राजनीति में होने वाले घटनाक्रम कुछ नेताओं की कुंडली बदल देते हैं। यह कल्वकुंट्ला चेंद्रशेखर राव (केसीआर) के विषय में स्पष्ट रूप से साबित हुआ है, जिन्होंने तेलंगाना राज्य के गठन के बाद पहले मुख्यमंत्री के रूप में कार्य किया और रेवंत रेड्डी, जिन्होंने दूसरे मुख्यमंत्री के रूप में कार्यभार संभाला है। संयुक्त आंध्र प्रदेश में दूसरी बार मुख्यमंत्री का पद संभालने वाले चंद्रबाबू नायुडू ने केसीआर को अपने मंत्रिमंडल में न लेकर अलग रखा। इससे नाराज होकर केसीआर ने डिप्टी स्पीकर का पद छोड़ दिया और तेलंगाना आंदोलन शुरू कर दिया। केसीआर ने तेलंगाना आंदोलन को जन आंदोलन में बदल दिया और तेलंगाना के पहले मुख्यमंत्री बन गये। एक राय यह भी है कि अगर चंद्रबाबू ने केसीआर को अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया होता तो पृथक तेलंगाना का गठन नहीं होता।
अब कांग्रेस सरकार के मुखिया और तेलंगाना के दूसरे मुख्यमंत्री के रूप में रेवंत रेड्डी ने शपथ ली है। कुछ ही समय में इस स्तर तक पहुंच गए हैं। इसके लिए केसीआर ही परोक्ष रूप से जिम्मेदार है। 2014 के चुनावों के बाद, एमएलसी चुनाव के दौरान तत्कालीन मुख्यमंत्री केसीआर की कुटिल रणनीति के तहत रेवंत रेड्डी को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया था। अपनी इकलौती बेटी की शादी के अवसर पर रेवंत रेड्डी एस्कॉर्ट जमानत पर बाहर आये और तुरंत फिर से जेल गये। अगर ये घटना नहीं हुई होती तो रेवंत रेड्डी को इतनी प्रतिकार की भावना नहीं होती। उनकी बेटी की शादी को भव्य तरीके से आयोजित करना असंभव बना दिया और उस दिन की घटनाओं को एक अवसर में बदल दिया। उन्होंने तेलुगु देशम पार्टी से इस्तीफा दे दिया और कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए। उनके आक्रामक स्वभाव और वाकपटुता से प्रभावित होकर राहुल गांधी ने उन्हें पदोन्नति देते हुए टीपीसीसी का अध्यक्ष नियुक्त किया।
तेलंगाना टीपीसीसी अध्यक्ष के रूप में रेवंत रेड्डी ने अपनी विश्वरूप दिखाई है। केसीआर की व्यूह रचनाों से पतन की ओर जा रही कांग्रेस पार्टी में रेवंत ने प्राण फूंक दिये। इस पृष्ठभूमि में, इधर भारतीय राष्ट्र समिति और उधर भारतीय जनता पार्टी द्वारा की गई रणनीतिक गलतियों के साथ केसीआर के विकल्प के रूप में लोगों ने कांग्रेस पार्टी को पहचाना और समर्थन किया। साथ ही लोगों ने रेवंत रेड्डी के नेतृत्व की सराहना की। ताजा चुनाव में कांग्रेस पार्टी को बहुमत मिलने के बावजूद रेवंत रेड्डी को मुख्यमंत्री बनने से कुछ ताकतों ने दो दिनों तक रोकने की कोशिश की। कुछ नेता जो अपने निर्वाचन क्षेत्र से परे पड़ोसी निर्वाचन क्षेत्र में पार्टी उम्मीदवारों को जिताने की कोशिश भी नहीं कर सके, उन्हें मुख्यमंत्री पद के दावेदार के रूप में प्रचारित किया गया। स्वाभाविक रूप से केसीआर एंड कंपनी को रेवंत रेड्डी का मुख्यमंत्री बनना पसंद नहीं है। आश्चर्य की बात है कि आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी भी नहीं चाहते कि रेवंत रेड्डी मुख्यमंत्री बनें। जगन के मन में क्या है, यह समझकर भाड़े का मीडिया तुरंत मैदान में उतर आया और यह प्रचार करने लगा कि मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की समस्या जटिल हो गई है।
राहुल गांधी ने वास्तविक नतीजों से पहले कांग्रेस के सत्ता में आने पर रेवंत रेड्डी को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला किया है। कुछ नेताओं को इस बात की जानकारी है या नहीं, लेकिन कांग्रेस के कुछ विधायक सीएम बनने की आस में दिल्ली गये। भाड़े की मीडिया ने अपनी भूमिका निभाई। ऐसे समय में राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के आवास पर गए और स्पष्ट कर दिया कि मुख्यमंत्री के रूप में रेवंत रेड्डी के नाम की घोषणा बिना किसी शोर-शराबे के शाम तक की जानी चाहिए। इसके बाद, भट्टी विक्रमार्क और उत्तमकुमार रेड्डी, जिन्होंने मुख्यमंत्री पद की आशा रखने वाले उनके बगल में बैठे और पार्टी के महासचिव केसी वेणुगोपाल ने मुख्यमंत्री के रूप में रेवंत रेड्डी के नाम की घोषणा कर दी। आख़िरकार, रेवंत रेड्डी को मुख्यमंत्री का पद मिल गया, जिसका उन्होंने लक्ष्य रखा था। यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि तेलंगाना की राजनीति में इतनी तेजी से उभरने वाला कोई दूसरा नेता नहीं है। क्या रेवंत रेड्डी उनमें इतना जुनून और दृढ़ता पैदा करने के लिए केसीआर के प्रति आभारी होंगे या नहीं यह अलग बात है।
चंद्रबाबू नायुडू के विषय में भी केसीआर ने इतनी कृतज्ञता नहीं दिखाई और उल्टे दुश्मनी बढ़ा ली। वैसे भी रेवंत रेड्डी को जो मनचाहा पद मिला है। अब से उनका सफर कैसे रहेगा? अब सामने क्या चुनौतियां हैं? यह अब बहस के विषय हैं। रेवंत रेड्डी के आक्रामक स्वभाव और वाकपटुता के बारे में बहुत से लोग जानते हैं, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि वह एक गहरे स्वभाव के भी इंसान हैं। वह पहले ही तय कर लेते हैं कि कब क्या करना है। मुख्यमंत्री के तौर पर क्या करना है, इसकी स्क्रिप्ट भी उन्होंने तैयार कर ली है। संक्षेप में कहा जाये कि रेवंत रेड्डी दिखने में छोटे है, लेकिन बुद्धिमत्ता में मोटे हैं। चूंकि कांग्रेस पार्टी को केवल बहुमत ही मिला है, ऐसे में उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती सभी विधायकों के बीच तालमेल बिठाकर आगे चलने की है। पिछले साढ़े नौ सालों में बिना किसी लज्जा के अनेक नेता दलबदल हुए हैं। ऐसे नेताओं को सत्ता के बिना विपक्ष में रहना बेकार दिखने लग गया है। इसके साथ ही ऐसे नेता भी हैं जो अपनी ही पार्टी में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नजर गड़ाए हुए हैं। ये नेता कभी भी बगल में नश्तर बन सकते हैं। कडियम श्रीहरि के मुताबिक, अगर बीजेपी और मजलिस पार्टी के सदस्यों को शामिल कर लिया जाए तो केसीआर की ताकत 54 हो जाएगी। अगर सीपीआई सदस्यों को शामिल कर लिया जाए तो कांग्रेस की ताकत सिर्फ 65 है।
तात्पर्य यह है कि यदि छह-सात विधायक एकजुट हो जाये और बाजू की तरफ देख लें तो सरकार गिर सकती है। भले ही रेवंत रेड्डी को राहुल गांधी का कितना भी समर्थन हो, लेकिन अब एकमात्र चीज मायने रखती है वह है विधायकों का समर्थन। जो नेता चुनाव से पहले बीआरएस में शामिल होने के लिए तैयार थे और केसीआर के साथ गलत समझौता किया, वे भी कांग्रेस पार्टी की ओर से जीते हैं। इस कारण रेवंत रेड्डी के सामने इस समय स्थिर सरकार प्रदान करना आगे कुआं और पीछे खाई जैसी स्थिति है। अब सवाल उठता है कि क्या मुख्यमंत्री अपनी ही पार्टी से चुनौतियों का सामना करने के लिए बीआरएस से दलबदल को प्रोत्साहित करने की कोशिश करेंगे? कांग्रेस सरकार गिराने की कोशिश केसीआर बंद नहीं करेंगे। यह बात रेवंत रेड्डी भी अच्छी तरह से जानते हैं। इसके चलते मुख्यमंत्री रेवंत की ओर से बीआरएस की ओर से कुछ विधायकों को कांग्रेस में शामिल कराने की कोशिश की कर सकते हैं। यदि ऐसा होता है, तो रेवंत रेड्डी को दोषी ठहराने की नैतिकता केसीआर बहुत पहले ही खो चुके है। वहीं, अगले चुनाव तक बीआरएस को नेस्तानाबूत कर बीजेपी एक मजबूत विपक्ष के रूप में उभरने की कोशिश कर सकती है। एक तरह से जितनी मुश्किलें रेवंत रेड्डी को सरकार बचाने की हैं, उतनी ही परेशानी केसीआर को अपनी पार्टी को बचाने की है।
तेलंगाना के राजनीतिक चेहरे पर स्पष्टता पाने के लिए हमें लोकसभा चुनाव का इंतजार करना होगा। संबंधित पार्टियों का भविष्य अगले तीन से चार महीने में होने वाले लोकसभा चुनाव में जनता के फैसले पर निर्भर करेगा। लोकसभा चुनाव आने वाले हैं और प्रधानमंत्री मोदी के आकर्षण से भाजपा अच्छी खासी सीटें जीत सकती है। कांग्रेस पार्टी भी अधिकांश सीटें जीतने की कोशिश करेगी, क्योंकि वह राज्य में सत्ता में है। इन दोनों पार्टियों के बीच सिर्फ बीआरएस ही फंसा हुआ है। यदि वह सम्मानजनक संख्या में सीटें नहीं जीतती है, तो लोकसभा चुनाव के बाद बीआरएस का भविष्य सवालों के घेरे में होगा। अगर केसीआर कुल 17 सीटों में से कम से कम छह सीटें नहीं जीतते हैं तो उनके लिए पार्टी को बचाना मुश्किल होगा। इस चुनाव में जीतने वाले 39 विधायकों में से कुछ लोकसभा चुनाव के बाद दलबदल की संभावना अधिक है।
मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी के लिए भी लोकसभा चुनाव कड़ी परीक्षा है। अधिकांश सीटें जिताने की उन पर जिम्मेदारी होगी। अगर कोई अंतर पड़ता है तो इसका असर उनके भविष्य पर पड़ेगा। राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस पार्टी की स्थिति में ठीक नहीं है। यह रेवंत रेड्डी के लिए एक मुश्किल परिणाम है। बीते दिनों कांग्रेस पार्टी में आलाकमान की बात ही सर्वोपरी हुआ करती थी। अब कई राज्यों में पार्टी नेतृत्व (आलाकमान) को धिक्कारने वाले नेताओं को हम देख रहे हैं। तेलंगाना के लोगों ने विधानसभा चुनाव में केसीआर को विपक्ष और रेवंत रेड्डी को सत्ता में भेजकर अपना विचार स्पष्ट कर दिया है। लोकसभा चुनाव में भी ऐसा ही फैसला मिलेगा या नहीं पता नहीं है। मुख्यमंत्री की गद्दी तक पहुंचने वाले रेवंत रेड्डी को एक शासक के रूप में लोगों का दिल जीतना होगा। केसीआर पहले ही मुख्यमंत्री के तौर पर अपनी पहचान बना चुके हैं। उन्होंने सत्ता में रहते हुए अहंकारपूर्वक काम किया। इस विवाद को छोड़ दें तो एक शासक के रूप में अच्छे अंक हासिल किये।
यह भी एक तरह रेवंत रेड्डी के लिए की चुनौती है। उन्हें मुख्यमंत्री पद संभाले कुछ ही दिन हो गए हैं। लेकिन अभी से ही उनके फैसलों में तेजी दिखने लगी है। समय का सहा पालन कर रहे है। प्रगति भवन को प्रजा भवन में बदल दिया और लोगों को अपनी समस्याएं व्यक्त करने का अवसर दिया है। रेवंत रेड्डी को इस समय प्रजा दरबार लगाने, बिजली विभाग के कामकाज की समीक्षा करने, मंत्रिपरिषद की पहली बैठक में कुछ सख्ती बरतने और स्मार्ट फैसले लेने के लिए प्रशंसा हो रही है। शेषाद्रि को मुख्यमंत्री कार्यालय का मुख्य सचिव नियुक्त करना उनका एक और अच्छा निर्णय है। शेषाद्रि एक ईमानदार और सीधे इंसान के रूप में अच्छी पहचान और प्रतिष्ठा है। जब राजशेखर रेड्डी मुख्यमंत्री थे तब शेषाद्रि जो रंगा रेड्डी के कलेक्टर के रूप में काम किये थे। सरकार की नीति से अलग हो गये। शिवधर रेड्डी को इंटेलिजेंस चीफ नियुक्त करना भी एक सही कदम है।
हालांकि, यही शिवधर रेड्डी खुफिया प्रमुख थे, तब रेवंत रेड्डी वोट के बदले नोट मामले में फंस गये। उसके बाद, तत्कालीन मुख्यमंत्री केसीआर को सहज ही शिवधर रेड्डी पर संदेह हुआ और उन्हें बिना किसी महत्वपूर्ण वाले पद पर स्थानांतरित कर दिया गया। फिलहाल रेवंत रेड्डी के पास मुख्यमंत्री के रूप में अपनी स्थिति मजबूत करने और लोकसभा चुनाव में अच्छे नतीजे हासिल करने के लिए केवल तीन से चार महीने का समय है। तब तक इस पार्टी के विधायक और जनता रेवंत रेड्डी पर कड़ी नजर रखेंगी। इस दौरान रेवंत रेड्डी को यह दिखाना होगा वह कौन है और उनकी प्राथमिकताएँ क्या हैं। रेवंत को यह सिद्ध करना होगा कि वह केसीआ से भी एक बेहतर नेता हैं। संयुक्त आंध्र प्रदेश में पदयात्रा करके मुख्यमंत्री का पद हासिल करने वाले राजशेखर रेड्डी भी सत्ता में आने के बाद एक मजबूत नेता के रूप में उभरे। वह राज्य कांग्रेस में एक निर्विवाद नेता बन गये। मौजूदा स्थिति की तुलना उस स्थिति से नहीं की जा सकती जब राजशेखर रेड्डी मुख्यमंत्री बने थे। जब वाईएसआर मुख्यमंत्री बने, तब तक कांग्रेस पार्टी में सबसे मजबूत नेता माने जाने वाले नेताओं का निधन हो चुका था। बाकी बचे नेताओं को वाईएसआर ने रौंदकर रख दिया।
जाना रेड्डी और दिवाकर रेड्डी जैसे लोगों को कैबिनेट से हटा दिये गये तो भी कोई सवाल करने की स्थिति नहीं थी। चूंकि केंद्र में भी कांग्रेस पार्टी सत्ता में थी। इसलिए कोई भी नेतृत्व को धिक्कार नहीं करते थे। अब रेवंत रेड्डी के पास ऐसी कोई लचीलापन नहीं है। मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी ऐसी स्थिति में हैं जहां उन्हें कांग्रेस पार्टी को जीवित रखते हुए खुद को मजबूत करना होगा। कांग्रेस पार्टी में वरिष्ठ होने के नाते उनका मुकाबला उत्तम कुमार रेड्डी और भट्टी विक्रमार्क से है। इस कारण मुख्यमंत्री को तब तक विनम्र रहने की जरूरत है जब तक स्थिति उनके पक्ष में न हो जाए। कुछ मामलों में, जो लोग मुख्यमंत्री के पद पर रहते है, उन्हें पद पर बने रहने के लिए ऐसे काम करने पड़ते है जो वे नहीं करना चाहते है। यह स्थिति कांग्रेस पार्टी में अधिक है। यदि आप पिछले कुछ दिनों से मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी को देखें, तो वह शांत और संयमित रहने की कोशिश कर रहे हैं। मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने जो लक्ष्य तय किये है उन्हें हासिल करने का यह सही समय नहीं है। रेवंत रेड्डी को फिलहाल संयम और समन्वय से काम लेना चाहिए। केवल लोकसभा चुनाव तक ही नहीं, उसके बाद भी लोकतांत्रिक शासन प्रदान करके एक मजबूत नेता बनने का प्रयास करना होगा।
रेवंत रेड्डी का राजनीतिक जीवन अभी भी दो दशक का है। सरकार को स्थिर करने के अलावा, अगर वे इस कार्यकाल तक ऐसे ही जारी रखते हैं, तो कांग्रेस पार्टी में रेवंत रेड्डी के नेतृत्व को कोई धोखा नहीं होगा। वे एक शक्तिशाली नेता हो जाएंगे। उम्मीदवारों के चयन के दौरान भी उन्होंने समझौता करने की प्रवृत्ति दिखाई है। पटेल रमेश रेड्डी को सूर्यापेट में अपने खास व्यक्ति पटेल रमेश पार्टी को टिकट नहीं दिया गया, लेकिन वे पीछे नहीं हटे। रेवंत रेड्डी जानते है कि लक्ष्यों की प्राप्ति में समझौता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। अब मुख्यमंत्री के तौर पर भी वे काफी मेहनत से काम कर रहे हैं। यही वजह है कि मंत्रालयों के बंटवारे में भी उन्होंने पार्टी नेतृत्व के आदेश के मुताबिक ही काम किया है। दरअसल विभागों का बंटवारा मुख्यमंत्री के विवेक पर निर्भर है। लेकिन उत्तम कुमार रेड्डी और भट्टी विक्कमार्क जैसे नेताओं ने आलकमान पर दबाव बनाया कि उन्हें वे शाखाएँ मिलनी चाहिए जो वे चाहते थे। रेवंत रेड्डी ने यह फैसला आलाकमान पर छोड़ दिया। जब तक पार्टी और सरकार पर पूरी तरह से नियंत्रण नहीं हो जाता, तब तक ऐसी चीजें अपरिहार्य हैं। रेवंत रेड्डी के सामने एक और चुनौती ग्रेटर हैदराबाद में पार्टी की पकड़ बढ़ाने की है। 2014 के बाद से कांग्रेस पार्टी महानगर में कमजोर होती जा रही है। 2018 के बाद पार्टी की हालत खराब हो गई और वह तीसरे स्थान पर सिमट गई। नवीनतम चुनावों में यहां बसे हुए अन्य राज्यों के लोगों के समर्थन देने से भले ही सीटें नहीं जीत सकी हो मगर वोटों के मामले में दूसरे स्थान पर पहुंच गई है।
यहां बसे तेलंगाना के विभिन्न जिलों के लोग हैदराबाद में वोट देने का अधिकार होने के बाद भी वे वोट डालने के लिए अपने गृहनगर चले गये। इसी वजह से कांग्रेस को वोट तो ज्यादा मिले, लेकिन महानगर में सीटें नहीं मिलीं। यहां बसे कुछ वर्गों को छोड़कर, जिन्हें हैदराबाद में वोट देने का अधिकार था, उन्होंने बीआरएस को वोट दिया। इस वजह से बीआरएस को महानगर में अधिक सीटें जीत पाई। अगर ग्रेटर लगा नहीं होता तो बीआरएस को 20 से भी कम सीटें मिलतीं। रेवंत रेड्डी को इन सभी घटनाक्रमों पर गौर करना होगा और पार्टी को और अधिक मजबूत करने का प्रयास करना होगा। भले ही केसीआर 2014 में सत्ता में आए, लेकिन अब वे कांग्रेस पार्टी की तरह ग्रेटर में कमजोर पड़े हैं। इसके बाद तेलुगु देशम और कांग्रेस की ओर से जीते विधायकों को शामिल कर लिया। इसके साथ ही दूसरे श्रेणी के अपने साथ जोड़कर अपनी ताकत बढ़ा ली है। इस पृष्ठभूमि में कांग्रेस पार्टी भी ग्रेटर में मजबूत हो सकती है।
अब पूर्व मुख्यमंत्री केसीआर की पर बात करते है। ऐसा लगता है कि वह इस समय बुरे दौर से गुजर रहे हैं। चुनाव हारने के बाद दो दिन पहले फार्महाउस के बाथरूम में फिसलकर गिरने से उनका कूल्हा टूट गया। इस उम्र में उनके साथ ऐसा नहीं होना चाहिए था। बाथरूम में गिरे केसीआर को अस्पताल लाने में करीब डेढ़ घंटे का समय लगा। सत्ता में बैठे लोग सोचते हैं कि उनकी सत्ता शाश्वत है। केसीआर ने भी ऐसा ही सोचा होगा। इसीलिए आलीशान से बने प्रगति भवन को उनका स्थायी निवास मान लिया। अब वे कह रहे हैं कि हैदराबाद में उनका विशाल मकान नहीं हैं। केसीआर की वजह से पिछले चुनाव से जीत चुकी वाईसीपी ने ताजा तेलंगाना चुनाव के दौरान बीआरएस की जीत के लिए विभिन्न तरीकों से काम किया। लेकिन अब केसीआर घायल हुए तो वाईसीपी का कोई भी नेता अस्पताल सांत्वना देने नहीं गये। सत्ता में होने पर हर कोई मेहमान होते है। सत्ता में नहीं होने पर साथ देने वाले सही हितैषी होते हैं।
हालांकि, केसीआर को पूरी तरह से ठीक होकर पार्टी दफ्तर जाने में तीन महीने से ज्यादा का वक्त लग सकता है। हित के शब्दों को नजरअंदाज कर टीआरएस को बीआरएस में बदलकर इसे राष्ट्रीय राजनीति बताकर महाराष्ट्र की राजनीति में उम्मीदें जगाने वाले केसीआर क्या वहां आगामी लोकसभा चुनाव में प्रचार कर पाएंगे? कहा जा सकता है कि यह काफी मुश्किल है। इसीलिए (Man proposes God disposes) आदमी लाख करें वही होता है, जो मंजूर-ए-खुदा होता है। इस परिस्थित में पार्टी को बनाए रखने का भार केटीआर और हरीश राव पर है। बीआरएस का भविष्य कैसे होगा, यह जानने के लिए हमें लोकसभा चुनाव का इंतजार करना होगा। फिलहाल आइए केसीआर के शीघ्र स्वस्थ होने की कामना करते हैं! (आंध्रज्योति के 10 दिसंबर अंक से साभार)
Weekend Comment By RK: రేవంత్.. సవాళ్ళ సవారీ
రాజకీయాలలో చోటుచేసుకునే పరిణామాలు కొందరి జాతకాలనే మార్చివేస్తాయి. తెలంగాణ రాష్ట్రం ఏర్పడిన తర్వాత తొలి ముఖ్యమంత్రిగా పనిచేసిన కేసీఆర్, రెండవ ముఖ్యమంత్రిగా బాధ్యతలు చేపట్టిన రేవంత్ రెడ్డి విషయంలో ఇది స్పష్టంగా రుజువైంది. ఉమ్మడి రాష్ట్రంలో రెండవ పర్యాయం ముఖ్యమంత్రిగా బాధ్యతలు చేపట్టిన చంద్రబాబు తన మంత్రివర్గంలోకి కేసీఆర్ను తీసుకోకుండా పక్కనపెట్టారు. దీంతో ఆగ్రహించిన కేసీఆర్.. డిప్యూటీ స్పీకర్ పదవిని వదులుకుని తెలంగాణ ఉద్యమాన్ని రాజేశారు. ఇంతింతై వటుడింతై అన్నట్టుగా తెలంగాణ ఉద్యమం ప్రజా ఉద్యమంగా విస్తరించడంతో తెలంగాణ రాష్ట్రం ఏర్పడడమే కాకుండా కేసీఆర్ తొలి ముఖ్యమంత్రి అయ్యారు. కేసీఆర్ను చంద్రబాబు తన మంత్రివర్గంలోకి తీసుకుని ఉంటే తెలంగాణ రాష్ట్రం ఏర్పడి ఉండేది కాదేమో అన్న అభిప్రాయం కూడా ఉంది.
ఇప్పుడు కాంగ్రెస్ ప్రభుత్వ అధినేతగా, తెలంగాణ రాష్ట్ర రెండవ ముఖ్యమంత్రిగా ప్రమాణ స్వీకారం చేసిన రేవంత్ రెడ్డి అనతికాలంలోనే ఈ స్థాయికి ఎదగడానికి పరోక్షంగా కేసీఆరే కారణం. 2014 ఎన్నికల తర్వాత ఎమ్మెల్సీ ఎన్నికల సందర్భంగా ఓటుకు నోటు కేసులో అప్పటి ముఖ్యమంత్రి కేసీఆర్ పకడ్బందీ వ్యూహరచనతో రేవంత్ రెడ్డిని అరెస్ట్ చేయించి జైలుకు పంపారు. ఏకైక కుమార్తె పెళ్లి సందర్భంగా రేవంత్ రెడ్డి బెయిల్పై బయటకు వచ్చి మళ్లీ వెంటనే జైలుకు వెళ్ళవలసి వచ్చింది. ఈ సంఘటన జరిగి ఉండకపోతే రేవంత్ రెడ్డిలో కసి రగిలి ఉండేది కాదు. కుమార్తె పెళ్లిని దగ్గరుండి మరీ ఘనంగా జరిపించుకోలేని పరిస్థితి కల్పించిన కేసీఆర్పై పగబట్టిన రేవంత్ రెడ్డి, నాటి పరిణామాలను అవకాశంగా మలచుకున్నారు. తెలుగుదేశం పార్టీకి రాజీనామా చేసి కాంగ్రెస్ పార్టీలో చేరారు. అతడిలోని దూకుడు స్వభావం, వాక్చాతుర్యం పట్ల ఆకర్షితుడైన రాహుల్ గాంధీ పీసీసీ అధ్యక్షుడిగా నియమించి ప్రోత్సహించారు.
తెలంగాణ పీసీసీ అధ్యక్షుడిగా రేవంత్ రెడ్డి తన విశ్వరూపాన్ని ప్రదర్శించారు. కేసీఆర్ ఎత్తుగడలతో కునారిల్లుతున్న కాంగ్రెస్ పార్టీకి జవసత్వాలు కల్పించారు. ఈ నేపథ్యంలో ఇటు భారత రాష్ట్ర సమితి, అటు భారతీయ జనతా పార్టీ చేసిన వ్యూహాత్మక తప్పిదాలతో కేసీఆర్కు ప్రత్యామ్నాయంగా ప్రజలు కాంగ్రెస్ పార్టీని గుర్తించి ఆదరించారు. రేవంత్ రెడ్డి నాయకత్వానికి ప్రజలు జై కొట్టారు. తాజా ఎన్నికలలో కాంగ్రెస్ పార్టీకి మెజారిటీ లభించినప్పటికీ రేవంత్ రెడ్డి ముఖ్యమంత్రి కాకుండా కొన్ని శక్తులు రెండు రోజుల పాటు శక్తి వంచన లేకుండా ప్రయత్నించాయి. సొంత నియోజకవర్గం దాటి పక్క నియోజకవర్గంలో పార్టీ అభ్యర్థుల గెలుపునకు కూడా ప్రయత్నించలేకపోయిన కొంత మంది నాయకులను ముఖ్యమంత్రి పదవికి పోటీదారులుగా ప్రచారం చేశారు. రేవంత్ రెడ్డి ముఖ్యమంత్రి అవడం కేసీఆర్ అండ్ కోకు సహజంగానే ఇష్టం ఉండదు. ఆంధ్రప్రదేశ్ ముఖ్యమంత్రి జగన్మోహన్ రెడ్డికి కూడా రేవంత్ ముఖ్యమంత్రి కావడం ఇష్టం లేకపోవడం ఆశ్చర్యం కలిగిస్తోంది. జగన్ మనసులో ఏముందో గుర్తించిన కూలి మీడియా వెంటనే రంగంలోకి దిగి ముఖ్యమంత్రి అభ్యర్థి ఎంపికలో పీటముడి పడిందని ప్రచారం చేయడం మొదలెట్టింది.
వాస్తవానికి ఫలితాలు రాకముందే కాంగ్రెస్ అధికారంలోకి అంటూ వస్తే రేవంత్ రెడ్డిని ముఖ్యమంత్రిని చేయాలని రాహుల్ గాంధీ నిర్ణయించుకున్నారు. ఈ విషయం తెలుసో లేదో తెలియదు గానీ కొంత మంది కాంగ్రెస్ ఎమ్మెల్యేలు దింపుడు కళ్లెం ఆశతో ఢిల్లీ వెళ్లారు. కూలి మీడియా తన వంతు పాత్ర పోషించింది. ఈ దశలో రాహుల్ గాంధీ కాంగ్రెస్ అధ్యక్షుడు మల్లికార్జున్ ఖర్గే నివాసానికి వెళ్లి ముఖ్యమంత్రిగా రేవంత్ రెడ్డి పేరును శషభిషలకు ఆస్కారం లేకుండా సాయంత్రానికల్లా ప్రకటించాలని స్పష్టంచేయడం, ఆ తర్వాత ముఖ్యమంత్రి పదవిపై ఆశలు పెంచుకున్న భట్టి విక్రమార్క, ఉత్తమ్కుమార్ రెడ్డిని పక్కన కూర్చోబెట్టుకుని మరీ పార్టీ ప్రధాన కార్యదర్శి కేసీ వేణుగోపాల్ ముఖ్యమంత్రిగా రేవంత్ పేరును ప్రకటించడం జరిగిపోయాయి. మొత్తానికి తాను లక్ష్యంగా పెట్టుకున్న ముఖ్యమంత్రి పదవిని రేవంత్ అందుకున్నారు. తెలంగాణ రాజకీయాలలో ఇంత వేగంగా ఎదిగిన నాయకుడు మరొకరు లేరంటే అతిశయోక్తి లేదు. తనలో ఇంత కసి, పట్టుదల పెరగడానికి కారణమైన కేసీఆర్కు రేవంత్ రెడ్డి కృతజ్ఞుడై ఉంటాడా అంటే అది వేరే విషయం.
చంద్రబాబు విషయంలో కేసీఆర్ అటువంటి కృతజ్ఞత ప్రదర్శించకపోగా శత్రుత్వం పెంచుకున్నారు. ఏది ఏమైనా కోరుకున్న పదవిని దక్కించుకున్న రేవంత్ రెడ్డి ప్రస్థానం ఇకపై ఎలా ఉండబోతున్నది? ఇప్పుడు ఆయన ముందున్న సవాళ్లేమిటి? అన్న అంశాలు ఇప్పుడు చర్చనీయాంశాలుగా ఉన్నాయి. రేవంత్ రెడ్డిలోని దూకుడు స్వభావం, వాక్చాతుర్యం గురించి మాత్రమే చాలా మందికి తెలుసు గానీ ఆయన లోతైన మనిషి అని అతి కొద్ది మందికి మాత్రమే తెలుసు. ఏయే దశల్లో ఏమేమి చేయాలో ఆయన ముందే నిర్ణయించుకుంటారు. ముఖ్యమంత్రిగా ఏమి చేయాలో కూడా ఆయన ముందే స్ర్కిప్ట్ సిద్ధం చేసుకున్నారు. ఒక్క మాటలో చెప్పాలంటే పొట్టి వాడే గానీ మహా గట్టివాడు. అయితే కాంగ్రెస్ పార్టీకి బొటాబొటి మెజారిటీ మాత్రమే లభించినందున ఎమ్మెల్యేలు అందరినీ సమన్వయం చేసుకుంటూ వెళ్లడం ప్రస్తుతం ఆయన ముందున్న అతి పెద్ద సవాల్. గత తొమ్మిదిన్నరేళ్లలో నిస్సిగ్గుగా పార్టీ ఫిరాయింపులు జరిగాయి. అధికారం లేకుండా ప్రతిపక్షంలో మనగలగడం కష్టసాధ్యమైన పనిగా పరిస్థితులను మార్చేశారు. దీనికితోడు సొంత పార్టీలోనే ముఖ్యమంత్రి పీఠంపై కన్నేసిన వారు ఉన్నారు. వారు ఎప్పుడైనా పక్కలో బల్లెంలా మారవచ్చు. కడియం శ్రీహరి చెబుతున్నట్టుగా బీజేపీ, మజ్లిస్ పార్టీ సభ్యులను కూడా కలుపుకొంటే కేసీఆర్ బలగం 54 మంది ఉంటారు. సీపీఐ సభ్యుడిని కూడా కలుపుకొంటే కాంగ్రెస్ బలం 65 మాత్రమే.
అంటే, ఆరేడుగురు చేతులు కలిపి పక్కచూపులు చూస్తే ప్రభుత్వం పతనం కావొచ్చు. రాహుల్ గాంధీ అండదండలు ఎంతగా ఉన్నప్పటికీ శాసనసభ్యుల మద్దతు మాత్రమే ఇప్పుడు కీలకం. ఎన్నికలకు ముందు బీఆర్ఎస్లో చేరిపోవడానికి సిద్ధపడిన వారు, కేసీఆర్తో లోపాయికారీ ఒప్పందం కుదుర్చుకున్న వారు కూడా కాంగ్రెస్ పార్టీ తరఫున గెలిచారు. ఈ కారణంగా సుస్థిర ప్రభుత్వాన్ని అందించడం ప్రస్తుతానికి రేవంత్ రెడ్డికి కత్తి మీద సాము వంటిదే. సొంత పార్టీ వారి నుంచి ఎదురయ్యే సవాళ్లను ఎదుర్కోవడం కోసం బీఆర్ఎస్ నుంచి ఫిరాయింపులను ప్రోత్సహించడానికి ముఖ్యమంత్రి ప్రయత్నిస్తారా? అన్న ప్రశ్న ఉత్పన్నం అవుతోంది. ప్రభుత్వాన్ని పడగొట్టడం కోసం కేసీఆర్ ప్రయత్నించకుండా ఉండరు. ఈ విషయం రేవంత్ రెడ్డికి కూడా తెలుసు. ఈ కారణంగా బీఆర్ఎస్ తరఫున కొంత మంది ఎమ్మెల్యేలను కాంగ్రెస్లో చేర్చుకోవడానికి ముఖ్యమంత్రి ప్రయత్నించే అవకాశం లేకపోలేదు. అదే జరిగితే రేవంత్ రెడ్డిని తప్పు పట్టే నైతికతను కేసీఆర్ ఏనాడో కోల్పోయారు. మరోవైపు బీఆర్ఎస్ను కబళించడం ద్వారా వచ్చే ఎన్నికల నాటికి బలమైన ప్రతిపక్షంగా అవతరించడం కోసం బీజేపీ ప్రయత్నిస్తుంది. ఒకరకంగా చెప్పాలంటే ప్రభుత్వాన్ని కాపాడుకోవడంలో రేవంత్ రెడ్డికి ఎన్ని ఇబ్బందులు ఉన్నాయో, తన పార్టీని కాపాడుకోవడంలో కేసీఆర్కు కూడా అన్ని ఇబ్బందులు ఉన్నాయి.
తెలంగాణ రాజకీయ ముఖచిత్రంలో స్పష్టత ఏర్పడాలంటే లోక్సభ ఎన్నికల వరకు వేచి చూడాలి. మరో మూడు నాలుగు నెలల్లో జరగనున్న లోక్సభ ఎన్నికల్లో ప్రజల తీర్పు ఎలా ఉండబోతోంది అన్నదాన్ని బట్టి ఆయా పార్టీల భవిష్యత్తు ఆధారపడి ఉంటుంది. జరగబోయేవి లోక్సభ ఎన్నికలు కనుక ప్రధాని మోదీ ఆకర్షణతో బీజేపీ చెప్పుకోదగిన సంఖ్యలో సీట్లు సాధించవచ్చు. రాష్ట్రంలో అధికారంలో ఉన్నందున కాంగ్రెస్ పార్టీ కూడా మెజారిటీ సీట్లను గెలుచుకోవడానికి ప్రయత్నిస్తుంది. ఈ రెండు పార్టీల మధ్య నలిగిపోయేది బీఆర్ఎస్ మాత్రమే. గౌరవప్రదమైన సంఖ్యలో సీట్లు గెలుచుకోని పక్షంలో లోక్సభ ఎన్నికల తర్వాత బీఆర్ఎస్ భవిష్యత్తు ప్రశ్నార్థకం అవుతుంది. మొత్తం 17 స్థానాలలో కనీసం ఆరేడు స్థానాలనైనా గెలుచుకోని పక్షంలో పార్టీని కాపాడుకోవడం కేసీఆర్కు కష్టమవుతుంది. ఈ ఎన్నికల్లో గెలిచిన 39 మందిలో కొందరు లోక్సభ ఎన్నికల తర్వాత ఫిరాయింపులకు పాల్పడే అవకాశం లేకపోలేదు.
ముఖ్యమంత్రి రేవంత్ రెడ్డికి కూడా లోక్సభ ఎన్నికలు విషమ పరీక్షే. మెజారిటీ స్థానాలను గెలిపించుకోవాల్సిన బాధ్యత ఆయనపై ఉంటుంది. తేడా వస్తే దాని ప్రభావం ఆయన భవిష్యత్తుపై పడుతుంది. జాతీయ స్థాయిలో కాంగ్రెస్ పార్టీ పరిస్థితి ఆశాజనకంగా లేకపోవడం రేవంత్ రెడ్డికి ఇబ్బందికర పరిణామమే. ఆ పార్టీలో అధిష్ఠానం మాటే శిరోధార్యంగా ఒకప్పుడు ఉండేది. ఇప్పుడు అనేక రాష్ర్టాలలో పార్టీ అధిష్ఠానాన్ని ధిక్కరిస్తున్న వాళ్లను చూస్తున్నాం. శాసనసభ ఎన్నికలలో తమ తీర్పు ద్వారా కేసీఆర్ను ప్రతిపక్షంలోకి, రేవంత్ రెడ్డిని అధికారంలోకి పంపడం ద్వారా తెలంగాణ ప్రజలు తమ అభిప్రాయాలను స్పష్టంగానే చెప్పారు. లోక్సభ ఎన్నికలలో కూడా ఇదే విధమైన తీర్పు ఇస్తారో లేదో తెలియదు. ముఖ్యమంత్రి పీఠం ఎక్కడం ద్వారా తన లక్ష్యాన్ని చేరుకున్న రేవంత్ రెడ్డి పాలకుడిగా ప్రజల మనసు గెలుచుకోవలసి ఉంటుంది. ముఖ్యమంత్రిగా కేసీఆర్ తనదైన ముద్ర ఇదివరకే వేశారు. అధికారంలో ఉన్నప్పుడు అహంభావంతో వ్యవహరించారన్నది వదిలేస్తే పాలకుడిగా ఆయన మంచి మార్కులే సాధించారు.
ఇది కూడా రేవంత్ రెడ్డికి ఒక రకంగా సవాలే. ఆయన ముఖ్యమంత్రిగా బాధ్యతలు చేపట్టి నాలుగు రోజులే అయింది. కానీ ఇప్పటికే ఆయన నిర్ణయాలలో వేగం కనిపిస్తోంది. సమయపాలన పాటిస్తున్నారు. ప్రగతిభవన్ను ప్రజాభవన్గా మార్చి ప్రజలు తమ సమస్యలు చెప్పుకోవడానికి అవకాశం కల్పించారు. ప్రజాదర్బార్ నిర్వహించడం, విద్యుత్ శాఖ పనితీరును సమీక్షించడం, మంత్రి మండలి తొలి సమావేశంలోనే కొంత కటువుగా వ్యవహరించడం, చకచకా నిర్ణయాలు తీసుకోవడం వంటి చర్యల ద్వారా రేవంత్ రెడ్డి ప్రస్తుతానికి ప్రశంసలే పొందుతున్నారు. ముఖ్యమంత్రి కార్యాలయం ముఖ్య కార్యదర్శిగా శేషాద్రిని నియమించుకోవడం ఆయన తీసుకున్న మరో మంచి నిర్ణయం. నిజాయతీపరుడిగా, ముక్కుసూటి మనిషిగా శేషాద్రికి మంచి పేరు ఉంది. రాజశేఖర రెడ్డి ముఖ్యమంత్రిగా ఉన్నప్పుడు రంగారెడ్డి కలెక్టర్గా పనిచేసిన శేషాద్రి ప్రభుత్వంతో విభేదించారు. ఇంటెలిజెన్స్ చీఫ్గా శివధర్ రెడ్డిని నియమించుకోవడం కూడా సరైన చర్య అన్న అభిప్రాయం ఉంది.
అయితే ఇదే శివధర్ రెడ్డి ఇంటెలిజెన్స్ చీఫ్గా ఉన్నప్పుడే రేవంత్ రెడ్డి ఓటుకు నోటు కేసులో ఇరుక్కున్నారు. ఆ తర్వాత అప్పటి ముఖ్యమంత్రి కేసీఆర్ అకారణంగా శివధర్ రెడ్డిని అనుమానించి అప్రధాన పోస్టులోకి బదిలీ చేశారు. ప్రస్తుతం ముఖ్యమంత్రిగా రేవంత్ రెడ్డికి తన పదవిని సుస్థిరం చేసుకోవడానికీ, లోక్సభ ఎన్నికలలో మంచి ఫలితాలు సాధించడానికీ మూడు నాలుగు నెలల వ్యవధి మాత్రమే ఉంది. అప్పటివరకు ఇటు పార్టీ శాసనసభ్యులు, అటు ప్రజలు ఆయనను నిశితంగా గమనిస్తారు. తానేమిటో తన ప్రాథమ్యాలు ఏమిటో ఆయన ఆవిష్కరించుకోవలసి ఉంది. కేసీఆర్ను మించిన నాయకుడు అని ఒప్పించి మెప్పించాలి. ఉమ్మడి రాష్ట్రంలో పాదయాత్ర ద్వారా ముఖ్యమంత్రి పదవి దక్కించుకున్న రాజశేఖర రెడ్డి కూడా అధికారంలోకి వచ్చిన తర్వాత బలమైన నాయకుడిగా అవతరించారు. రాష్ట్ర కాంగ్రెస్లో తిరుగులేని నాయకుడిగా ఎదిగారు. రాజశేఖర రెడ్డి ముఖ్యమంత్రి అయినప్పటి పరిస్థితులతో ఇప్పటి పరిస్థితులను పోల్చలేం. వైఎస్ఆర్ ముఖ్యమంత్రి అయ్యే నాటికి కాంగ్రెస్ పార్టీలో బలమైన నాయకులు అనుకున్న వారు కాలం చేశారు. మిగతావారు ఎదగకుండా వైఎస్ తొక్కిపడేశారు.
జానారెడ్డి, దివాకర్ రెడ్డి వంటి వారిని మంత్రివర్గం నుంచి తొలగించినా ప్రశ్నించే పరిస్థితి లేదు. అప్పుడు కేంద్రంలో కూడా కాంగ్రెస్ పార్టీ అధికారంలో ఉన్నందున అధిష్ఠానం మాటను ఎవరూ ధిక్కరించే వారు కారు. ఇప్పుడు రేవంత్ రెడ్డికి అటువంటి వెసులుబాటు లేదు. కాంగ్రెస్ పార్టీని బతికిస్తూ తాను మరింత బలపడాల్సిన పరిస్థితి ముఖ్యమంత్రి రేవంత్ రెడ్డిది. కాంగ్రెస్ పార్టీలో సీనియర్లుగా ఉత్తమ్కుమార్ రెడ్డి, భట్టి విక్రమార్కల నుంచి ఆయనకు పోటీ ఉండనే ఉంటుంది. ఈ కారణంగా పరిస్థితులు తనకు పూర్తి అనుకూలంగా మారే వరకు ముఖ్యమంత్రి కాస్త అణకువగా మెలగడం అవసరం. ముఖ్యమంత్రి స్థానంలో ఉండేవారు కొన్ని సందర్భాలలో పదవిని కాపాడుకోవడానికి ఇష్టం లేని పనులు కూడా చేయాల్సి ఉంటుంది. కాంగ్రెస్ పార్టీలో ఈ పరిస్థితి మరింత ఎక్కువగా ఉంటుంది. గడచిన నాలుగు రోజులుగా ముఖ్యమంత్రి రేవంత్ రెడ్డిని గమనిస్తే ఆయన కూల్గా, సంయమనంతో ఉండటానికి ప్రయత్నిస్తున్నారు. తాను ముఖ్యమంత్రిగా నిర్దేశించుకున్న లక్ష్యాలను సాధించడానికి ఆయనకు ఇది అనువైన సమయం కాదు. ప్రస్తుతానికి సంయమనం, సమన్వయంతో వ్యవహరించాలి. లోక్సభ ఎన్నికల వరకే కాదు– ఆ తర్వాత కూడా ప్రజారంజక పాలన అందించడం ద్వారా బలమైన నాయకుడిగా ఎదగడానికి ప్రయత్నించాలి.
రేవంత్ రెడ్డికి ఇంకా రెండు దశాబ్దాల రాజకీయ జీవితం ఉంది. ప్రభుత్వాన్ని సుస్థిరం చేసుకోవడంతో పాటు ఈ టర్మ్ వరకు ఆచితూచి వ్యవహరిస్తే కాంగ్రెస్ పార్టీలో రేవంత్ రెడ్డి నాయకత్వానికి తిరుగుండదు. అభ్యర్థుల ఎంపిక సమయంలో కూడా ఆయన రాజీ ధోరణి ప్రదర్శించారు. సూర్యాపేటలో తన సొంత మనిషి పటేల్ రమేశ్రెడ్డికి పార్టీ టికెట్ నిరాకరించినప్పటికీ ఆయన మంకుపట్టు పట్టలేదు. లక్ష్య సాధనలో రాజీ ధోరణి తప్పదని గుర్తించారు. ఇప్పుడు ముఖ్యమంత్రిగా కూడా ఆయన పట్టువిడుపులతోనే సాగుతున్నారు. ఈ కారణంగానే మంత్రిత్వ శాఖల కేటాయింపుల్లో కూడా పార్టీ అధిష్ఠానం ఆదేశాల ప్రకారమే వ్యవహరించారు. నిజానికి శాఖల కేటాయింపు ముఖ్యమంత్రి విచక్షణాధికారానికి లోబడి ఉంటుంది. అయితే ఉత్తమ్, భట్టి వంటి వారు తాము కోరుకున్న శాఖలే కావాలని అధిష్ఠానం వద్ద పట్టుబట్టడంతో రేవంత్ రెడ్డి పట్టుదలకు పోలేదు. పార్టీపైన, ప్రభుత్వం పైన పూర్తి స్థాయిలో పట్టు లభించే వరకు ఇలాంటివి తప్పవు. గ్రేటర్ హైదరాబాద్లో పార్టీ పట్టు పెంచుకోవడం రేవంత్ రెడ్డి ముందున్న మరో సవాల్. 2014 తర్వాత జంట నగరాలలో కాంగ్రెస్ పార్టీ బలహీనపడుతూ వచ్చింది. 2018 తర్వాత పార్టీ పరిస్థితి మరింత దిగజారి మూడవ స్థానానికి పరిమితమైంది. తాజా ఎన్నికల్లో సెటిలర్లు మద్దతు ఇవ్వడం వల్ల సీట్లు గెలుచుకోకపోయినా ఓట్లపరంగా ద్వితీయ స్థానానికి ఎదిగింది.
హైదరాబాద్లో కూడా ఓటు హక్కు కలిగి ఉన్న తెలంగాణలోని వివిధ జిల్లాలకు చెందిన వారు ఓటు వేయడం కోసం స్వగ్రామాలకు వెళ్లిపోయారు. ఈ కారణంగా గ్రేటర్లో కాంగ్రెస్కు ఓట్లు పెరిగినా సీట్లు రాలేదు. సెటిలర్లలో కొన్ని వర్గాలను మినహాయిస్తే హైదరాబాద్లో ఓటు హక్కు కలిగి ఉన్న ఇతర రాష్ర్టాల వారందరూ తాజా ఎన్నికల్లో బీఆర్ఎస్కు జైకొట్టారు. ఈ కారణంగానే ఆ పార్టీకి జంట నగరాలలో ఎక్కువ సీట్లు లభించాయి. గ్రేటర్ ఆదుకొని ఉండకపోతే బీఆర్ఎస్కు ఇరవై స్థానాలలోపే వచ్చి ఉండేవి. ఈ పరిణామాలు అన్నింటినీ బేరీజు వేసుకొని గ్రేటర్లో పార్టీని బలోపేతం చేసుకోవడానికి రేవంత్ రెడ్డి ప్రయత్నించాల్సి ఉంటుంది. 2014లో కేసీఆర్ అధికారంలోకి వచ్చినప్పటికీ ఇప్పుడు కాంగ్రెస్ పార్టీ మాదిరిగానే గ్రేటర్లో చతికిలపడ్డారు. ఆ తర్వాత తెలుగుదేశం, కాంగ్రెస్ తరఫున గెలిచిన ఎమ్మెల్యేలను చేర్చుకోవడంతో పాటు ద్వితీయ శ్రేణి నాయకులను చేరదీసి బలం పెంచుకున్నారు. ఈ నేపథ్యంలో కాంగ్రెస్ పార్టీ కూడా గ్రేటర్లో బలపడకపోదు.
ఇప్పుడు మాజీ ముఖ్యమంత్రి కేసీఆర్ విషయానికి వద్దాం. ఆయనకు ప్రస్తుతం బ్యాడ్ టైం నడుస్తున్నట్టుగా ఉంది. ఎన్నికల్లో ఓడిపోయిన ఆయనకు రెండు రోజుల క్రితం ఫాంహౌజ్లోని బాత్రూంలో కాలికి పంచ అడ్డుపడి కిందపడిపోవడంతో తుంటి విరిగింది. ఈ వయసులో ఆయనకు ఇలా జరిగి ఉండాల్సింది కాదు. ఫాంహౌజ్ బాత్రూంలో పడిపోయిన కేసీఆర్ను ఆస్పత్రికి చేర్చడానికి దాదాపు గంటన్నర పట్టింది. అధికారంలో ఉన్నవాళ్లు తమ అధికారం శాశ్వతం అనుకుంటారు. కేసీఆర్ కూడా అలాగే భావించి ఉంటారు. అందుకే విలాసవంతంగా నిర్మించుకున్న ప్రగతిభవన్ తన శాశ్వత నివాసం అనుకున్నారు. ఇప్పుడు హైదరాబాద్లో విశాలమైన సొంతిల్లు లేదని వాపోతున్నారు. కేసీఆర్ వల్ల గత ఎన్నికల్లో గెలుపొందిన వైసీపీ తాజా తెలంగాణ ఎన్నికల సందర్భంగా బీఆర్ఎస్ విజయం కోసం వివిధ మార్గాల్లో కృషి చేసింది. కానీ ఇప్పుడు కేసీఆర్కు గాయమైతే, వైసీపీ నాయకులెవరూ ఆస్పత్రికి వెళ్లి కేసీఆర్ను పరామర్శించకుండా ముఖం చాటేశారు. అధికారంలో ఉన్నప్పుడు అందరూ చుట్టాలే. అధికారం లేనప్పుడు దగ్గర ఉండేవాళ్లే అసలైన హితులు.
ఏదేమైనా కేసీఆర్ పూర్తి స్థాయిలో కోలుకొని పార్టీ కార్యాలయానికి వెళ్లడానికి మరో మూడు నెలలకు పైగా సమయం పడుతుంది. హిత వాక్యాలను విస్మరించి జాతీయ రాజకీయాలు అంటూ టీఆర్ఎస్ను బీఆర్ఎస్గా మార్చి మహారాష్ట్ర రాజకీయాలపై ఆశలు పెంచుకున్న కేసీఆర్ ఈ పరిస్థితులలో రానున్న లోక్సభ ఎన్నికల్లో అక్కడ ప్రచారం చేయగలరా? అంటే కష్టమనే చెప్పవచ్చు. అందుకే Man proposes God disposes (आदमी लाख करें वही होता है, जो मंजूर-ए-खुदा होता है) అని అంటారు. ఈ దశలో పార్టీని నిలబెట్టుకొనే భారం కేటీఆర్, హరీశ్రావులపైనే ఉంది. బీఆర్ఎస్ భవిష్యత్తు ఎలా ఉండబోతోందో తేలాలంటే లోక్సభ ఎన్నికల వరకూ వేచి చూడాల్సిందే. ప్రస్తుతానికి కేసీఆర్ త్వరగా కోలుకోవాలని కోరుకుందాం! ( ఆంధ్రజ్యోతి డిసెంబర్ 10)