैं। होली ऐसे रंगों को लेकर आती है जिनमें हर रंग कुछ न कुछ कहता दिखाई देता है। लाल, हरा, पीला और गुलाबी आदि इनका साइंटिफिक आधार है। होली हर रंग प्यार, सम्मान और अपनेपन की भाषा बोलता है।
वास्तव में खुशियों से भरा यह ऐसा त्यौहार है जिसमें हर उम्र के लोग, सामाजिक स्तर, भेदभाव को भूल रंगों में रंगे नजर आते हैं। रंगों के माध्यम से मन के अंदर की कुंठाएं बाहर आती हैं जिससे लोग उनसे मुक्त हो जाते हैं। अतः इसको भाईचारा बढ़ाने वाला पर्व माना गया। हिंदी के नामी साहित्यकार डॉ हरिवंश राय बच्चन ने इसका बखान कितने सुंदर रूप में लिखा- “यह मिट्टी की चतुराई है, रूप अलग और रंग अलग/ भाव विचार तरंग अलग, ढाल अलग ढंग अलग, आज़ादी है। जिसको चाहो आज उसे वर लो// होली है तो अपरिचित से परिचय करो, रूढ़ि – रीति और नीति के शासन मत घबराओ/जो हो गया बिराना उसको फिर अपनाओ, होली है तो शत्रु को बांहों में भर लो, मित्र को पलकों में भर लो और रंगों के इस पर्व से अपने को निहाल लो // “
पुराण के अनुसार यह त्यौहार हिरणकशिप की बहन होलिका के मारे जाने की स्मृति में मनाया जाता है। पुराणों में वर्णित कथानुसार होलिका को मिले वरदान अनुसार वह प्रतिदिन अग्नि में स्नान करती थी और जलती नहीं थी। हिरणकशिप ने बहन को भक्त प्रह्लाद को गोद में ले स्नान करने को कहा जिससे प्रह्लाद का अंत हो जाए। होलिका ने यही किया। हालांकि, होलिका जल गई और प्रह्लाद बच गए। होलिका वरदान की इस शर्त को भूल गई थी कि अग्नि स्नान वह अकेले ही कर सकती है। अतः भस्म हो गई। तभी से कहा गया कि हर बुराई का अंत होता है और अच्छाई की जीत होती है। इसी के प्रतीक के रूप में होली मनाई जाती है।
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होली से सर्दी के मौसम की समाप्ति और गर्मी की शुरुआत होती है। एक और प्रसंगानुसार कंस के निर्देश पर जब राक्षसी पूतना ने श्रीकृष्ण को मारने के लिए विष पूर्ण दुग्ध पान कराना शुरू किया तब श्रीकृष्ण ने दूध पीते – पीते उसे ही मार डाला। कहते हैं कि उसका शरीर लुप्त हो गया। तब लोगों ने उसका पुतला बना दहन किया और खुशियां मनाई। तभी से मथुरा में होली भव्य रूप से मनाने की परंपरा है। इन दोनों प्रसंगों पर ध्यान दें तो यही तथ्य सामने आता है कि ईश्वर हमेशा सत्य, सद्भाव और सदाचार को ही शरण देते हैं।
होली सिर्फ फेस्टिवल नहीं बल्कि फेस्टिवल को जोड़ने का पर्व है जिसमें कई रंगों का मेल छिपा है। होली हास परिहास और हंसी ठिठौली का अवसर देती है जिससे मन में बसे गिले शिकवों शिकायतों और शंकों को दूर किया जा सके।
ध्यान रहे आज सबसे बड़ी जरूरत साफ और खुले दिल से मिलना जुलना है क्योंकि ऐंठ ने सारी फिजा को बिगाड़ रखा है। दिलों की दूरियां बढ़ गई हैं। तब होली की और बड़ी प्रासंगिकता दिखाई देती है। किसी ने खूब लिखा- “गुलाल के रंगों कुछ तरह रंग जाएं/ कि खुशियों के रंगों के अलावा आप पर दूसरा कोई और रंग न चढ़ पाए//
इस पावन पर्व के मौके पर गुजिया खाने का रिवाज है ताकि वाणी में मधुरता कायम रहे। यह प्राचीन परंपरा है। मान्यतानुसार बृज में होली के अवसर पर भगवान श्रीकृष्ण को भोग लगाने के लिए सबसे पहले गुजिया बनाई गईं थी। तब से होली पर मुख्य मिठाई बन गई। रंगों की फुहारों के बीच गुजिया के कॉम्बिनेशन को मन और रिश्तों के बीच समरसता के रूप में माना गया है।
किसी शायर ने खूब कहा- “सभी रंगों का रास है होली, मन का उल्लास है होली/जिंदगी में खुशियां भर देती होली, इसलिए बहुत खास है। डंके की चोट पर कहा जा सकता है – मन के उत्सव का पर्व होली है।

दर्शन सिंह
मौलाली हैदराबाद