एक दौर था, जब गली-मुहल्ला ही नहीं, घर-आँगन भी बच्चों के खेलों और उनकी चिल्ल-पों से भरा रहता था। कहीं लट्टू, कंचे, तो कहीं चष्टांग-अष्टांग, गिल्ली-डंडा, स्टापू, रस्सी, चोर-पुलिस, मंत्री सिपाही और शतरंज आदि शारीरिक एवं मानसिक खेलों का जमावड़ा लगा रहता था। तब बाल जीवन में बोरियत शब्द का कोई स्थान नहीं था। बच्चे सीमित सुविधाओं में भी खुलकर जीना जानते थे,पर आज जीवन में अनेक सुविधाओं के होते हुए भी बालमन उबाऊ और नीरसता का अनुभव कर रहे हैं। इसी उबाऊ और नीरसता को दूर करने एवं बाल अधिकारों के प्रति सबको जागरूक करने का एक बेहतरीन प्रयास ‘पोशम्पा’ पुस्तक है। इसके जरिए जनमानस और सरकार को बताया गया है कि, बाल अधिकारों का सरंक्षण अवश्य किया जाए।
साहित्य अकादमी मध्य प्रदेश से अभा स्तर पर पुरस्कृत और साहित्य संग सामाजिक कार्यों में योगदान देने वाले इंदौर के लेखक अजय जैन ‘विकल्प’ के सम्पादन में ‘पोशम्पा’ पुस्तक का आकार प्राप्त कर पाई है। यह काव्य संग्रह पत्रकारिता एवं जनसंचार अध्ययनशाला (देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर) तथा ‘यूनिसेफ’ के सहयोग से सबको सचेत करने की दिशा में अभियान के रूप में हिन्दीभाषा.कॉम द्वारा प्रकाशित की गई है।
‘पोशम्पा’ की यात्रा सम्पादक की वाणी से आरंभ होती है। ‘पोशम्पा’ साहित्य अकादमी म.प्र. के निदेशक डॉ. विकास दवे, महाराष्ट्र साहित्य अकादमी के अध्यक्ष शीतला प्रसाद दुबे, ‘वसुधा’ पत्रिका (कनाडा) की सम्पादक डॉ. स्नेहा ठाकुर, देवी अहिल्या विश्वविद्यालय की कुलपति प्रो. रेनू जैन, राष्ट्रीय बाल साहित्यकार डॉ. दिविक रमेश (नोएडा) सहित अनेक वरिष्ठ साहित्यकारों की शुभकामनाओं एवं अभिनंदन से फलीभूत है।
इस संकलन (मूल्य-१५० ₹, पृष्ठ संख्या-१०४ (पेपर बैक), प्रकाशक-लक्ष्मी प्रकाशन, दिल्ली-बनारस) को कुल ३४ कवियों की एकल कविताओं से रचाने का प्रयास किया गया है। बच्चों को प्रोत्साहित एवं मार्गदर्शित करने वाले सरल शीर्षक जैसे ‘करो मनन’, ‘क्या ये उनका अधिकार नहीं’, ‘सर्वप्रथम अधिकार इन्हीं का’, ‘नई कहानी’, ‘कैसे देश बढ़ेगा आगे’, ‘छोटे बच्चे और समाज के दायित्व’, ‘शोषण से है बचाना’, ‘अब तो मुनिया खूब पढ़ेगी’, ‘चाहिए अधिकार’ आदि संकलित किए गए हैं, किन्तु बालमन और उसके अधिकार की पूर्ण गम्भीरता को दिखाया गया है। बात करें रचनाओं की, तो मुम्बई की बाल कवयित्री शर्विल सावंत की रचना में प्रतीकात्मकता द्रष्टव्य होती है-
“खिलौनों से खेलने की उमर,
पर बांधी इन्होंने ईंटों से कमर
राहत माँगे कर इनके,
तो क्या ये उनका अधिकार नहीं?”
इसमें बालमन के अधिकारों की बात कितनी सहजता से व्यक्त की गई है, समझा जा सकता है। कवयित्री वर्तमान स्थिति को व्यक्त कर संपूर्ण समाज को सोचने पर विवश करती है। माँ की लोरी हो या कहानी, सदा अपनत्व देती है और माँ से जुड़े रहने का एहसास कराती है। यही बात सुरेन्द्र सिंह राजपूत ‘हमसफर’ लिखते हैं-
“गीत एक मीठा सा गाकर,
परी लोक ले जाओ न।
अम्मा एक नई कहानी,
मुझको आज सुनाओ न..॥”
बच्चों को सदा से राजा-रानी, परियों आदि की कहानियाँ प्रिय होने के साथ सुनना भी रोचक लगता है। सुरेन्द्र सिंह की पंक्तियों से यही भाव स्पष्ट होते हैं। तारा चंद वर्मा ‘डाबला’ बच्चों को ‘ईश्वर का उपहार’ काव्य में उनके अधिकार की बात करते हुए लिखते हैं-
‘बालक है जग का आधार,
लौटा दो उनका अधिकार
क्यों छीन ली उनकी हँसी,
क्यों मतलबी हुआ संसार?’
उक्त कविता का शब्द-शब्द बच्चों के अधिकार की बात व्यक्त करता है। वास्तव में आज बच्चे मुस्कुराना भूलते जा रहे हैं। न जाने किस दुनिया में पलायन कर रहे हैं हमारे नन्हें बाल। बेटियों की शिक्षा के अधिकार की बात करते हुए कवियित्री डॉ. वर्षा महेश ‘गरिमा’ (मुम्बई) ‘अब तो मुनिया खूब पढ़ेगी’ में लिखती हैं-
‘चूल्हे-चक्की की खटपट से,
चकला-बेलन की लटपट से
चौके में पड़ी जली कढ़ाईयाँ नहीं घिसेगी,
अब तो मुनिया खूब पढ़ेगी।’
इस संग्रह की भाषा बड़ी सहज, सरल एवं प्रभावी है। पुस्तक का मुख्य एवं मलय पृष्ठ रंगीन, आकर्षक और बाल मन को प्रिय लगने वाला है। निश्चित ही यह काव्य कृतियाँ पाठकों को रिझाने वाली है। सभी कविताएँ रोचकता से परिपूर्ण हैं। कहीं-कहीं भाषागत मानक त्रुटियाँ देखने को मिली हैं, हो सकता है कि, प्रकाशक इस तथ्य से अनभिज्ञ हो। बाल प्रधान काव्य संग्रह ने मुझे प्रभावित किया है। सम्पादक तथा सभी रचनाकारों को ढेरों शुभकामनाएँ एवं बधाई। आपकी कलम सदा समाज हित में ऐसा ही सार्थक सृजन करती रहे, यही शुभेच्छाएँ।
समीक्षक – डॉ. पूजा अलापुरिया ‘हेमाक्ष’ मुंबई (महाराष्ट्र)