विशेष लेख : हिन्दी साहित्य में सूफी संतों का योगदान

[नोट- 13 अक्टूबर -2024 को युवा उत्कर्ष साहित्यिक मंच की ओर से ‘हिंदी साहित्य में सूफी संतों का योगदान’ विषय पर वर्चुअल सत्रहवीं संगोष्ठी एवं काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया। इस गोष्ठी में विशिष्ट अतिथि के रूप में डॉ जयप्रकाश तिवारी (वरिष्ठ साहित्यकार/समीक्षक/कवि,लखनऊ) ने भी संबोधित किया। यह लेख पठनीय और ज्ञावर्धक है। हमारे आग्रह पर तिवारी जी ने पूरा संबोधन प्रकाशित करने की अनुमति दी है। हम लेखक के प्रति आभारी है।]

साहित्य में जब परमसत्ता की चर्चा और उसका गायन हो तब वह साहित्य “सन्त साहित्य” की संज्ञा से अभिहित होता है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल या संतकाल को “हिंदी साहित्य का स्वर्णकाल” कहा जाता है। भक्तों ने सनातन चिंतन के परमतत्त्व के रूप में वेदान्त की परिभाषिक शब्दावली में परमतत्त्व “ब्रह्म” की सत्ता को एकम अद्वितीयम रूप में स्वीकार किया तथा निर्गुण और सगुण स्वरूप को उस एक ही तत्व के दो पार्श्व स्वीकार किया – ब्रह्म …परम् चापरम् च। भक्तों ने “संत साहित्य” में इसी मूलसत्ता का यशोगान, गुणगान किया, इसी “रूप – लीला – गुण – धाम” की स्तुति, वर्णन और गायन ही साहित्य की काल की दृष्टि से “भक्तिकाल”, या “संत साहित्य” की संज्ञा से प्रसिद्ध हुआ। इस संत साहित्य के विकास, पल्लवन में “सूफी संतों” का भी अतुलनीय योगदान है। सूफियों ने भी इस परमसत्ता को अल्लाह, खुदा कहते हुए भी उसे सातवें आसमान पर बैठा हुआ न मानकर वेदांत की भांति कण-कण में सर्वत्र परिव्याप्त और परमसूक्ष्म भी माना, वेदांत के – “ईशावास्य इदं सर्वम”, “सर्वम खलु इदम ब्रह्म” की भांति। सूफी संत यारी साहब की अनुभूति में सनातन संस्कृति के स्पष्ट प्रभाव और सादृश अनुभूति का अनुभव किया जा सकता है –
हमारे एक अलह प्रिय पियारा है। घट घट नूर मुहम्मद साहब जाका सकल पसारा है।
झिलमिल झिलमिल बरसे नूरा, नूर जहूर सदा भरपुरा।
रुनझून रुनझून अनहत बाजे भंवर गुंजार गगन चढ़ि गाजे।
रिमझिम रिमझिम बरसे मोती भयो प्रकाश निरंजन ज्योति।

स्पष्ट है, दूसरे मजहब “इस्लाम” से उद्भूत, सूफीमत अरब देशों से भारत भूमि में आकर, यह “सूफीमत” भारतीय दर्शन, भारतीय संस्कृति और हिन्दी साहित्य का एक लोकप्रिय साहित्य दर्शन बन गया जिसमे इस्लाम की कट्टरता, एकंगता नहीं थी; इसमें उदारता, व्यापकता और प्रेम था, सद्प्रेम के रूप में। चिंतन के क्षेत्र में वेदान्त दर्शन से सूफियों ने अपनी उदारवादी चिंतन को आत्मीयता और अंतरंगता के साथ जोड़ा। सूफियों ने खुदा के लिए “भय” तत्व की प्रधानता के स्थान पर “प्रेम” तत्व की प्रधानता को खुले मन से स्वीकारा। स्वयं को साधक, प्रेमी (बंदा) और खुदा को “साध्य प्रेयसी” रूप में स्वीकार किया। इस प्रेयसी का सानिध्य, उसकी की प्राप्ति, उससे “आध्यात्मिक रमण”, “विलय” ही जीवन का मूल लक्ष्य है। प्रियतमा की दूरी, प्रियतमा से दूरी, वियोग सूफियों को स्वीकार्य नहीं, उनकी प्रेम साधना में प्रेम की उत्कट पिपासा, विरह, तड़प, संवेदना के सर्वोच्च स्तर को संस्पर्श करती हैं, सुनिए भावशब्द –
मुहमद चिनगी प्रेम के सुनि महि गगन डेराई।
धनि विरही और धनि हिया जहें अस अगिन समाई।।

अर्थात वह विरही, वियोगी साधक धन्य है, वह वियोगी दग्ध हृदय धन्य है जिसमे मिलन की यह उद्दीप्त अग्नि की तीव्र ज्वाला प्रज्वलित होकर धधक रही है। सूफी प्रेम साधना में साधक की चार अवस्थाओं का वर्णन मिलता है –
शरीयत = आचरण
तरीकत = उपासना
मारीफत = सिद्धवस्था/फना
हकीकत = सत्यबोध/बका

अरब देशों में यह प्रेम पिपासा प्रवृत्ति लैला मजनू, शीरी फरहाद आदि मानव युगल के रूप में वर्णित है, किंतु भारतीय भू-भाग पर पहुंचते ही इन सूफ़ी संतों ने वेदांत दर्शन से प्रभावित होकर ब्रह्म के निर्गुण और सगुण सिद्धांतो, उनके अवतारी चरित्रों (राम, कृष्ण…) के सनातन प्रतिमानों से इस्लाम को गाया। …और, लौकिक प्रेमी “लैला मजनू” के प्रतिमानों को छोड़कर सूफियों ने “सीता राम” और “राधा कृष्ण” के आध्यात्मिक प्रतिमानों को खूब समृद्ध किया है। देखिए उनके भाव शब्द –
चल जमुना के तीर बाजत मुरली री, काला कृष्ण जी खड़ा जमुना पे,
जिधर खड़ी सब ब्रजबाला
(शाह अली कादर),
जो नर पावे आपको तो नारायण आप, आप बिना नर करता है, आप आपने जाप
(एन बुल्लाशाह),
अब मैं राम राम कहि टेरी…।
मेरे मन लागी उनहीं सीतापति पद हेरो
(तानसेन),
हिंदूं के नाथ तो हमारा कुछ दावा नहीं। जगत के नाथ तो हमारी सुधि लीजिए
(कारे बेग)
और अब सूफी महिला संत ताज का यह बेबाक कथन –
सुनो दिलजनी मेरे दिल की कहानी तुम
दस्त ही विकानी, बदनामी भी सहूंगी में
देवपूजा ठानी मैं, निवाज हूं भूलानी तजे
कलमा – कुरान छाड़े, गुननि गहूंगी मैं।
नन्द के कुमार , कुर्बान तेरी सूरत पे।
हूं तो मुगलानी, हिंदूआनी ही रहूंगी मैं।

अब यहां एक बड़ा प्रश्न है, क्या यह मन परिवर्तन, विचार परिवर्तन या आस्था परिवर्तन, धर्म परिवर्तन जैसी कोई बात है? जी नहीं, दूर दूर तक नहीं। यहां वैचारिक संगति और आध्यात्मिक एकत्व की बात है। सूफी साधना में विकास के क्रम में दो शीर्ष स्थितियों की परिकल्पना है (i) फना होना और (ii) बका होना।

साधना क्रम में फना का अर्थ है विनाश; किसका विनाश? अहंकार, अभिमान, मोह, मद, भौतिकता का विनाश, लोकेषणाओं का विनाश, इस जीवन में ही भौतिक इच्छा, चाह, भोग की मृत्यु है। इसको मोड़ना है, मोड़ने में बढ़ा है तो इसका नाश कर दी। स्वेच्छा को ईश्वरेच्छा बना लो। अब सबकुछ, जो भी है ईश्वरेच्छा ही है, उसी की रजा मे राजी होना है। यह “खुदा के प्रेम में” एक खुदा के अतिरिक्त सर्वस्व का खो जाना, अपनी निजी सर्वस्व चाहत का विनाश है। सूफियों की भाषा मे “मरने से पहले ही मर जाना” है। सनातन संस्कृति में इसका साम्य सन्यास से किया जा सकता है, जहां “सन्यास ग्रहण” से पूर्व समस्त निजी पहचान, उपाधियों को मिटा देना, चोटी कटाकर, अपना नाम, पहचान मिटाकर, नया नाम, नई उपाधि धारण करके अपना अंतिम संस्कार अपने ही हाथों कर लेने का विधान है, यह अपनी काया की “मृत्यु ही है”, इसके बाद ही आध्यात्मिक जन्म या पुनर्जन्म “संन्यासी” के रूप में होता है। काया तो यही रहती है किंतु वह दिव्यता, समता, निर्मलता से भरी हुई सात्विक और सारे कर्म निष्काम और ईश्वरार्पित।

सूफी संत फना के बाद की जीवन यात्रा को बका कहते हैं। यह किसी साधक के पूर्ववर्ती जीवन की मृत्यु और उसका पुनर्जन्म (पुनर्जीवन) है। यह समदर्शिता, समत्व और सृष्टि के कण – कण मे ईश्वतत्व दर्शन है, सर्वत्र खुदा के नूर ही नूर की अनुभूति है। अब क्या फर्क पड़ता है, क्या अन्तर है यदि किसी दिव्य आकृति, दिव्य चरित्र में साधक को अपना इष्ट साध्य दिख गया और वह उसे समर्पित हो गया। “बका” मे दिव्यता को समर्पित जीवन ही साधक जीता है। यह एक “मरजीना” की यात्रा है। फना और बका की स्थिति स्वयं को अस्तित्वबोध और आत्मबोध से जोड़ना है। यहां खुदा के प्रकाश के लिए, शुभत्व के लिए, अशुभ को मिटना पड़ेगा, अब अंधकार, अविद्या, अज्ञान को मरना, मिटना पड़ता है।

सूफियों ने साधना और उपासना के पवित्र क्षणों में यदि “भौतिक दृष्टि” से “लैला मजनू” के रूप में गाया, यदि उसे ही “आध्यात्मिक दृष्टि” से यदि “सीता राम”, “राधे कृष्ण” के रूप में देखा, अनुभूत किया और अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त किया तो इसमें क्या अत्युक्ति? जिसकी दृष्टि मे खुदा की पवित्र नूर हो उसके लिए क्या राम और क्या रहीम? कौन कृष्ण और कौन करीम? सबकुछ ईश्वरमय ही तो है। इसलिए यह श्रद्धा परिवर्तन या धर्म परिवर्तन नहीं, यह पवित्र और सर्वोच्च आध्यात्मिक एकत्व का प्रकाश है। सूफियों की रचने में तीनों ही दृष्टियां (भौतिक, आध्यात्मिक और अलौकिक) पाई जाती है। यही समत्व दृष्टि है गीता की शब्दावली में यह साधक योगी, ज्ञानी की मुक्तावस्था है – * विद्यविनय सम्पने ब्रह्माणे गवि हस्तिनी। शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन:* (5/18) … और भी “स योगी समदर्शिन:” की अवस्था है।

“बका” एक प्रकार से अमरता की स्थिति है क्योंकि अब उसका निवास स्थान खुदा (परमात्मा) ही है। खुदा “प्रिया” से मिलन, सायुज्य योग के लिए तड़प, अंश का अंशी से संयोग, एकत्व अमरता ही है। क्योंकि खुदा या परमात्मा अविनाशी है, अजर, है, अमर है, इसलिए सायुज्य हुआ साधक भी अविनाशी है; चाहे वह संतों का हो या सूफियों का। सागर से मिलकर बूंद भी सागर ही हो गई। अब बूंद की अपनी कोई सत्ता, कोई पहचान नहीं। उपनिषद यही तो कहते हैं – यथा नद्यः स्यांदमाना: समुग्रे अस्तं गच्छंति नामरूपे विहाय। … नाम रूपादि मुक्त: (मुण्डक 3/2/8), तथा प्रश्नोपनिषद (5.5 भी द्रष्टव्य)।

सूफियों ने साधना की इस प्रेमाख्यान परम्परा को बाद में समय के साथ आगे चलकर “ऐतिहासिक चरित्रों”, “घरेलू चर्चित पात्रों” के माध्यम से, इसको साहित्य सृजन के माध्यम से और भी पुष्ट, परिपुष्ट और सुदृढ़ किया। सूफियों की प्रमुख रचनाओं में चांदायन (मुल्ला दाऊद), मृगावती (कुतुबन), मधुमालती (मंझन), हंस जवाहिर (कासिम शाह), इंद्रावती (नूर मुहम्मद) और पद्मावत (जायसी) प्रसिद्ध हैं। ध्यातव्य है कि सर्वाधिक पढ़ा जानेवाला सूफी कालजयी ग्रंथ पद्मावत में सूफी संत मलिक मुहम्मद जायसी ने पद्मावती, रत्नसेन, नागमती, अलाउद्दीन खिलजी आदि ऐतिहासिक प्रतिमानों से हिंदी साहित्य में “प्रेमाख्यान काव्य परम्परा” को अवधी, तथा सहायक भाषा-बोलियो के माध्यम से “सूफी परम्परा” को शिखर बिंदु तक आरूढ़ करा दिया।

प्रतीक विधान:

सनातन संस्कृति ने सृष्टि को आध्यात्मिक प्रतीकों से समझने और समझने का कार्य किया है। कठोपनिषद और गीता में जहां उल्टे लटके हुए अश्वत्थवृक्ष – ऊर्घ्वमूलं अध:शाखम अश्वत्थम प्राहुर अव्ययम… के प्रतीक से सृष्टि विधान को समझने, समझाने को प्रक्रिया दिखती है, वहीं कठोपनिषद मे “रथ” के रूपक द्वारा व्यष्टि शरीर के आध्यात्मिक अवयवो को वर्णित किया गया है – आत्मानं रथिनं विध्दि शरीरं रथमेव तु। बुद्धि तु सारथि विध्दि मन: प्रग्रहमेव च। (1.3.3)। मानस में भी गोस्वामी जी ने इस रथ में आदर्श के सद्गुणों का एक अलग ही रूपक बांधा है – सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका। बल विवेक दम परहित घोरे। क्षमा कृपा समता रजु जोरे (लंकाकांड 79/3)। प्रतीक विधान की यह प्रवृत्ति सूफी संतों ने भी अपनाई, विशेष रूप से जायसी के सुप्रसिद्ध ग्रंथ “पद्मावत” में। वहां जायसी लिखते हैं – तन चितउर, मन राजा कीन्हा। हिय सिंघल, बुधि पदमिनि चीन्हा॥ गुरू सुआ जेइ पंथ देखावा। बिनु गुरु जगत को निरगुन पावा॥ नागमती यह दुनिया-धंधा। बाँचा सोइ न एहि चित बंधा॥ राघव दूत सोई सैतानू। माया अलाउदीं सुलतानू॥ प्रेम कथा एहि भाँति बिचारहु। बूझि लेहु जौ बूझै पारहु॥

स्पष्ट है “पद्मावत कथा विन्यास” मे भी इसी सनातन परम्परा में इन आध्यात्मिक तत्व को प्रतीकों के माध्यम से अपनी बात रखने का सफल प्रयास किया है। ये प्रतीक इस प्रकार हैं –
रानी पद्मावती = बुद्धि
राज्य चित्तौड़ = शरीर
राजा रतनसेन = मन
नागमाती = जगत/संसार
राघव दूत = शैतान
अलाउद्दीन = माया (अविद्या)
हीरामन तोता = गुरु

साधक हृदय में प्रेम की यह चिंगारी गुरु ही डाल पाता है किंतु उसे सुलगाना, प्रज्जवलित करना साधक का कार्य है। गुरु ईश्वर का आभास कराता है किंतु भावना के उत्तरोत्तर उत्कर्ष द्वारा साधक अपने साध्य, प्रेमी अपनी प्रियतमा को प्राप्त कर लेता है। यही मिलन की अवस्था है, यही वियोगी की संयोगवस्था है, साधक साध्य का दिव्य एकत्व है। अंशी मे अंश का विलीनीकरण है। इस रूप मे, इस नए कथानक संदर्भ और आध्यात्मिक दृष्टि से “पद्मावत महाकाव्य” सूफी साधना का ग्रंथ न होकर सनातनी महाकाव्य के सायुज्य और मोक्ष का ही व्यंजक ग्रंथ लगने लगता है।

इस प्रकार यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि “हिन्दी भक्तिधारा” के तीन सुदृढ़ सतंभों (सूर-तुलसी-कबीर) के साथ वैचारिक दृढ़ता से कंधा से कंधा मिलाकर चौथे स्तम्भ और सूफी प्रतिनिधि के रूप में मलिक मुहम्मद जायसी ने हिंदी संत परंपरा, और “भक्तिकाल” को हिंदी का स्वर्णकाल के रूप स्थापित, गौरवांवित करने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई है। यहां यह बात भी उल्लेखनीय है कि गोस्वामी तुलसीदास जी के पूर्व ही अवधी भाषा को लोकभाषा रूप में महत्व दिलाने का प्रयास इन सूफियों को ही दिया जाना चाहिए। आध्यात्मिक सिद्धांत को अवधी भाषा की इस परम्परा में योगदान देने वाले सूफी संतों की साहित्यिक जगत में प्रायः दो कोटियां दिखती है –
(i) जिन्होंने सूफी वेशभूषा और चिंतन दोनों को अपनाया ।
(ii) जिन्होंने वेशभूषा को महत्व नहीं दिया, चिंतन और आचरण को ही दृढ़ता से अपनाया। इन दोनों ही कोटियों के सूफी संतों का योगदान, इनकी उपादेयता और चर्चा के बिना “संत साहित्य” और “भक्ति काव्य” नितांत अधूरा है।

हिंदी भाषा और उसकी विभिन्न बोलियों में प्रेमाख्यान परम्परा पूरी तल्लीनता से गाई गई है और इस गायन मे न केवल इसे शब्द रूप में गाया गया, अपितु व्यवहारिक जीवन में भी दृढ़ता से चरितार्थ किया गया है। “साधक और साध्य”, “बंदे और खुदा” के बीच “निर्मल प्रेम तत्व” को सूफियों ने इतनी तल्लीनता से हृदयंगम होकर सींचा है कि हिन्दी साहित्य की निर्गुण धारा में “प्रेमाख्यान काव्यधारा” नाम से एक नई नवेली, दुलारी, प्यारी परंपरा ही चल पड़ी; जिसे संत साहित्य सूफी संतों, मुस्लिम संतो और भारतीय संतों ने मिलजुल कर गया। … और जुगलबंदी, संगति ऐसी कि प्रेम और प्रेम में विरह भक्ति, प्रेमी के लिए तड़प, प्रणय और सायुज्य की ललक भक्ति का एक निर्मल मानक बनकर भक्तिकाल को हिंदी साहित्य का मुकुटमणि, स्वर्णकाल बना गया।

सनातन और सूफी भक्ति मे अंतर:

अब जहां इतनी साम्यताएं दिखती हैं, वहीं मूलभूत विसंगतियां भी है। सूफियो को दृढ़ विश्वास हैं कि लौकिक प्रेम (इश्क मिजाजी) से अलौकिक प्रेम (इश्क हकीकी) को पाया जा सकता है। विश्वास की इसी दृढ़ता ने सूफियों को प्रेमोन्मत्त बना दिया। इसके मूल में दार्शनिक कारण भी है। इस्लाम पुनर्जन्म को नहीं मानता था, मानव जीवन इस भक्ति के लिए प्रथम और अंतिम अवसर है, इसलिए इसे अभी इसी जन्म में ही खुदा को पाना है, पुनः कोई अवसर नहीं; अभी नही तो कभी नहीं। इस सोच ने सूफियों के प्रेम भाव को उन्मत्त, उग्र कामभाव वाला प्रेमी मादन भाव का बना दिया। वे स्वर्ग सुख, प्रेयसी के कामुक रूप, लावण्य पर मरते हैं, मिलन के आनंद के अति प्यासे हैं।खुदा को जब सृष्टि की इच्छा हुई तो उसने ज्योति का निर्माण किया जिसे नूरे मुहम्मद या नूरे अहमद कहते हैं। खुदा उसपर मुग्ध हो गया, और उसी ज्योति के लिए सृष्टि का सृजन किया –

किन्हेस पुरुष एक निरकारा। नाउं मुहम्मद पुनिउ कारा।
प्रथम जोति विधि तेहि कै साजी। ओ तेहि प्रीति सृष्टि उपराजी।

सनातन भक्तिधारा के प्रेम मे माधुर्य भाव की, शरणागत भाव की प्रधानता है, यहां भाव की मधुरता है, भगवान और भक्त के बीच प्रेम और समर्पण का सुकोमल भाव है माघुर्य भाव है। यह योग दर्शन के दूसरे सोपान “नियम” का पांचवां तत्व है – “ईश्वर प्राणिधान”। ईश्वर प्राणिधान ही विकसित, पल्लवित, पुष्पित होकर पौराणिक ग्रंथों के माध्यम से फल रूप मे सारुप्य, सालोक्य, सार्ष्टि और सायुज्य रूप में वर्णित अमरत्व चाहती है, अमृतत्व चाहती है, पुनर्जन्म नहीं। उसे इस बात का भली प्रकार बोध है कि देह बुद्ध्या तु दासों अहं जीवबुद्धया त्वदंशक:। आत्मबुद्धया त्वमेहवाहमिति मे निश्चिता मति:।। इस बोध के बावजूद भक्तिरस सिक्त सनातनी भक्त साधकों को भगवान श्रीकृष्ण के इस आश्वासन पर अटूट निष्ठा, श्रद्धा और विश्वास है – सर्वधर्मानपरित्यज्य मामेकं शरण व्रज। अहम त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्ष्यिस्यामि मा शुच: (गीता 18/66)। किंतु अनुरोध के साथ इस मोक्ष को स्वीकार नहीं करते। मोक्ष तो भक्तों के चरणों की दासी है, जब चाहे प्राप्त कर ले। इसलिए समर्पित श्रेष्ठभक्त, मोक्ष रूपी कृपा नहीं चाहते; वे भक्त ही बने रहना चाहते हैं – दीयमानं न गृहणंति बिना मत्सेवनं जना: (श्रीमद्भागवतमहापुराण -3.29.13)

सूफी कौन है?

सूफी इस्लाम की एक उदारवादी, सहिष्णु विचारधारा है जो कट्टरवाद को नकार कर एक उदार और सहिष्णु छवि प्रस्तुत करता है। यह एकेश्वरवाद को मानता है। कट्टरपंथ इस्लाम मे जहां खुदा के “भय” की प्रधानता है, वहीं सूफी संतों में “प्रेम/अनुराग” तत्व की प्रधानता है। यहां प्रेम तत्व अध्यात्म और साधना दोनो का अनिवार्य अंग बन गया है। इस चिंतन में मानवीय प्रेम को किसी साधारण प्रेम नहीं, अलौकिक प्रेम के रूप में दर्शाया गया है। अपनी इसी उदारता के कारण सूफियों को स्वदेश में उपालंभ, प्रताणना और कठोर सजा झेलनी पड़ी, उन्हें स्वदेश छोड़ना पड़ा। किंतु भारत भूमि पर आकर वेदांत के ज्ञानदर्शन, भक्तिदर्शन की भांति सूफी साधक को अपनी रूह (आत्मा) को साध्य खुदा (परमात्मा) मे विलीन कर देने की एक सुदृढ़, उर्वरा, समृद्ध, तर्कपूर्ण दार्शनिक पृष्ठभूमि मिली। यहां सूफी परम्परा ने सलोक्य, सरूप्य, सर्ष्टि और सायुज्य की परंपरा से अपने चिंतन को परिपुष्ट करते हुए अपनी प्रेम साधना को इश्कमिजाजी से इश्कहकीकी निर्मल प्रेम, प्रणय, संयोग, एकत्व (सायुज्य) तक की यात्रा पूरी की है।

खुदा का विभिन्न स्वरूप

सूफियों का खुदा सातवे आसमान पर नहीं रहता, वेदांत के ब्रह्म की भांति सर्वत्र कण कण में, यत्र यत्र सर्वत्र व्याप्त है, देखिए सूफियों की विभिन्न अनुभूतियां, विभिन्न एहसास और उद्गार –

हमारे एक अलह प्रिय प्यारा है।
घट घट नूर मुहम्मद साहब जाका सकल पसारा है।

झिलमिल झिलमिल बरसे नूरा, नूर जहूर सदा भरपुरा।
रुनझुन रुनझुन अनहत बाजे भंवर गुंजार गगन चढ़ी गाजे।
रिमझिम रिमझिम बरसे मोती भयो प्रकाश निरंजन ज्योति।

  • यारी साहब

बिछड़या राम सनेही रे
म्हारे मन पछताए ही रे।
बिलखी सखी सहेली रे
ज्यों जन बिन नागर बेली रे।
भरि भरि प्रेम पिलावे रे
कोई दादू आणि मिलाए रे।
वषना बहुत बिसूरे रे
दर्शन के कारण झूरे रे।।

  • वषना जी

काला कृष्ण जी खड़ा जमुना पे
जिधर खड़ी सब ब्रजबाला।
बालपन मे बिराज की जोती
जगावे वो नंदलाला।
लाला नन्द का बाजा के बंशी,
बंशी मे जादू डाला।
डाला जादू मोहन ने,
धर दी गले मे मोहनमाला।

कृष्ण अवतार विष्णु जी के,
नित वे सेव संभू जी के।
शाहअली कहते अब गई,
भ्रांत मन की री, मन की री।।

  • शाहअली कादर

जै सारदा भवानी भारती विद्यादानी महाबकवानी तेहि ध्याव।
सुर नर मुनि ज्ञान तेहि कूं
त्रिभुवन जानि को जानी।
मंगला सुबुद्धिदानी ज्ञान की
निशानी वीणा पुस्तक धारिणी।।

अब मैं राम राम कह टेरी।
मेरे मन लागी उनहीं सीतापति पद हेरो।।

  • तानसेन

कब मिल्सी मैं विरहों सताई नूं ।
आप न आवे, न लीखि भेजे
मट्टी आजे ही लाई नू।।
राते दिन आराम न नैनू
खावे बिराह कसाई नू।।
बुल्लेशाह घृण जीवन मेरा
जीलिंग दरस दिखाई नू।।

  • बुल्लेशाह

कागा सब तन खाइयो,
मेरा चुन चुन खाइयों मांस।
दो नैना मत खाइयो,
मोहि पिया मिलन की आस।।

  • बाबा फरीद

बहुत रही बाबुलघर दुलहिन,
चल तेरे पीर ने बुलाई।
बहुत खेल खेली संगियन संग,
अंत करी लटकाई।।

  • अमीर खुसरो

चित्रकूट में रमि रहे , रहिमन अवध नरेश।
जापर विपति परत है सो आवत एहि देश।

  • रहीम

सुनो दिलजानी मेरे दिल की कहानी तुम
दस्त ही बिकानी बदनामी भी सहूंगी मैं।
देवपूजा ठानी मैं, निवाज हू भूलनी मैं
कलमा कुरान सारे, गुननि गहूंगी में।।

सावला सलोना सिरताज सिर कुल्ले दिए।
तेरे गेह दाग मे, निदाघ है रहूंगी मैं।।
नन्द के कुमार, कुरबान तेरी सूरत पे।
हूं तो मुगलानी, हिंदुआनी ही रहूंगी मैं।।

  • ताज

हिंदून के नाथ तो हमारा कुछ दावा नहीं।
जगत के नाथ तो हमारी सुध लीजिए।।

  • कारे बेग

मानुष हों तो वही रसखान, बसों ब्रज गोकुल गांव के ग्वारन।
जो पशु हों तो कहा वश मेरो, चारों नित नन्द की धेनु मझारन।
पाहन हों तो वही गिरि को जो कियो हरि छत्र पुरन्दर कारन।
जो खग हों तो बसेर करों नित कलिंदी कूल कदंब की डारन।।

सेस महेश गेनेस दिनेश सुरेशहु जाहि निरंतर गावे।
….ताहि अहीर की छोहरियां छछिया भर छाछ पे नाच नचाए।।

  • रसखान

जो नर पावे आपको, तो नारायण आप।आप बिना नर करता है, आप आपनो जाप।।
जो पावै नर आपको तो आप गुसाई।
एक बिना गुरु ज्ञान के नर भोगों त्रय आप।।

  • एन बुल्लाशाह साहब

अस परजरा विरह कर गठा ।
मेघ साम भए धूम जो उठा।
दाधा राहु केतु गा दाधा।
सूरज जरा चांद जरि आधा।

जेहि पंखी के नियर कोई कहे विरह के बात।
सोई पंखी जाई जरि, तरिवर होई निपात।

देही कोयला भई कांत सनेहा।
टोला मांसु रहा नहि देहा।
रकत न रहा विरह तन गरा।
रती रती होय नैनन ढरा।

यह तन जारौ छार कै कहौं कि पवन उड़ाय।
मकु तेहि मारग उडी परे कन्त धरे जहां पांव।

कुहुक कुहूक जस जस कोयल रोई।
रक्त आंसू घुंघुई बन बोई।
जह जह ठाढि होय बनवासी।
तह तह होय घुघुचि कै रासी।

  • मलिक मुहम्मद जायसी

कबीर कौन संत या सूफी?

हिन्दी समलोचकों का एक वर्ग संत कबीर को भी सूफियों मे गणना करता है, किंतु यह उचित नहीं है। क्योंकि (i) सूफी संत खुदा या ईश्वर की प्रेयसी मानते हैं जबकि कबीर सनातन परंपरा में ईश्वर को परमपुरुष (पति परमेश्वर) और स्वयं की स्त्री (प्रेमिका, बधु) मानते है – दुलहिन गावहु मंगलचार मेरे घर आए राजाराम भरतार।

(ii) यह पुरुष “राजाराम” कण कण में व्याप्त है, वही सर्वत्र है। हमारी अंतःगुफा में ही उसका निवास है, वही आत्मा है, अंतरात्मा है। आत्म और परमात्मा मे कोई तत्वतः भेद नहीं, यह तो शुद्ध “वेदांत दर्शन” है। आदि शंकराचार्य यही तो व्याख्या करते हैं – घटे नष्टे यथा व्योमैव भवति स्फूटम। तथैव उपाधि विलये ब्रह्मैव ब्रह्मवित स्वयं (वि.चू.मणि 566)। भेद तो बस इस काया का है। काया ही इस एकत्व मे, मिलन में बाधक है जैसे – जल में कुंभ कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी।
फूटा कुंभ जल जलहि समानी, यह तत कथहु गियानी।

21वी सदी के कवियों पर सूफी प्रभाव

सुना है फकीरों से / किस्मत के अमीरों से / जिंदगी के सफर में / खुशियों का कोई नगर है / जिसकी तलाश में निकले हैं / जाने वो किधर है / जाने वो किधर है।

हैरान हूं तुम्हारे नाम से इतनी मुहब्बत क्यूं है / नहीं आता नाम किसी का जुबान पर/ सिर्फ तू ही तू है / एक मुद्दत से जमाने से बेखबर हूं /ख्वाबों – ख्यालों में शुमार तू ही तू है…/ मुंतजिर हैं निगाहें तुम्हारे दीदार की / तरसती आंखों का दिलकश मंजर तू ही तू है / तुम्हारे तसववुर का साया छाया है इस कदर / बात किसी से भी करूं मुसलसल ख्याल तू ही तू है /नहीं था सुखनवरी से ताल्लुक पहले /
अब हर शेर हर गजल मे शामिल तू है।

तुझमें खो जाऊं, तेरा हो जाऊं / जी चाहता है, तेरी बाहों मे सो जाऊं /… फिर कोई होश ना रहे / तेरी आगोश में मैं में न रहूं / तुझमें समा जाऊं, तेरा हो जाऊं।

तुझमें फिर हो मेरा बसेरा / कोई वजूद ना रहे मेरा / तेरे दिल मे मौजूद मैं /बन जाऊं हर एहसास तेरा / तेरी सांसों की सरगम से / अपनी सांसों की दामन को / एक धुन में बंधकर / बन जाऊं मैं हरदम तेरा / तुझमें हो मेरा बसेरा।

फिर होगी पूरी/ अपनी चाहते अधूरी / कि मिट जायेगी ये दूरी / दिल में मेरे गूंजेगी धड़कने तेरी / तू इतने पास होगा / हाय! क्या वह एहसास जोड़ा / जैसे अमृत में डुबोया / और फिर लहू में घोल दिया / तू जिए मुझमें और मैं तुझमें पिया / तू मुझमें और मैं तुझमें पिया।

  • अजय देवगिरे (1989)

कसमें / दीवानों को रोक सकती हैं / दीवानापन नहीं / दीवारें जिस्मों को रोक सकती हैं / अहसास नही / समय मौसम बदल सकता है / प्रेम नहीं।

  • आनन्द द्विवेदी (1968)

मैने पाला है इक गम / छिपा के दुनिया की नजर से / हंसता रहता हूं कभी खुद पे / कभी इस हैं पे / जब तेरी सूरत की याद मुझे छेड़ती है / आंसू आ जाते हैं आंखो मे…।

  • जैस्बी गुरजीत सिंह (1964)

चलते चलते थक गई हूं…/ इक उम्मीद तेरे आने की/ मैं उसमे जलाऊं अपने दिन और रात/ किसी से मत कहना…/ मैं यूं ही बैठी रही तेरी दहलीज पर/ कब, किसदिन टूटी नीलम की आस / किसी से मत कहना..।

गाती हूं गजल/ लेकिन गुनगुनाती हूं ये गीत, बस तुम्हारे लिए/ मेरी आंखों का सुहाना ख्वाब है तू/ लेकिन आंखों में कटेगी हर रात/ बस तुम्हारे लिए…/ आज आग मेरी नस नस में लगाओ / तो नींद आ जाए / आगोश मे अपनी सुलाओ / तो नींद आ जाए।।

  • नीलम पुरी(1962)

जाने क्यों रात दिन अनजाने सपने सजाती हूं / आंख खुलते ही खुद से तुझे दूर पाती हूं / रोम रोम बसे हो जेहन में तुझको पाती हूं / नजरों का धोखा है? पर मैं विश्वास कर जाती हूं..।

  • मुकेश गिरि गोस्वामी (1982)

इस प्रकार निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि भक्तिकाल के विकास और उसे हिंदी साहित्य का स्वर्णकाल बनाने मे सूफियों का महत्वपूर्ण योगदान है।

डॉ जयप्रकाश तिवारी
बलिया/लखनऊ, उत्तर प्रदेश

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