भगवान महावीर जन्म कल्याणक महोत्सव के उपलक्ष्य में विशेष
‘जीओ और जीने दो’ का सिद्धांत
जैन धर्म की मान्यतानुसार इस पृथ्वी पर विचरण करने वाले समस्त जीवों की 84 लाख जीव योनियों में मनुष्य योनि सर्वश्रेष्ठ है। इस दृष्टि से संसार के समस्त प्राणियों की रक्षा करने का दायित्व भी उसी का है। परन्तु विडम्बना यह है कि आज मनुष्य ही उन सब प्राणियों के जीवन का भक्षक बन गया है। आज मानव जाति की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है और अन्य जीवों की प्रजातियां विलुप्त होती जा रही हैं। अतः आज भगवान महावीर के सिद्धांत ‘परस्परोग्रहो जीवानाम्’ अर्थात् ‘जीओ और जीने दो’ की उपादेयता और बढ़ गई है।
भगवान महावीर ने अपने पूर्ववर्ती तीर्थंकरों की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए साधु-साध्वियों के लिए पांच महाव्रतों और श्रावक-श्राविकाओं के लिए अणुव्रतों के पालन पर जोर दिया। उनके द्वारा प्रदत्त सिद्धांत जितने उस युग में प्रासंगिक थे, उतने ही आज़ भी हैं। मुख्य रूप से ये पांच सिद्धांत हैं – अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह।
हमें छ: काय के जीवों की हिंसा से, किसी के बारे में बुरा सोचने से बचना चाहिए। सदैव सत्य बोलें अर्थात् बोलते समय अपने विवेक को जागृत रखें। अपनी अज्ञान अवस्था से बाहर आकर जब हम अपने शुद्ध आत्मिक स्वरुप को ही ‘मैं व मेरा’ मानते हैं तभी भगवान द्वारा प्रदत्त अचौर्य के सिद्धांत का पालन होता है।
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शरीर-मन-बुद्धि को ‘मैं’ मानने की धारणा से बाहर निकलने के परिणामस्वरूप शारीरिक साहचर्य की चाहतों का मिटना, इस अवस्था को हम ब्रह्मचर्य मान सकते हैं। जो स्व स्वरुप के प्रति जागृत हो जाता है और शरीर-मन-बुद्धि को अपना न मानते हुए जीवन व्यतीत करता है, उसकी सम्पूर्ण दिनचर्या संयमित दिखती है, जीवन की हर अवस्था में अपरिग्रह का भाव दृष्टिगोचर होता है तथा उस भव्यात्मा का भगवान महावीर के पथ पर अनुगमन होता है। हमें वस्तुओं के अपरिग्रह के साथ-साथ विचारों के अपरिग्रह का भी ध्यान रखना चाहिए।
जागृत अवस्था को प्राप्त हुए मनुष्य सर्व समावेशी मानसिकता धारण करते हुए विचारों के आग्रह का त्याग करते हैं। वे भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित अनेकांतवाद व स्याद्वाद के सिद्धांत को हृदयंगम करते हुए सभी के विचारों का सम्मान करते हैं। वे मानते हैं कि कोई भी विचार परम या संपूर्ण नहीं हो सकता क्योंकि केवल शुद्ध चैतन्य स्वरुप ही परम व संपूर्ण है जिसे विचारों के पार जाकर ही अनुभव किया जा सकता है। इस प्रकार जैन धर्म के ये 5 सिद्धांत जीवनयापन की ऐसी शुद्ध शैली प्रदान करते हैं, जिससे हम मोक्ष मार्ग की ओर अग्रसर हो सकें, अपना आत्म-निरीक्षण करते हुए अपने शुद्ध चैतन्य आत्म-स्वरूप तक पहुँच सकें।
-सरिता सुराणा हिन्दी साहित्यकार हैदराबाद