प्रकाश पर्व पर विशेष : द विजनरी – गुरु गोबिंद सिंह

आज (6 जनवरी) गुरु गोबिंद सिंह का प्रकाश पर्व अर्थात जन्म दिन है। भारतीय इतिहास में ऐसे महान पुरुष दशमेश गुरु गोबिंद सिंह जी का नाम अमिट है। उनका जन्म गीता के उस कथन का समर्थन करता है, जिसके अनुसार जब जब संसार में अत्याचार और अन्याय बढ़ जाता है, पाप प्रधान हो जाता है, तो ईश्वर या उसका अंश किसी महापुरुष के रूप में अवतरित होकर मुक्ति दिलाता है। देश, धर्म और मानवता के लिए आजीवन संघर्ष करने वाले गुरु गोबिंद सिंह इसी प्रकार अवतरित पुरुष थे। सभी प्रकार के भेदभावों से परे संत, सिपाही गुरु गोबिंद सिंह सिख धर्म के लिए नहीं अपितु पूरी मानवता के लिए ज्योति पुंज थे। उनके व्यक्तिव के संबंध में कबीर का यह कथन सत्य प्रतीत होता है-

“सुरा सोई पहचानिए जो लड़े दीन के हेत
पुरजा पुरजा कट मरे , कबहुँ न छाड़े खेत”

गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म वर्ष 1666 में बिहार की राजधानी पटना में हुआ।

“तही प्रकाश हमारा भयो
पटना शहर भव लयो”

उनके पिता का नाम गुरु तेग बहादुर और माता का नाम माता गुजरी था। उनके बचपन का नाम गोबिंद राय था। गुरु गोबिंद सिंह जी पटना में पांच की अवस्था तक रहे। उसके बाद अपने पिता के बसाए नगर आनंदपुर में रहने लगे। बालक गोबिंद राय के पूर्ण विकास के लिए पिता द्वारा शिक्षा की समुचित व्यवस्था की। उन्हें पंजाबी, फारसी तथा संस्कृत की शिक्षा दिलाने के लिए अलग अलग शिक्षक नियुक्त किए गए। सैनिक शिक्षा देने के लिए राजपूत सैनिक बाज सिंह को नियुक्त किया गया। आनंदपुर साहिब में रहकर उन्होंने लगभग 18 वर्ष तक शस्त्र शास्त्र की शिक्षा द्वारा अपना शारीरिक और मानसिक विकास किया।

उनके बाल्य काल की प्रमुख घटनाएं उनके महान भविष्य की और संकेत करती हैं। नवाब की सवारी के सामने न झुकना उनकी निर्भीकता का प्रमाण है। दूसरी प्रमुख घटना उस समय की है जब मुगलों के दमन चक्र से भयभीत होकर कुछ कश्मीरी पंडित उनके पिता से सहायता मांगने आए थे। पिता को चिंतित मुद्रा में देखकर बालक ने उन्हें कर्त्तव्य बोध कराया कि उनसे बढ़कर कौन महापुरुष हो सकता है। पुत्र का उत्तर सुनकर पिता फुले नहीं समाए। जब बालक गोबिंद राय केवल 9 वर्ष के थे तो चांदनी चौक दिल्ली में उनके पिता का सिर त्याग की बलिवेदी पर समर्पित हुआ। हालांकि आत्मशक्ति को प्राप्त करने के लिए ध्यानावस्था में रहने लगे। लेकिन उपासना को ही उन्होंने लक्ष्य नहीं बनाया। अपितु धर्म ध्वजा की रक्षा करने के लिए निरंतर संघर्ष करने लगे।

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मुगल सेना के साथ सन् 1704 ई में आनंदपुर साहिब में युद्ध हुआ। जो बहुत लंबे समय तक चला और किले में खाद्य सामग्री का अभाव होने पर भी गुरु जी व उनके वीर सिपाही डटे रहे। कुछ सिखों ने उनका परित्याग भी कर दिया। लेकिन बाद में वे अपना बलिदान देकर चालीस मुक्ते कहलाए। आनंदपुर का किला छोड़ने पर चमकौर गढ़ी में फिर सेना का सामना हुआ और गुरु जी को अपने दो साहिबजादे (अजीत सिंह व जुझार सिंह) खोने पड़े। उनके दो और साहिबजादे (जोरावर सिंह व फतेह सिंह) को मुगल सेना ने दीवार में चुनवा दिए। लेकिन महान उद्देश्य से विचलित नहीं हुए। अपने शिष्यों को संगठित करने के लिए उन्होंने सन 1699 के वैसाखी के दिन खालसा पंथ की स्थापना की। जिसका उद्देश्य जातिप्रथा के भेदभाव को मिटाना तथा धर्म को नई दिशा प्रदान करना था।

गुरु जी अपने बहुमुखी व्यक्तित्व से अपने युग को नई दिशा प्रदान की। गुरु जी निष्ठावान, धर्म प्रवर्तक, सशक्त समाज सुधारक, क्रांतिकारी, लोकनायक, साहसी योद्धा और आशावादी राष्ट्र नायक थे। सेवा त्याग सदाचार के द्वारा सत्य की उपलब्धि को जीवन का चरम लक्ष्य मानने वाले सिखों में उन्होंने वीर भावना का संचार किया तथा स्वयं अन्याय और अत्याचारों के विरुद्ध युद्ध करते रहे।

उनकी कामना थी-

“देहि शिदा वर मोहि इहै, शुभ कर्मन ते कबहु न टरों
न इरो अरि सौ, जब जाय तरी निसचै कर अपनी जीत करो
अरु सिखहो अपने ही मन को यह लालच हो मुख तौं उचरौ
जब भाव की औध निदान बनै अति ही रण में जब जुझ मरौ”

उनके व्यक्तिव का एक पक्ष उनका कवि रूप भी है। शरीर पर्वत के समान कठोर लेकिन हृदय में दया का झरना बहता था। भारतीय संस्कृति से संबंधित अनेक ग्रंथों की रचना करवाई। उन्होंने स्वयं भी काव्य की रचना की और उनका काव्य दशम ग्रन्थ के नाम से प्रसिद्द है जिसमें जाप साहिब, अकाल स्तुति, विचित्र नाटक, चौबीस अवतार, चंडी चरित्र, चंडी दी वार आदि रचनाएं संकलित हैं।

उन्होंने पंथ को सुदृढ़ ही नहीं किया। अपितु गुरुमता भी दी। उनकी गुरुमता के दो प्रसंग अत्यंत प्रसिद्ध हैं। जब कन्हैया ने आनंदपुर के युद्ध में सिखों के अतिरिक्त शत्रुओं के सैनिकों को भी पानी पिलाया। तो गुरु जी ने उन्हें अपना सच्चा शिष्य मानकर गले लगाया। हालांकि गुरु जी के सभी चारों पुत्र शहीद हो गए। तब भी उनकी पत्नी ने पूछा तो उन्होंने शांत होकर कहा-

“इन पुत्रन के सीस पर वार दिए सुत चार
चार मुए तो क्या हुआ, जीवित कई हजार”

समस्त मानव जाति के प्रति उनमें अपार प्रेम था। लंगर प्रथा का सूत्रपात कर उन्होंने सामाजिक विषमता को मिटाने का प्रयास किया। उनकी अरदास लोक मंगल की कामना थी। वे सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक किसी भी प्रकार के शोषण और अत्याचार के प्रबल विरोधी थे। उनका उपदेश, धर्म यही था कि समस्त मानव जाति एक हैं-

“मानस की जाति सधै एकै पहिचानवो
दूसरा न भेद कोई भ्रम मानवो”

डंके की चोट पर कह सकते हैं-

“द विजनरी: गुरु गोबिंद सिंह सिंह”

– दर्शन सिंह मौलाली हैदराबाद

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