आज बुद्ध पूर्णिमा है। सनातन धर्मानुयायी राजा सुशोधन के पुत्र रूप में राजकुमार सिद्धार्थ (भगवान बुद्ध) का पावन जन्म दिवस। जन्म दिवस चाहे जिस किसी का भी हो, वह चिंतन और परीक्षण का ही दिवस होता है। कहा जाता है कि अत्यंत संवेदनशील और कुशाग्र बुद्धि संपन्न सिद्धार्थ एक वृद्ध, एक रोगी और एक शव को देखकर उद्विग्न हो उठे और इनसे निवृत्ति के लिए सत्य की खोज में रात के अंधेरे में ही निकल पड़े। (यहां बड़ी चतुराई से चौथे दृश्य की बात छिपा ली जाती है कि यात्रा में उन्होंने साधनारत एक संन्यासी को भी देखा था)।
अपनी घोर तपस्या से, उसी सनातनी योग साधना से, समाधि से सत्य का बोध किया, कैवल्य की प्राप्ति की और “निर्वाण” नाम दिया। और सनातन विचारधारा, कर्मकांडों में, योगसाधना में घुस आये अंधविश्वासों, कुरीतियों का शोधन किया। धर्म का तात्विक चिंतन करते हुए जागृत अवस्था, सूक्ष्म अवस्था, ध्यान, समाधि से अहं तक की यात्रा पूरी की। बोध को प्राप्त किया और अब सिद्धार्थ से बुद्ध बनकर शिष्यों को उपदेश करने लगे। शिष्यों के तत्त्वमीमांसा संबंधी प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं दिया और इस प्रश्न पर वे “मौन” साध लेते थे, न तो उन्होंने शास्वतवाद का समर्थन किया न ही उच्छेदवाद का। “बुद्ध” के इसी मौन को उनके महापरिनिर्वाण के पश्चात उनके शिष्यों ने अपनी – अपनी बुद्धि विवेक के अनुसार उनके उपदेशों की व्याख्या की और उनके “मौन” को शून्यवाद तक पहुंचा दिया।
ये शून्यवादी विचारक यह भूल गए कि “अहं” का बोध, “अहं” की अनुभूति कैसे होगी, यदि वह शून्य होगा? अस्तित्व (सत्ता) शून्य नहीं हो सकता, यहां वृत्तियों की शून्यता, विषयों की शून्यता ही अपेक्षित है। सत्ता कभी भी शून्य नहीं हो सकता। क्योंकि इन वृत्तियों की शून्यता का ज्ञाता, अनुभव कर्ता कौन है? कोई तो है, जिसे वह शून्य भी कह रहा है और सुन भी रहा है। इसको नकारा कैसे जा सकता है? यदि शून्यवाद को ही सत्य मान लिया जाय तो “मैत्रेय” का क्या होगा? भावी “मैत्रेय बुद्ध” का क्या होगा? उनके अवतरण संबंधी संकल्पना का क्या होगा? क्या किसी अजर अमर अविनाशी सत्ता के अभाव में पुनर्जन्म संभव है? उनके इस संकल्प का क्या होगा, मैत्रेय का अवतरण कैसे, जिसका संकल्प है – “जबतक जगत में दुःख होगा / यह बुद्ध नहीं फिर मुक्त होगा”। इस दृष्टि से भी यह मान्यता भ्रामक है।
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बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात उनके शिष्यों में ही घोर मतभेद उत्पन्न हो गए और यह ऐतिहासिक सत्य है कि इन मतभेदों को दूर करने के लिए आधिकारिक रूप से विद्वानों की तीन महासंगति, महाबैठक संपन्न हुई और मतभेदों को सुलझाने का प्रयास किया गया तथापि मतभेद दूर नहीं हुए और बुद्ध धर्म में ही दर्जनों मत-मतांतर विकसित हो गए, प्रकाश स्तंभ “त्रिपिटक” के होते हुए भी। इसका कारण क्या है? कारण है श्रुत परंपरा बुद्ध वाणियों का संकलन। इन विद्वानों का आपसी मतभेद, अहम और इदम वृत्ति में अंतर समझ न पाना। दोनों में गहराई, दूरी, भेद, विभेद गहराते गए, … बुराइयां बढ़ती गई और अंत में तंत्र साधना रूप में विकसित होकर पंच मकारों की स्वीकृति, असंयमित स्थूलभोग वृत्ति ने सैद्धांतिक रूप से जर्जर हो बौद्ध धर्म को गर्त में पहुंचा दिया। वहीं राजनीतिक रूप से शासन की बलहीनता, राजा की अकर्मण्यता, विलासिता पूर्ण जीवन चर्या ही भारत भूमि से इस बौद्ध धर्म के पतन, पराभाव का मूल कारण है। और आज संकुचित हाथों में पड़कर विद्वेष वामन कर रहा है। दोष बुद्ध का नहीं, उनके मौन का है, दोषपूर्ण व्याख्या की है। कुत्सित राजनीतिक लाभ के लिए मनमानी व्याख्या हो रही है।
बाद के काल खंडों में एक महाभ्रांति बौधानुयायियो द्वारा लगातार चतुर्दिक फैलाई गई है और आज भी कटुता पूर्वक ढंग से प्रचारित, प्रसारित की जा रही है कि महात्मा बुद्ध सनातन धर्म और सतातन सत्य के धुर विरोधी थे और अजर-अमर-अविनाशी आत्मा में उनका कोई विश्वास नहीं था। यह एक मूर्खतापूर्ण और भ्रामिक अभियान है। मैने यहां दो शब्दों का प्रयोग किया है “मूर्खतापूर्ण” और “भ्रामिक”। यह कथन कितना तर्कसंगत है और कितना अतर्कपूर्ण, क्यों न इसका खुले मन से विवेचन किया जाये? तो आइए इसका परीक्षण करते हैं। सनातन धर्म के चार प्रमुख स्तंभ हैं – आत्मा, पुनर्जन्म, कर्मफल और मोक्ष। इसपर किसी को भी आपत्ति नहीं है, प्रायः बौद्धनुयायियों को भी नहीं। तो क्यों न इन्ही स्तंभों, संकल्पनाओं को आधार मानकर अपना परीक्षण प्रारंभ किया जाये।
बात को सुगमता से प्रस्तुत करने के लिए यह विवेचन यात्रा चौथे स्तंभ “मोक्ष” से प्रारम्भ करते है। मानव जीवन के सर्वोच्च पुरुषार्थ के रूप में मोक्ष, मुक्ति, कैवल्य, निर्वाण संप्रत्ययन की संकल्पना सभी भारतीय धर्मों में सर्वोच्च और अनिवार्यरूप से स्वीकृत, वर्णित है और जीवन की समस्त क्रिया कलाप, धार्मिक अनुष्ठान उसी पद की प्राप्ति के लिए ही है, यहांतक किसी को भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए। सनातन संस्कृति में जिसे मुक्ति, मोक्ष, कैवल्य कहा गया है, भगवान बुद्ध ने उसे ही “निर्वाण” कहा।
सनातन की ही भांति बुद्ध ने भी साधक, भिक्षु या परिव्राजक के लिए उनकी समस्त साधनाओं का अंतिम फल निर्वाण प्राप्ति को ही घोषित किया गया है। भिक्षु/परिव्राजक की साधनाओं का एकमात्र साध्य “निर्वाण” प्राप्ति ही है और यह साधना द्वारा ही साध्य है अर्थात कर्मफल है। अब बात पुनर्जन्म की, बौद्ध धर्मानुयाइयों द्वारा ही भगवान के बुद्ध को “मैत्रेय” रूप में पुनर्जन्म लेने और जबतक इस धरा से दुःख का अन्त नहीं हो जाता, तबतक बुद्ध के स्वयं मुक्त न होने की बात प्रमुखता से की जाती है। वे स्वयं अकेले की मुक्ति, निर्वाण नहीं चाहते। मानव मात्र को निर्वाण प्राप्त करना चाहते हैं। यह मानव जगत पर उनकी महाकरुणा, उदारता, कृपालुता का ही एक रूप है। अब यहां तक भी किसी को शायद कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
अब बात प्रथम स्तम्भ “आत्मा” की, आत्म तत्त्व की। भगवान बुद्ध ने अपने जीवनकाल में सदा इन दार्शनिक प्रश्नों पर कभी भी अपना दृष्टिकोण नहीं रखा और इनके उत्तर में प्रायः मौन ही रहे। मौन रहना ‘न खुला समर्थन है, ‘न खुला विरोध’। वे शाश्वतवाद और उच्छेद्वाद जैसे दो परस्पर विरोधी विचारधारों से सहमत नहीं थे और मध्यम मार्ग के पक्षधर थे। अब प्रश्न यह है कि उच्छेद, विनाशी तत्त्व का पुनर्जम तो हो नहीं सकता, यह तो तभी सम्भव है जब परमतत्व को अजर, अमर, अविनाशी माना जाये। क्या यह इस बात को सिद्ध नहीं करता कि वे एक अविनाशी अमृत तत्व में विश्वास करते थे। तात्कालिक परिस्थितियों में कहीं अपरपक्व जनमानस पुनः उन्ही कुप्रथाओं, कुरीतियों मे पुनः न जकड़ जाए जिससे मुक्त कराने, पुनरोद्धार का बीड़ा उन्होंने उठाया था।
आज बोधगया में पितृ तर्पण का प्रथम श्राद्ध/पिण्ड दान बोधगया स्थित भगवान बुद्ध की प्रतिमा के सामने बने दिव्य सरोवर के तट पर ही संपन्न होता है। मैने स्वयं सपरिवार अपने पूर्वजों का प्रथम पिंडदान इसी दिव्य सरोवर तट पर किया है। वहां फोटो नहीं लिया जा सकता, साधकों के लिए प्रतिबंधित है, तथापि फोटोग्राफरों और मीडिया कर्मी अपार साधकों की भीड़ का चित्र समाचार पत्रों में चर्चा और कौतूहल का विषय बना रहता है। यह दृश्य सबकुछ खोल देता है, हां देखने के लिए पवित्र दृष्टि चाहिए। उत्तर मिल जाएगा।
डॉ जयप्रकाश तिवारी
लखनऊ, उत्तर प्रदेश
94533 91020