पर्यावरण प्रदूषण आज एक वैश्विक समस्या बन गया है। हमारे देश में जहां विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों के 130 करोड़ से ज्यादा लोग निवास करते हैं, जहां पर आए दिन कोई न कोई पर्व-त्यौंहार मनाए जाते हैं, वहां पर पर्यावरण प्रदूषण होना एक सामान्य बात है। लेकिन जिसे हम सामान्य समझते हैं, वह सामान्य नहीं अपितु भविष्य के लिए एक बहुत बड़े खतरे का संकेत है। अब कोरोना महामारी को ही ले लें। क्या आप और हम में से किसी ने भी ये सोचा था कि एक दिन अचानक ऐसी महामारी फैलेगी कि हमारा आपस में मिलना-जुलना और घरों से बाहर निकलना बंद हो जाएगा और हमें निरन्तर एक खौफ के साए में जीना पड़ेगा। यह एक गम्भीर चेतावनी है समस्त मानव जाति के लिए कि अगर हमने प्रकृति के साथ खिलवाड़ करना बंद नहीं किया तो भविष्य में हमें इसके और भी गम्भीर परिणाम भुगतने पड़ेंगे।
हम यह जानते हैं कि प्रदूषण शब्द सीधे-सीधे पर्यावरण से जुड़ा हुआ है और पर्यावरण प्रकृति व मनुष्य से। मनुष्य पहले प्रकृति के निकट था, उसका संरक्षक था लेकिन उसकी भौतिकवादी प्रवृत्ति ने उसे प्रकृति से दूर कर दिया। हमारे देश की प्राचीन संस्कृति सदैव प्रकृति और पर्यावरण में सन्तुलन की पक्षधर थी। वैदिक मंत्रों और ऋचाओं में भी पर्यावरण सन्तुलन की बात पर बल दिया जाता था। धार्मिक अनुष्ठानों में उच्चारित होने वाले वैदिक शान्ति मंत्र में भी पर्यावरण की चर्चा की गई है-
‘ॐ द्यो: शान्तिरन्तरिक्षं शान्ति:
पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।
वनस्पतय: शान्तिर्विश्वेदेवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:
सर्वं शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति: सा मा शान्तिरेधि।।
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:।।’
यजुर्वेद के इस शान्ति पाठ मंत्र में सृष्टि के समस्त तत्वों और कारकों से शान्ति बनाए रखने की प्रार्थना की गई है। इसमें कहा गया है कि समस्त भूलोक में शान्ति हो, अन्तरिक्ष में शान्ति हो, पृथ्वी पर शान्ति हो, जल में शान्ति हो, औषध में शान्ति हो, वनस्पतियों में शान्ति हो, विश्व में शान्ति हो, सभी देवता गणों में शान्ति हो, ब्रह्म में शान्ति हो, सब में शान्ति हो, चारों ओर शान्ति हो। शान्ति हो, शान्ति हो, शान्ति हो। अर्थात् यह मंत्र पर्यावरण के विभिन्न घटकों जैसे- पृथ्वी, जल, औषधि, वनस्पति आदि के सामंजस्य और पारस्परिक सन्तुलन पर बल देता है।
जैन दर्शन में भी पंच महाभूतों यथा- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तथा छः काया के जीवों की हिंसा करने से बचने के लिए कहा गया है। इन छः काया के जीवों में संसार के समस्त प्राणी समाहित हैं। जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक काय के जीवों में असंख्य सूक्ष्मातिसूक्ष्म जीव विद्यमान रहते हैं फिर चाहे वह पृथ्वीकाय हो (पत्थर, चट्टान आदि), अप्काय (पानी के जीव), तेजसकाय (अग्नि के जीव), वायुकाय (हवा में विद्यमान जीव), वनस्पतिकाय (विभिन्न वनस्पतियां) और त्रसकाय (चलने-फिरने वाले समस्त जीव)।
प्रकृति और पर्यावरण
हम सब जानते हैं कि पर्यावरण का सीधा संबंध प्रकृति में पाए जाने वाले समस्त जीवों और संसाधनों से है। प्रकृति में विद्यमान छोटे से छोटे जीव से लेकर बड़े से बड़े शरीरधारी जीव के अस्तित्व का अपना महत्व है। आज मनुष्य अपने फायदे के लिए इन जीवों के अस्तित्व को ही मिटा रहा है, यह जानते हुए भी कि पर्यावरण में असंतुलन पैदा करने से सबसे ज्यादा हानि उसकी ही है। प्राचीन भारतीय परम्परा में पर्यावरण संरक्षण के प्रति चेतना का भाव व्यापक रूप में विद्यमान था। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है- छोटे जीवों पर दया भाव, वृक्षों की रक्षा करना, यज्ञादि द्वारा वातावरण की शुद्धि और नदियों के जल में दूषित पदार्थों के विसर्जन का वर्जन आदि। सभी नागरिक इन नैतिक नियमों का पालन करते थे और इसीलिए पर्यावरण प्रदूषण मुक्त था। लेकिन वक्त के साथ-साथ सब कुछ बदलता चला गया।
पर्यावरण चेतना जगाएं
हम सब जानते हैं कि मनुष्य ही इस सृष्टि का सबसे विवेकवान प्राणी है इस दृष्टि से सृष्टि में पाए जाने वाले समस्त जीवों की रक्षा का दायित्व भी उसी का है। मगर अफसोस इस बात का है कि ज्यों-ज्यों वह वैज्ञानिक प्रगति कर रहा है और विकास के सोपान चढ़ रहा है, त्यों-त्यों उसकी पर्यावरण चेतना भी विलुप्त होती जा रही है। यहां पर इन सब बातों का जिक्र करना इसलिए आवश्यक है कि आजकल त्यौंहारों पर भक्ति भावना कम और आडम्बर ज्यादा हो गया है। जो त्यौंहार पहले पारम्परिक लोक गीत-संगीत और नृत्यों के आयोजन के साथ मनाए जाते थे अब उनकी जगह पाश्चात्य संगीत ने ले ली है।
जीते-जागते उदाहरण
इसके जीते-जागते उदाहरण हैं दीवाली से पहले मनाए जाने वाले त्यौंहार- गणेश उत्सव, नवरात्रि में गरबा-डांडिया और दशहरे पर रावण दहन। त्यौंहार मनाने के नाम पर जहां लाखों रुपए की बर्बादी होती है, वहीं ध्वनि प्रदूषण, जल प्रदूषण और वायु प्रदूषण भी बढ़ता है। अब इनके बाद आता है दीपावली का त्यौंहार, जो हिन्दू धर्मावलंबियों के लिए सबसे बड़ा त्यौंहार है और इसमें भी आजकल प्रदर्शन की होड़ इतनी बढ़ गई है कि सब एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में जाने-अनजाने में अपना और समस्त मानव जाति का अहित कर रहे हैं। आइए इस बात पर गम्भीरतापूर्वक विचार करें कि हम प्रदूषण मुक्त दीवाली कैसे मनाएं-
मिट्टी के दीए जलाएं
दीपावली पर मिट्टी के दीयों से घर को रोशन करने की परम्परा बहुत पुरानी है परन्तु वक्त के साथ-साथ यह भी बदल गई है और इसकी जगह बिजली के बल्बों और फैंसी झालरों ने ले ली है, जो ज्यादातर चीन से बनकर आते हैं। हम जानते हैं कि चाइनीज माल की न तो गुणवत्ता अच्छी होती है और न ही वह टिकाऊ होता है। एक बार प्रयोग में लाने के बाद उसे फेंकना ही पड़ता है और यह सामान प्लास्टिक से निर्मित होने के कारण धरती पर कचरा ही बढ़ाता है। इसकी जगह अगर हम मिट्टी के दीयों का प्रयोग करते हैं तो इससे न केवल वातावरण शुद्ध होता है अपितु मिट्टी के दीये आसानी से मिट्टी में मिल जाते हैं और उनसे प्रदूषण का खतरा भी नहीं रहता। साथ ही साथ हमारे कारीगरों को रोजगार मिलता है और उनके घर में भी खुशियां आती हैं। इसलिए इस दीपावली पर हमें हमारे कारीगरों से ही मिट्टी के दीये ख़रीद कर उनसे अपने घर को सजाना है।
रंगोली और माण्डणों से घर को सजाएं
आजकल यह देखने में आ रहा है कि दीवाली पर घरों में सजावट के नाम पर बाजार से रेडीमेड सामान लाकर उसका उपयोग किया जाता है। इसके पीछे एक कारण यह भी है कि अब स्त्रियां भी घर से बाहर काम करने लगी हैं और उनको घर और बाहर दोनों जगह दोहरी जिम्मेदारी निभानी पड़ती है। इसी वजह से त्यौंहार के समय वे घर को सजाने-संवारने में ज्यादा समय नहीं दे पाती हैं और बाजार से रेडीमेड सामान खरीदकर अपने श्रम और समय की बचत करती हैं। लेकिन जो आत्मिक खुशी हाथ से बनाई हुई चीजों से प्राप्त होती है, वह बाजार से खरीदी गई चीजों से कभी नहीं मिलती इसलिए इस बार अपने घर-आंगन को अपने हाथों से सजाएं। आपको रंगोली, अल्पना, मुग्गू और माण्डणा जो भी बनाना आता हो, उसे बनाएं। अपने घर के मुख्य द्वार पर आम के पत्तों से या फूलों से बनी बंदनवार लगाएं। ये चीजें न केवल घर में खुशहाली लाती हैं अपितु सुख और समृद्धि भी बढ़ाती हैं। ये सब शुभत्व की प्रतीक हैं।
पटाखे कम से कम छुड़ाएं
आजकल अकसर देखा जाता है कि धनाढ्य वर्ग अपनी शानो-शौकत दिखाने के लिए धनतेरस के दिन से ही पटाखे छुड़ाना प्रारम्भ कर देते हैं। उनमें भी खासकर बम और बमों की लड़ियां, जो दस हजार की संख्या तक आती है। ये एक बार शुरू होने से काफी देर तक चलती हैं, उस दौरान आस-पास हमें न तो कुछ सुनाई देता है और न ही दिखाई देता है। वातावरण में चारों ओर इतना धुंआ छा जाता है कि सांस लेना भी मुश्किल हो जाता है। अस्थमा के रोगियों, बच्चों और बुजुर्गों को, बीमार आदमियों को इससे बहुत तकलीफ़ होती है लेकिन अपनी ही मस्ती में मस्त आज का आदमी इतना संवेदनहीन हो गया है कि उसे अपनी खुशी के सिवाय कुछ और महसूस ही नहीं होता और न ही वह करना चाहता है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की हमारी भावना दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है। अगर हम चाहते हैं कि हमारी आने वाली पीढ़ी स्वच्छ और निर्मल वातावरण में सांस ले और हर्षोल्लास से त्यौंहार की खुशियां मनाए तो हमें अभी से पर्यावरण चेतना जागृत करनी होगी। यह संकल्प लेना होगा कि हम अत्यधिक शोर करने वाले और धुंआ छोड़ने वाले बम नहीं छोड़ेंगे। केवल रोशनी के पटाखे ही छोड़ेंगे और वे भी सीमित मात्रा में।
प्रकृति के नाम एक दीया जलाएं
कहते हैं कि एक दिन घूरे के भी दिन फिरते हैं अर्थात् रोजाना जहां पर हम अपने घर का कूड़ा-करकट फेंककर आते हैं, दीवाली के दिन वहां पर भी एक दीपक जलाना चाहिए। मान्यता है कि ऐसा करने से घर में माता महालक्ष्मी का आगमन होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो इस शुभ दिन प्रकृति का कोई भी कोना अंधकारमय नहीं रहना चाहिए। हमारा यह कर्त्तव्य है कि जिस प्रकृति ने हमें जीवनयापन के लिए सब कुछ दिया है, उसके प्रति हम अपना आभार व्यक्त करें। इसका एक अर्थ यह भी है कि हम प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा करें, उन्हें दूषित न करें। पेड़-पौधे हैं तो ही जीवन है, जल है तो ही जीवन है। शुद्ध वायु है तो ही जीवन है, शुद्ध मन है तो ही जीवन है।
जीवन मंत्र
इस जीवन मंत्र को आत्मसात् कर लें तो फिर धरती पर स्वर्ग उतरते देर नहीं लगेगी। तो फिर देर किस बात की, आइए हम एक संकल्प लें कि हम सब सादगीपूर्ण और प्रदूषण मुक्त दीवाली मनाएंगे और एक दीया प्रकृति के नाम पर जलाएंगे। प्रकृति और हमारे आस-पास का वातावरण स्वच्छ रहेगा, तभी हम और आप तथा सम्पूर्ण मानव जाति सुरक्षित रहेगी।
– सरिता सुराणा स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखिका हैदराबाद