देवभाषा संस्कृत की उत्तराधिकारी, पालि – प्रकृति की दुलारी “हिन्दी” की दशा और दिशा पर जब हम विचार करते हैं तो सर्वप्रथम हमारा ध्यान जाता है- उसकी नाम और पहचान पर। अधिक कष्ट इस बात का नहीं कि “हिन्दी” राष्ट्र भाषा बनते बनते राजभाषा बनकर रह गई। कष्ट इस बात का भी नहीं कि सरल, स्वाभाविक उद्गार वाली, उत्तम व्याकरण से पोषित मधुर शब्दावली कार्यालयों में जाकर कब और कैसी इतनी क्लिष्ट भाषा बन गई कि सामान्यजन की पहुंच से दूर होती चली गई? सर्वाधिक कष्ट इस बात का है कि इतने से भी मन नहीं भरा तो आज उसकी “नाम और पहचान” पर ही संकट आ खड़ा हुआ है। यह आयोजित है, प्रायोजित है या कुचक्र? निश्चित रूप से चिंतन और विमर्श का एक ज्वलंत विषय होना चाहिए। इसके कारणों की सम्यक पड़ताल होनी चाहिए। क्योंकि यह एक आजमाया हुआ सिद्धांत है कि देश को मिटाना हो तो उसकी संस्कृति, साहित्य मिटा दो, भाषा को मिटाना हो तो नाम, पहचान विकृत कर दो, इससे भी बात न बने तो उसे क्लिष्ट और दुर्बोध बना दो।
आज यही हिन्दी के साथ भी हो रहा है और भारत देश के साथ भी। भारत की इंडिया कहकर प्रचारित, प्रसारित करना अनायास नहीं है, यह सयास है। यही हिन्दी के साथ भी हो रहा है। “हिन्दी” को “हिंदी” लिखने और बोलने का नवीन प्रचलन षड्यंत्र है या सुधार? इसपर लंबी चौड़ी बहस हो सकती है किन्तु मूल प्रश्न है की “हिन्दी” को “हिंदी” लिखने की आवश्यकता ही क्यों पड़ी? कुछ महानुभाव कहेंगे कि यह कंप्यूटर और मोबाइल की असमर्थता है। जी नहीं, यह हमारी अकर्मण्यता, आलस्य और भाषा के प्रति असंवेदनशीलता है। यह मातृ भाषा, राज भाषा के साथ स्नेह, सद्भाव और समर्पण की कमी है। क्या कंप्यूटर हमे “ॐ”, “ऋ” आदि शब्दों के लेखन के लिए कुछ बटन के प्रयोग का विकल्प नहीं देता? देता है, यह व्यवस्था है, तकनीक और उपकरणों को दोषी नहीं कहा जा सकता। यह शार्टकट, आलस्य और स्नेहाभाव ने हमारी सोच में स्थान बना लिया है, फलतः हमने हिन्दी को “हिंदी”, मॉं को “मां”, कृष्ण को “कृष्णा”, योग को “योगा”…. बना दिया है। यह प्रवृत्ति यहीं नहीं रुकी, इसने गहराई तक सोच और चिंतन में भी प्रवेश कर लिया है।
हमने कृष्ण को “कृष्णा” बनकर जाने अनजाने जहां लिंग परिवर्तित कर दिया। वहीं हिन्दी और मां के साथ तो और भी बुरा किया। हमने दोनों माताओं का न केवल उपहास और अपमान किया अपितु अपने मन से, घरों से बहिष्कृत भी कर दिया। अब मां वृद्धाश्रम में दिखती है और हिन्दी केवल बाजार में, व्यापार में, गांव की बोलचाल में; जहां वह न हिन्दी रही, न हिंदी, वह अब बन गई है एक नई चीज “हिंग्लिश”। … अरे हंसिए नहीं, सोचिए! बारंबार सोचिए, यही सच्चाई है और संवेदनशील व्यक्तियों के लिए गहन पीड़ा, अत्यंत दुखदाई।
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इसी पीड़ा को काव्यात्मक शब्दावली में इस प्रकार अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है। संदर्भ है एकदीन हिन्दी से मेरी मुलाकात हो गई, मुलाकात हुई तो कुछ बात भी हो गई। विमर्श की मधुरिम वेला में आओ मिलजुल करें विचार, जब चर्चा छिड़ी है हिंदी की हिंदी भाषा पर ही करें विचार। अक्षर है ‘ओंकार’ ध्वनि, अक्षर ही स्वर और नाद, अकार उकार, मकार यही इसी से है भाषा का विकास। भाषा ही वाक् है, वाणी है, भाषा ही है मन का स्पंदन। भाषा से ही जुड़े हैं हम सब, भाषा ही है मन का रंजन। कविता और साहित्य तो है अन्यतम साधना वाक् की, और शब्द हैं आराधना भाव की, ध्वनि की, अक्षर की, नाद की। अक्षर ही है प्रणव ध्वनि, अक्षर ही वाक और संस्कृति। प्रणवाक्षर में ही गुंफित है हिंदी भाषा, सनातन संस्कृति। ध्वनि अक्षर के युग्मों ने ही रच डाला है- सदग्रन्थ, पंच महाभूतों ने मिलकर सृजित किया है- सृष्टि ग्रन्थ। रचा है सृष्टि ने मानव को, मानव की अपनी है अलग सृष्टि, अपनी अपनी व्याख्या है यह परख परख की अपनी दृष्टि। जग की बातें जगती ही जाने, साहित्यिक बात जाने ‘साहित्य’। कविता को पहचाना किसने जाने कविता का मर्म, कवित्व। होती है जब मन में हलचल हिलोर तरंग जब लेती है, भाषा के रूप में बाहर आकर वह लिपि के रूप झलकती है।
सहज ही मैं पूछ बैठ – हे काव्य ! तुम्हारा गुरु है कौन? कुछ तो बोलो, क्यों हो तुम मौन? कहाँ से पायी सूक्ष्मतर दृष्टि यह? अतल – वितल तेरे रहता कौन? कैसे करती शब्द श्रृंगार तुम? यह विरह कहाँ से लाती हो? रहस्य रोमांच का सृजन कैसे पल भर में तुम कर जाती हो? कभी लगती तुतलाती बच्ची , कभी किशोरी बन जाती हो, क्षण भर में रूप बदलती कैसे कैसे कुलाँच भर जाती हो? तेरी एक झलक पा जाने को, कुछ नयन ज्योति बढ़वाते हैं, कुछ तो हैं इतने दीवाने, नित नए लेंस लगवाते हैं। नजर नहीं आती फिर भी तुम, क्या इतनी भी सूक्ष्म रूप हो? दिखती फिर तुम सूर को कैसे तुलसी घर चन्दन क्यों घिसती हो? जान न पाया तझे अब भी मैं, गुरूद्वारे का अब तो मार्ग बताओ! हे काव्य तुम्हारा गुरु है कौन कुछ तो बोलो, क्यों हो तुम मौन?
अब वह बोली – छोड़ो परिचय की बातों को, माँ-बाप बिना कोई परिचय क्या? मैं क्या बोलूँ ? मैं क्यों बोलूँ ? तेरे आगे अपना मुँह क्यों खोलूँ ? भारत भूमि का नाम भूल गए इंडिया – इंडिया अब जपते हो। भूल गए जब प्यारे हिंद को, हिन्दी को अब क्यों पहचानोगे? वेलकम-वेलकम तो खूब करते हो, सु-स्वागतम भी कभी कहते हो? मैं क्या बोलूँ ? मैं क्यों बोलूँ ? तेरे आगे अपना मुँह क्यों खोलूँ ?
जब पूछा है तो कुछ कहना है, पड़ रहा है मुझे देना परिचय। आह ! गृह में ही अपना परिचय, क्या परिचय को देना होगा परिचय? परिचय यह, क्या सजा से कम है? बदल गए घर वाले, यही बड़ा गम है.
जैसे रही न सदस्य इस घर की क्या यह देश निकाले से कम है? सॉरी – सॉरी कह करके फिर दिन – रात वही सब करते हो.
मैं क्या बोलूँ ? मैं क्यों बोलूँ ? तेरे आगे अपना मुँह क्यों खोलूँ ? वर्तनी ही चुनरी है भाषा की, लहंगा चुन्नी विदीर्ण कर डाला
क्या किया तूने , ऐ मेरे बच्चे ! माँ को ही कुरूप कर डाला! अब भी जगी नहीं चेतना उर में कैसा यह कुकृत्य कर डाला? हा, अपने ही घर में हार गयी मैं मुझे हिंग्लिश तूने ही बना डाला। अरे ! मैं तो हिंद की बेटी हूँ और नाम मेरा है -“हिन्दी”, भाल पर सुशोभित है जो हूँ मैं वही चमकती बिंदी। यहीं से पाया नेह और दीक्षा, यहीं से पायी प्राथमिक शिक्षा। जन्म हुआ संस्कृत की गोदी, पालि के संग खेली-बढ़ी हूँ । ये प्राकृत और अपभ्रंश तो मेरा अपना ही पुराना चोला है। जब भारत बन गया हिंदुस्तान, नाम मेरा पड़ गया तब हिन्दी। जब हुयी सयानी, बड़ी हुयी, ब्रज – अवधी चोला में खड़ी हुयी। निखरा जो रूप , वह खड़ी बोली, पद्य के संग-संग, गद्य रूप चली। अरे मैं तो हिंद की बेटी हूँ और नाम मेरा है हिंदी। भाल पर उसके सुशोभित है जो, हूँ मैं वही चमकती बिंदी।
मैं लगा सोचने – क्या हिंदी अपनी हार गयी? क्या हिंद के गले की ‘हार’ गयी?
होता है कष्ट कहें कैसे ? यह हिन्दी हिंद में हार गयी। यह ‘आह’ -‘वाह’ की बात नहीं, दिल पर भी नया आघात नहीं। दिल भरा – भरा है घावों से, है कष्ट भाषा से प्यार गयी। देखता हूं तो यह पाता हूं मैं, इस आरोपण में सच्चाई है, लगता है भाषा विकृति की किसी ने कुचक्र चलाई है। सोची कुदृष्टि कोई पड़ी हुई है हिन्दी को विकृत करने की।एन सी आर टी पुस्तकों में भी होड़ “अ हिंदी” शब्द अपनाने की।
प्रश्न है – हर देश की अपनी भाषा है, क्यों भारत में ही निराशा है? एक भाषा के लिए तरसते हैं, बाहर तो खूब गरजते हैं।
जब सदन में चर्चा उठती है, हिन्दी की ही लुटिया डूबती है। हाउस में वे ही शर्माते हैं,
जो हिंदी की ही खाते हैं। चुप बैठे क्यों वे रहते हैं? जो बाहर खूब गरजते हैं. क्या भय है अन्दर उनके,जो घुट-घुट कर सहते हैं? अब आंग्ल भाषा आयी है, दिलों पर सबके छायी है। यह नटखट छैल-छबीली है, यह कटी पूँछ की बिल्ली है। हिंदी के घर की खाती है, पर ‘हाय ‘, ‘हेल्लो” करती है। हिंदी को समझती चुहिया सी ,
और पंजों से वार ये करती है…। यह पर्दा अब कौन हटाएगा ? वह वीर कहाँ से आयेगा ? अब भी तुम चेते नहीं भाई! निश्चय ही ‘क्लीव’ कहायेगा।
भाषा हो हिंदी, देश हिंदुस्तान, देखो कितना सुंदर पवित्र नाम, धरा है इसकी उर्वरा कितनी? है प्रकृति की क्षमता जितनी। सतत खिले हैं इसी धरा पर
प्रज्ञान-विज्ञान के सुमन निरंतर, झाँक लो चाहे गगन में ऊपर या फिर देखो महि के अन्दर। सागर को भी मथ डाला है ऐसा उदाहरण और कहाँ है? हिमशिखर पर किया आराधना, दूजा मिशाल ऐसी कहाँ है? करके सरल इस ज्ञान राशि को हिन्दी अब अलख जगाती है। गहन, गूढ़, उपनिषद् वेदांत को सहज लोक भाषा में समझाती है। हर भाषा को उद्भाषित करती अपने को भी विकसित करती
फिर भी एक कष्ट बहुत भारी हिन्दी बनी न राष्ट्र भाषा हमारी।
हिंदी दिवस मनाते हैं वे, हवा में हाथ लहराते हैं वे, आती है जब हाथ में बाजी
अंगूठा ही दिखलाते हैं वे। हिन्दी पखवाड़ा मनाते क्यों? उसे धूप दीप दिखलाते क्यों? क्या हिन्दी भी है मृत भाषा? भोंडा ढोंग दिखलाते क्यों? यदि हिंदी से गहरा नाता फिर कार्यालयों में क्यों नहीं भाता?
जिम्मेदार को प्रेम इंग्लिश से, इस हिन्दी से कैसा उनका नाता..?
हिंदी की बात जो करते हैं वे झूठी शान क्यों गढ़ते हैं? कसमे खाते जो हिंदी की
औलाद कान्वेंट में पढ़ते हैं। जो अक्षत – पुष्प चढाते हैं, हिन्दी से स्नेह दिखलाते हैं
स्नेह यदि सच्चा तो आओ हिन्दी में ही हम बात करे.। एक नयी नयी शुरुआत करे
हिन्दी में पत्र व्यवहार करें, हिन्दी साहित्य से प्यार करें। गीता, मानस का नित पाठ करें। हिंदी समर्थ अपनी है भाषा, जाने फिर भी क्यों है निराशा? लिखे शोध हिंदी भाषा में विपुल शब्द भण्डार है इसमें। अरे! एकल रूप में हम सब भारतवासी
एक-एक अक्षर हैं ‘हिंदी वर्णमाला’ के,
जब जुड़ते हैं सब एक – एक कर नियम से, स्नेह से, तब बन जाते हैं – सुन्दर, प्रेरक, सार्थक – ‘सदवाक्य’। बन जाते हैं – ‘गीत’ और ‘गान’, रच जाते हैं – कहानी और उपन्यास। सृजते हैं – साहित्य और महाकाव्य। जिसमे निभाते हैं साथ – ‘विराम चिह्न’, और मात्राएँ धुन बन के, साज बन के; ध्वनि, संगीत मधुर आवाज बन के। आइए हिन्दी, हिन्द को संवारने के लिए “हिन्दी दिवस” पर यह संकल्प उठाएं, हिन्दी को उसका उचित अधिकार दिलाएं।
डॉ जयप्रकाश तिवारी
बलिया / लखनऊ
मो 9450802240, 9453391020