1. जितनी आसानी के साथ एक मुस्लिम लड़की अपने हिजाब के बारे में बात कर लेती है, तो उतनी ही आसानी के साथ एक हिंदू लड़की अपने घूंघट, सिंदूर, दुपट्टा, साड़ी, पायल, बिछुआ आदि के बारे में बात क्यों नहीं कर पाती है? क्यों अपनी संस्कृति को अपनाने में हमें संकोच होता है?
2. जितनी आसानी से इस्लाम को मानने वाले कह देते हैं कि अल्लाह ही दुनिया का रखवाला है, को उतने आत्मविश्वास के साथ हिंदू लड़की क्यों नहीं कह पाती कि शिव, राम, कृष्ण मेरे और सम्पूर्ण संसार के रखवाले हैं? क्यों नहीं एक हिंदू लड़की या लड़का यह कह पाते हैं कि कृष्ण कोई आवारा लवर नहीं थे। रास लीला को हम बहुस्याम का अर्थात हरेक आत्मा को कृष्ण रूपी परमात्मा मिलेंगे का संदेश देता है। शिव ने पार्वती का शव लेकर तांडव किया तो समझिए इसमें एक पति का प्रेम छिपा था। विवाह ऐसे प्रेम के बिना तो अर्थहीन है। परमेश्वर भूल गए अपना ईश्वरत्व भी पत्नी वियोग में यही तो वैवाहिक जीवन की चरम पराकाष्ठा है। पर न तो किताबें हमें ऐसा विश्लेषण देती हैं और न माता-पिता के पास इन विश्लेषणों के लिए समय है। फिर एक बच्चा अपने धर्म की सही जानकारी कैसे प्राप्त कर सकेगा?

3. ऐसा क्या कारण है कि दूर कहीं दूबई में चांद निकलता है और सम्पूर्ण विश्व के इस्लामिक अनुयायी ईद मनाने को तैयार हो जाते हैं। लेकिन होली, दिवाली, दशहरा, करवाचौथ आदि किसी भी त्योहार को लेकर कोई एकता नहीं देखी जाती? एकता नहीं है। तिथि को लेकर एक मुद्दा है। दूसरा मुद्दा यह भी कि हरेक हिंदू उत्सव का महत्वपूर्ण अंग कान फोड़ू डीजे संगीत बन गया है। इसकी क्या आवश्यकता है?
4. ऐसा क्यों है कि शालिनी को शादी के लिए साफिया बनना ही पड़ता है। धर्मांतरण करके फिर भी शालिनी की आंखें नहीं खुलती जबकि बात तो सही है साफिया शालिनी के रूप में क्यों किसी घर में नहीं मिलती? (बिल्कुल नहीं मिलती यह नहीं कहा जा सकता अपवाद है और यह भी कि साफिया को शालिनी बनने पर नया घर मिलता है नया बॉर्डर नहीं)।

5. ऐसा क्यों कि हम किसी के इबादत के तरीके पर तो प्रश्नचिन्ह लगाने को तैयार हैं, लेकिन अपने घर में हम ठीक से शंखनाद नहीं करते, भावी पीढ़ी को शंखनाद करना नहीं आता क्योंकि हम उनको नहीं सीखाते हैं। क्या गीता पाठ हमारे घर में होता है? गीता के कितने श्लोक हमारी भावी पीढ़ी को पता है? भावी पीढ़ी को धोती, कुर्ता, पजामा, लहंगा, सलवार नहीं पता। हमारी भावी पीढ़ी को नहीं पता कि मंदिर कैसे कपड़े पहनकर जाना चाहिए। क्योंकि आज हम स्त्री विमर्श के नाम पर रजस्वला स्त्री मंदिर क्यों नहीं जाएगी? स्त्री विवाह के बाद पिता के उपाधि का प्रयोग क्यों नहीं करेगी? ऐसे उल जुलूल के सवालों के जवाब खोजने में व्यस्त हैं और हमारे नाक के नीचे से आतंकवादी हमारी बच्चियों को लव जिहाद के जाल में फांस रहे हैं तो बेटों को जिंदा मानव बम बनाकर उन्हें धर्म के नाम पर रक्तपात करनेवाले राक्षस बना रहे हैं।
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6. THE KERLA STORY देखकर किसी धर्म को दोष देने के बजाय अगर हम अपने-अपने धर्म की सही परिभाषा अपने घर में अपने बच्चों को देने के बारे में सोचना शुरू करेंगे तो हम रोज़ी, शालिनी, साबिया, रहीम, अब्दुल, जेम्स आदि सभी नामों के बच्चों को आतंकवाद से बचा सकेंगे। न तो अंतर्जातीय विवाह गलत है, न अंतर्धर्मीय विवाह गलत है पर हां ऐसा प्रेम, ऐसा विवाह अवश्य गलत है जो आपको केवल शैय्या तक ले जाने की बात कहता हो, आपसे नग्न तस्वीर मांगता हो, परिवार से दूर करने की बात कहता हो सचेत मस्तिष्क अवश्य सोचेगा ऐसा क्यों ? चेतना का विकास एक दिन में नहीं होता। हमारा बच्चा सबसे अधिक समझदार है। यह सोच लेना माता पिता के हिस्से की गलती है। माता-पिता का धर्म, कर्तव्य होना चाहिए कि वे अपने बच्चे को मानवता का पाठ पढ़ाएं, धर्म की सही परिभाषा समझाएं, क्योंकि वे विश्व को अपने बच्चे के माध्यम से नई पीढ़ी ही तो देते हैं। एक दूसरे को कोसना या एक दूसरे के धर्म को कोसना कभी समस्या का समाधान नहीं हो सकता है। याद रहे- ‘मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना’।

डॉ. सुपर्णा मुखर्जी
हिंदी प्राध्यापिका
भवन्स विवेकानंद कॉलेज
सैनिकपुरी, हैदराबाद