विशेष लेख : गुरु नानकदेव का दार्शनिक चिंतन, इसमें हैं समानाताएं

आज कार्तिक पूर्णिमा है। इसे देव दीपावली भी कहा जाता है और इसी दिन भारतवर्ष की पवित्र भूमि पर उत्कृष्ट चिंतक, दार्शनिक, संत गुरु नानकदेव जी का अवतरण हुआ था। हम जानते हैं कि प्रत्येक देश का अपना एक विशिष्ट आध्यात्मिक, सांस्कृतिक एवं दार्शनिक चिंतन और सांस्कृतिक विरासत होती है। वस्तुतः संस्कृति ही चिंतन की अंतरात्मा होती है। इसी से देशों तथा जातीय संस्कारों द्वारा सामाजिक, राजनैतिक तथा आध्यात्मिक जीवन के आदर्शों, नैतिक मूल्यों का निर्धारण होता है।

भारतीय चिंतन की भी अपनी विशिष्टताएं हैं। आत्मा, पुनर्जन्म, कर्मफल और मोक्ष, ये चार भारतीय चिंतन के प्रमुख स्तम्भ हैं। इस अवधारणा का सिद्धांत पक्ष जितना महनीय है, उतना ही सुगम तथा यथार्थ साधना पक्ष भी है। इस सुदीर्घ साधना पद्धति में लोककल्यानार्थ समय – समय पर संशोधन और परिवर्धित भी दिखता है। ऐसा ही एक संशोधन, परिवर्द्धन गुरु नानकदेव जी के चिंतन और साधना पद्धति में स्पष्ट दिखता है; जिसने पश्चिमोत्तर भारत में अपनी विशेष छाप छोड़ी और धीरे – धीरे राष्ट्रव्यापी हो गया।

भारतीय चिंताधारा अनंत सत्ता की खोज है। यह प्रत्यक्ष में छिपी परोक्ष सत्ता की खोज में सदा निमग्न रही है। गुरु नानकदेव जी के चिंतन में ये सभी प्रवृत्तियां मूल रूप में व्याप्त रही है। पंद्रहवीं शताब्दी में गुरु नानकदेव की इस चिंतन को उनकी शिष्य परम्परा ने आगे बढ़ाया। पंजाबी भाषा में शिष्य को “सिक्ख” उच्चरित किया जाता है, अतः गुरु के शिष्यों का धर्म होने के कारण यह “सिक्ख धर्म” के नाम, रूप में विकसित होकर भाषा और वेशभूषा की अपनी विशिष्टता के कारण एक अलग पहचान बना लिया, किंतु इसके दार्शनिक चिंतन और संस्कृति इस नए प्रारूप में भी सदा अक्षुण्ण रहे।

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गुरु नानकदेव जी एक संत दार्शनिक है और उन्होंने दार्शनिक दृष्टि से ही सृष्टि की समस्याओं को जानने का प्रयास किया है। सृष्टि की पृष्ठभूमि में जो अदृश्य शक्ति, दिव्य ऊर्जा अथवा परम कारण है, उसे भारतीय परम्परा में “ब्रह्म” अथवा परमतत्त्व कह गया है।

गुरु नानकदेव जी ने “जपु जी” में परमतत्त्व को इस प्रकार परिभाषित किया है- 1 ओंकार सतनाम करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकालमूरति अजूनी सैभं गुरपरसादि। सिद्धांत और साधना का एक ही साथ गूंफित मंत्र या परिभाषा मुझे अन्यत्र कहीं नहीं दिखती। इनमें अंतिम पद “गुरपरसादि” ही एकमात्र “साधना परक शब्द” है। शेष शब्द “निर्गुण परमतत्त्व” की गुणवाचक संज्ञाएं हैं। निर्गुण को जानने का साधन भी सगुण से होकर ही गुजरता है। सगुण को सम्यक रूप से जानकर और उनके गुणों का निषेध कर ही “निर्गुण” तक की यात्रा संपन्न दो सकती है। और इस यात्रा का एक मात्र साधन गुरुकृपा ही है, कोई दूसरा नहीं। इस प्रकार गुरुनानक ने एक मंत्र में एकही साथ सिद्धांत और साधना, दोनों का निर्देशन कर दिया है। यह गुरुनानक की उत्कृष्ट, प्रकृष्ट दार्शनिक क्षमता का अनुपम उदाहरण है।

परमतत्त्व के विश्लेषण में सिक्ख गुरुओं की दृष्टि सदा ही अद्वैतवादी तथा समन्वयवादी रही है। भारतीय परम्परा में यह अद्वैतवाद सदैव एकरूप नहीं रहा है, उसमें अद्वैत, विशिष्टद्वैत, द्वैताद्वैत, शुद्धाद्वैत इत्यादि प्रमुख सिद्धांत रहे हैं। किंतु सिक्ख गुरुओं का अद्वैतवाद सगुण, निर्गुण के परंपरागत भेद पर आधारित नहीं है, तथापि उपनिषदों और गुरुओं के चिंतन में पर्याप्त समानताएं है।

गुरुनानक और परवर्ती गुरुओं ने निरंकार ब्रह्म की व्याख्या करते हुए उसे “पुष्प गंध” (पुहुप गंध) की तरह सूक्ष्मतिसूक्ष्म और “मुकुर माहि ज्यों छाईं” की भांति सर्वव्यापी कहा है। अपनी अनुभूति को लोक कल्याणार्थ इस रहस्य को उद्घाटक कर देना चाहते है। वह परमतत्त्व सच्चिदानंद परमात्मा स्वयं ही रस भी है और रसिक भी; साथ ही रसास्वादी और रसभोक्ता भी। वही प्रिया भी है, प्रियतम भी, साथ ही केलि भी, केलि आनन्द भी, आनन्द का भोक्ता भी, सबकुछ एक ही साथ। एक उद्गार देखिए- आपे रसिया आपि रस आपे रावण हार। आपे होवे चोलड़ा आपे सेज भतार।।

डॉ जयप्रकाश तिवारी
बलिया, लखनऊ, उत्तर प्रदेश

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