[नोट-इस लेख पर हम लंबी बहस चलना चाहते हैं। इच्छुक पाठक अपनी रचनाएं भेज सकते हैं। धन्यवाद।]
9 मई को रवींद्रनाथ ठाकुर की जयंती है। इसी संदर्भ में और बांग्ला भाषी होने के कारण रवीन्द्रनाथ ठकुर को पढ़ने-समझने का मौका मिला तो सौभाग्यवश व्यक्तिगत कारणों से भारत भ्रमण के साथ ही साथ दक्षिण भारत में आकर रहने और दक्षिण को अपनी कर्मभूमि बनाने का भी सुअवसर प्राप्त हुआ। जीवन के विभिन्न अनुभवों के द्वारा एक बात यह भी समझ आई कि भाषा संप्रेषण का सशक्त माध्यम है और साथ ही यह बात भी समझ आई कि अब भी भारतवर्ष के निवासियों में भाषा को लेकर संकुचित मानसिकता व्याप्त है।
जैसे- तेलुगुभाषी यह मानने को तैयार नहीं कि तेलुगु से भी अधिक अच्छा साहित्य बांग्ला, हिंदी या मलयालम में हो सकता है तो बांग्लाभाषियों में भी यह अहंकार भरीपूरी मात्रा में है कि हमारा साहित्य या फिर रवीन्द्रनाथ ठाकुर साहित्य ही उत्कृष्ट है और हिंदी भाषी तो भले ही हिंदी भाषा को लेकर अफसरी कामकाज न करता हो लेकिन दर्प के साथ दूसरे भाषाभाषियों को वह यह मनवाना ही चाहता है कि हिंदी ही महान भाषा है।
तार्किक ढंग से देखा जाए तो हिंदी भाषी चाहे तो हिंदी की वैज्ञानिकता को लेकर स्वयं भी अनेक चर्चा-परिचर्चा का आयोजन कर ही सकते हैं। पर नहीं, यही भारत का दुर्भाग्य है कि भाषा को भाषावालों ने चर्चा का विषय बनाने के स्थान पर युद्ध का विषय बना लिया है। जबकि पठन-पाठन, चर्चा-परिचर्चा का दौर शुरू होने पर हम पाएंगे कि जो वास्तव में साहित्यकार होता है, भाषाविद होता है वह प्रत्येक भाषा को समझने का प्रयास करता है चाहे वह रविंद्रनाथ हो या महादेवी, प्रेमचंद हो या अल्लुरी बैरागी।
इस भाषाई चर्चा के बहाने रवींद्रनाथ को प्रणाम समर्पित करने की इच्छा रखते हुए रवींद्रनाथ के साथ जुड़े महादेवी वर्मा के संस्मरण को देखना बहुत प्रासंगिक जान पड़ा। ‘पथ के साथी’ के प्रथम अध्याय रवींद्रनाथ ठाकुर में महादेवी ने रवींद्रनाथ ठाकुर का रेखाचित्र इस प्रकार खींचा है,’मुख की सौम्यता को घेरे हुए वह रजत आलोक-मंडल जैसा केश-कलाप। मानो समय ने ज्ञान को अनुभव के उजले झीने तन्तु में कात कर उससे जीवन का मुकुट बना दिया हो। केशों की उज्ज्वलता के लिए दीप्त दर्पण जैसे माथे पर समानान्तर रहकर साथ चलनेवाली रेखाएं जैसे लक्ष्य-पथ पर ह्रदय के विश्राम चिह्न हो’। (‘पथ के साथी’-पृष्ठ संख्या -9)
वाक्य के गढ़न में ही कितनी आत्मीयता है लग ही नहीं रहा दो भिन्न भाषा के साहित्यकार मिले हैं। लग ही नहीं रहा कोई भाषा विभेद है। इसे कहते हैं साहित्यकार की गरिमा, साहित्य की गरिमा। भाषा का विकास इसी गरिमा के साथ ही होता है तथा साहित्य का विकास भी इसी के द्वारा होता है।
आगे महादेवी लिखती हैं, ‘उस व्यक्तित्व की अनेक शाखाओं-उपशाखाओं में फैली हुई विशालता, सामर्थ्य में और अधिक सघन होकर किसी को उद्धत होने का अवकाश नहीं देती, उसकी सहज स्वीकृति किसी को उदासीन रहने का अधिकार नहीं सौंपती और उसकी रहस्यमी स्पष्टता किसी को कृत्रिम बंधनों से नहीं घेरती। जिज्ञासु जब कभी साधारण क़ुतुहल में बिछलने लगता था तब वह स्नेह-तरलता हिम का दृढ़ स्तर बन जानेवाले जल के समान कठिन होकर उसे ठहरा लेना नहीं भूलती। इसी से उस असाधारण साधारणता के सम्मुख हमें यह समझते देर नहीं लगती थी कि मनुष्य, मनुष्य को कुतुहल की संज्ञा देकर स्वयं भी अशोभन बन जाता है। प्रशांत चेतना के बंधन के समान, मुख पर बिखरी रेखाओं के बीच में उठी हुई सुडौल नासिका को गर्व के प्रमाण-पत्र के अतिरिक्त कौन सा नाम दिया जावे! पर वह गर्व मानो मनुष्य होने का गर्व था, इतर अहंकार नहीं; इसी से उसके सामने मनुष्य, मनुष्य के नाते प्रसन्नता का अनुभव करता था, स्पर्धा या ईर्ष्या का नहीं’। (पथ के साथी, पृष्ठ संख्या-10)
सही बात है कि न तो भाषाएँ एक-दूसरे का विरोध करती हैं और न ही साहित्यकार भाषाओं को अलग-थलग करने की चेष्टा करते हैं। कई बार तो साहित्यकार अनुवाद के माध्यम से अपनी रचनाओं को दूसरी भाषाओं के साथ जोड़ देते हैं। जैसे प्रस्तुत अनुवाद को ही देखिए –
प्रश्न——–#रवीन्द्रनाथ ठाकुर
हिंदी अनुवाद : भीखी प्रसाद ‘वीरेन्द्र’
हे प्रभु ! हर युग में बार-बार तुमने अपने दूत
इस निष्ठुर धरा पर भेजे हैं,
बार-बार उन्होंने सुनाया है धरा को प्रेम का संदेश और
कहा है — क्षमा करो, लुटाओ सब पर अपना प्यार और मन को निर्मुक्त करो विद्वेष विष से।
वे सभी वरेण्य हैं, स्मरणीय हैं,
फिर भी आज इस घोर दुर्दिन में
क्षमा मांगते हुए मैं उन्हें वापस लौटा रहा हूं ।
मैंने देखा है गुप्त हिंसा को कपट रात्रि की छाया में असहायों का संहार करते हुए
मैंने देखा है प्रतिकार हीन शक्ति के अपराध के सम्मुख न्याय की वाणी को कोने में छिप कर बिलखते हुए,
मैंने देखा है तरुणों का उन्माद,
देखी है उनकी विफलता और
देखा है उन्हें यंत्रणाविद्ध होकर निरूपाय मरते हुए।
आज मेरा कंठ अवरुद्ध है
वंशी भूल चुकी है अपना संगीत
अमावस्या का घना अंधकार छाया हुआ है चारों ओर
और मेरा सुंदर भुवन दुःस्वप्नों के बीच कहीं खो गया है।
इसलिए आज आंखों में अश्रु लिए बड़ी वेदना के साथ
मैं तुमसे पूछ रहा हूं —
जो तुम्हारे वायुमंडल में घोल रहे हैं विष /
जो बुझा दे रहे हैं तुम्हारा प्रकाश, तुम्हारा आलोक
क्या तुमने उन्हें क्षमा कर दिया है ?
क्या उन पर भी लुटाया है तुमने अपना प्यार?
साहित्यकार एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी नहीं होते वरन् एक दूसरे के लिए ज्ञानवाहक भी होते हैं। ये तो हम पाठकवर्ग हैं, सामान्य जन हैं जो बिना पढ़े, साहित्यकारों को बिना देखे और समझे उनकी अंतरंग भावनाओं को आत्मसात किए बगैर ही स्वयं को भाषाई संकीर्ण मानसिकता के घेरे में बाँध लेते हैं। जबकि एक साहित्यकार दूसरे साहित्यकार की साहित्यिक रचना से प्रभावित होने के साथ ही साथ उसके व्यक्तिगत जीवन से भी शिक्षा ग्रहण करता है। ठीक इसी प्रकार से जैसे महादेवी ने लिखा है, ‘हिमालय के प्रति मेरी आसक्ति जन्मजात है। उसके पर्वतीय अंचलों में भी मौन हिमानी और मुखर निर्झरों, निजर्न वन और कलरव-भरे आकाश वाला रामगढ़ मुझे विशेष रूप से आकर्षित करता रहा है। वहीं नंदा देवी, त्रिशूली आदि हिम-देवताओं के सामने निरंतर प्रणाम में समाधिस्थ जैसे एक पर्वत-शिखर के ढाल पर कई एकड़ भूमि के साथ एक छोटा बँगला कवीन्द्र का था जो दूर से उस हरीतिमा में पीले केसर के फूल जैसा दिखाई देता था। उसमें किसी समय वे अपनी रोगिणी पुत्री के साथ रहे थे और सम्भवतः वहाँ उन्होंने ‘शांति-निकेतन’ जैसी संस्था की स्थापना का स्वप्न भी देखा था; पर रुग्ण पुत्री की चिरविदा के उपरांत रामगढ़ भी उनकी व्यथा भरी स्मृतियों का ऐसा संगी बन गया। जिसका सामीप्य व्यथा का सामीप्य बन जाता है’। (पथ के साथी,पृष्ठ संख्या-12)
महादेवी ने भी अपने जीवन में व्यथा को बहुत समीप से देखा था इसी कारण से भी कवींद्र की व्यथा को और आसानी से समझ सकी थी। महादेवी ने जैसे कवींद्र को सम्पूर्ण रूप में आत्मसात करते हुए ही लिखा था, ‘कवींद्र रवींद्र उन विरल साहित्यकारों में थे जिनके व्यक्तित्व और साहित्य में अद्भुत साम्य रहता है। जहाँ व्यक्ति को देखकर लगता है मानो काव्य की व्यापकता ही सिमटकर मूर्त हो गई है और काव्य से परिचित होकर जान पड़ता है मानो व्यक्ति ही तरल होकर फैल गया है’। (पथ के साथी,पृष्ठ संख्या-9)
महादेवी ने अपने जीवनकाल में कवींद्र को तीन बार देखा था। दुर्भाग्य देखिए, जैसे आज भी भारत में भाषाई मतभेद है, बुद्धजीवियों के विचारों को सुनने-समझने को लेकर उदासीनता है तब भी थी। बिना ‘नॉवल पुरस्कार’ के भी ‘रवींद्र, ‘कवींद्र’ ही थे, लेकिन उस कवींद्र को भी अवहेलना का सामना करना पड़ा था। ध्यान रहे, इसमें न तो किसी भाषा की कोई भूमिका थी और न किसी साहित्यकार की। इसमें जनमानस की मानसिकता की महत्वपूर्ण भूमिका अवश्य थी। खैर, हिंदी भाषी साहित्यकार महादेवी वर्मा बांग्ला भाषी रवींद्र की अवहेलना को देखकर लिखने के लिए बाध्य हुई थी कि, ‘तीसरी बार उन्हें रंगमंच पर सूत्रधार की भूमिका में उपस्थित देखा। जीवन की संध्या वेला में ‘शांति-निकेतन’ के लिए उन्हें अर्थसंग्रह में यत्नशील देखकर न कुतुहल हुआ न प्रसन्नता; केवल एक गंभीर विषाद की अनुभूति से ह्रदय भर आया। हिरण्यगर्भा धरतीवाला हमारा देश भी कैसा विचित्र है! जहाँ जीवन-शिल्प की वर्णमाला भी अज्ञात है वहाँ वह साधनों का हिमालय खड़ा कर देता है और जिसकी उंगलियों में सृजन स्वयं पुकारता है उसे साधन-शून्य रेगिस्तान में निर्वासित कर जाता है। निर्माण की सबसे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि शिल्पी और उपकरणों के बीच में आग्नेय रेखा खींच कर कहा जाय कि कुछ नहीं बनता या सब कुछ बन चुका! (पथ के साथी,पृष्ठ संख्या-13)
रवींद्र की एक बांग्ला कविता का हिंदी अनुवाद ‘आत्मत्राण’ शीर्षक से आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने किया था जिसकी पंक्तियां हैं –
‘विपदाओं से मुझे बचाओ,
यह मेरी प्रार्थना नहीं,
केवल इतना दो (करुणामय)
कभी न विपदा में पाऊँ भय।
दुख-ताप से व्यथित चित्त को न दो सांत्वना न सही
पर इतना होवे (करुणामय)
दुख को मैं कर सकूँ सदा जय’। (कक्षा 10 NCRT की हिंदी पुस्तिका)
महादेवी ने अपनी कविता ‘वे मुस्काते फूल नहीं’ में ईश्वर को ललकार कर कहा-
‘क्या अमरों का लोक मिलेगा-
तेरी करुणा का उपहार,
रहने दो है देव! अरे
यह मेरा मिटने का अधिकार। (गूगल सौजन्य)
अभिव्यक्ति की भाषा दोनों की भले ही अलग थी लेकिन भावनाओं की साम्यता दोनों को समीप ले आई। दोनों ने जीवनरूपी समुद्र मंथन से निकले अमृत और विष दोनों को चखा था। इसी के परिणामस्वरूप महादेवी ने ‘पथ के साथी’ को रच दिया और रवींद्र के विषय में भी पूर्ण आत्मविश्वास के साथ लिखा कि, ‘अमृत को अमृत और विष को विष के रूप में ग्रहण करके तो सभी दे सकते हैं। परन्तु विष में रासायनिक परिवर्तन कर और उसके तत्वगत अमृत को प्रत्यक्ष करके देना किसी विदगद्ध वैद्य का ही कार्य रहेगा।
कवींद्र में ऐसी क्षमता थी और उनकी इस सृजन शक्ति की प्रखर विद्युत को आस्था की सजलता संभाले रहती थी। यह बादल भरी बिजली जब धर्म की सीमा छू गई तब हमारी दृष्टि के सामने फैले रूढ़ियों के रंध्रहीन कुहरे में विराट मानव-धर्म की रेखा उद्भासित हो उठी’। उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा जो पहले नहीं कहा गया था, पर इस प्रकार सब कुछ कहा है जिस प्रकार किसी अन्य युग में नहीं कहा गया’। (पथ के साथी, पृष्ठ संख्या-13)
एक महान साहित्यकार वही होता है जो भाषा, धर्म, जाति, क्षेत्र आदि से ऊपर उठकर मानव-धर्म को सम्पूर्ण विश्व में स्थापित करता है। ऐसे साहित्यकार के सामने बिना किसी टालमटोल के विश्व नतमस्तक होता है और जब ऐसा साहित्यकार अपना पार्थिव शरीर त्याग देता है तो एक शून्यता फैल जाती है जैसी शून्यता महादेवी के मन-मस्तिष्क में फैल गई थी। लेकिन, ऐसी महान विभूतियाँ लौकिक रूप में हमारे साथ न रहते हुए भी अलौकिक रूप में पथ प्रदर्शन करती ही रहती हैं जैसा पथ प्रर्दशन महादेवी को मिला था,’जान पड़ा, जैसे उस साहित्यकार-अग्रज ने हमारे अनजान में ही हमारे छोर में अपना उत्तराधिकार बांधकर विदा ली है। दीपक चाहे छोटा हो या बड़ा, सूर्य जब अपना अलोकवाही कर्तव्य उसे सौंपकर चुपचाप डूब जाता है तो तब जल उठना ही उसके अस्तित्व की शपथ है- जल उठना ही जानेवाले को प्रणाम है’। (पथ के साथी,पृष्ठ संख्या-17)
तो इतना तो तय है भाषा, साहित्य और साहित्यकार चिंतन क्षमता ही बढ़ाते हैं विभेद कभी नहीं करते आवश्यकता है कि पाठक उनकी कही बात को समझने का प्रयास करे न कि अपनी कथनी को ही उनका विचार समझकर इंटरनेट की दुनिया में वायरल करता रहे।
डॉ सुपर्णा मुखर्जी हिंदी प्राध्यापिका भवन्स, विवेकानंद कॉलेज सैनिकपुरी, सिकंदराबाद-500094