विशेष लेख: राम कथा का विज्ञान दर्शन

[आजकल राम और रामायण की गूंज सर्वत्र हो रही है। राम कथा के अमर गायक गोस्वामी तुलसी दास और रामचरितमानस पर यह एक नया दृष्टि कोण और नया चिंतन है।]

विज्ञान और दर्शन का उद्देश्य

विज्ञान और दर्शन, दोनों का ही उद्देश्य है सिद्धांतों की खोज (अथातो ब्रह्म जिज्ञासा- वे.द. १.१.)

राम कथा का केन्द्रीय विन्दु: अयोध्या, क्योकि वहीँ से रामकथा का प्रारंभ और वहीं समापन है.

अयोध्या का निहितार्थ: अ + युध्य = अयोध्या, अर्थात जहाँ युध्य और द्वंद्व न हों, सुख-शांति हो. इसका एक सुदरा नाम है अवध. अ+वध = अवध, जहाँ अपराध न हो, पाप न हो, जहाँ वध करने जैसी सजा की आवश्यकता ही न हो, वह है अवध नगरी.

योग का अर्थ: योगश्चित्वृत्ति निरोधः (योग-१.२) चित्त वृत्तियों का निरोध ही योग है.

अयोध्या का राजा: दशरथ

दशरथ कौन? अर्थात जो शरीर रूपी रथ में जुते दस घोड़ों (5 कर्मेन्द्रियाँ + 5 ज्ञानेन्द्रियाँ) को वश में रखे. (आत्मानं रथी)

योग पथिक दशरथ: ‘योग कर्मशु कौशलं’, ‘समत्वं योग उच्यते’, समदर्शी, समत्व की स्थिति अर्थात शांति व्यवस्था कायम, सुख, प्रसन्नता की स्थिति.

दशरथ की तीन पत्नियाँ: “त्रिगुण” (सत + रज + तम)

योगी दशरथ को पुरुषार्थ की प्राप्ति: चार पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न.

पुरुषार्थी वृत्ति: यह दाता वृत्ति है, दान वृत्ति है. लोक कल्याणार्थ धर्म (राम) और अर्थ (लक्ष्मण) को सुपात्र (विश्वामित्र) के हाथों नियोजित करना है तथा धर्म का कार्य अव्यवस्था रूपी तड़का-सुबाहु से सृजन-यज्ञ रूपी संस्थानों, प्रयोगशालाओं की सुरक्षा करना है.

राम: धर्म का प्रतीक है- ‘धारयति असौ सः धर्मः’ अर्थात जो हमारे अस्तित्व को धारण करे वह धर्म है. अथवा जिससे हमारा अस्तित्व है, जिसके अभाव में हम अपनी पहचान, अस्मिता खो देते हैं, मानवता, इंसानियत खो देते है, वह धर्म है. इस परिभाषा के अनुसार हम मानव हैं, इंसान हैं, अतः हमारा प्रथम धर्म है मानवता. मानवता हमारे तन, मन, सोच, चिंतन और आचरण से निःसृत होता है; इसलिए इसका नाम राम है. यही हमारे तन-मन में विराजमान है- ‘रम्यते इति रामः’ अर्थात जो हमारे शरीर में, कार्य में, आचरण में रम रहा है, वही राम है और वही है हमारा धर्म. मानवीय दृष्टि-चिंतन के अनुरूप इस राम के कई रूप है, अपनी-अपनी सगुण-निर्गुण अनुभूतियाँ हैं-‘एक राम दशरथ का बेटा, एक राम है घर-घर लेटा, एक राम का सकल पसारा, एक राम है सबसे न्यारा’.

लक्ष्मण: यह अर्थ का प्रतीक है. जिसका लक्ष्य हो राम, जिसका ध्येय हो राम, जिसका उद्देश्य हो राम, वही है- लक्ष्मण. धर्म के साथ जुड़ जाना और जुड़े रहना ही अर्थ का गौरव और उसकी सार्थकता है धर्म और अर्थ का साथ ही लोक मंगलकारी होता है. अर्थ का साथ होने पर ही धर्म अपने उद्देश्य में सफल हो सकता है. किन्तु यह अर्थ उपयोगी तभी है जब वह भोग, लिप्सा, विलासिता से दूरी बनाये रहे. भोग तो रहेगा लेकिन त्यागमय भोग-‘तेन त्यक्तेन भुंजीथा’. रामरुपी लक्ष्य को छोड़कर जो अन्यत्र न भटके, जो लक्ष्य के लिए जिए और लक्ष्य के लिए ही मरे; वह है- ‘लक्ष्मण’.

भरत: भरत का शाब्दिक अर्थ है- भा + रत (भा= ज्ञान, रत= लीन होना) अर्थात जो सतत ज्ञान में लीन हो, वह है- ‘भरत’. जिसका आचरण, कार्य, ‘काम’ को भी महनीय, नमनीय और वन्दनीय बना दे, व्यवहार में भी उसे परिणत करके दिखा दे, वह है- ‘भरत’. जो काम को हेय दृष्टि से देखने वालों की धरणा बदल कर उसकी सर्वोच्चता का दर्शन करा कर उनके के मन में भी श्रद्धा भाव जो जगा दे, वह है- ‘भरत’.

शत्रुघ्न: कामना तो सर्वव्यापी है, कामना की पूर्ति यदि न हो तो अशांति और क्रोध की उत्पत्ति होती है. परन्तु जिसकी कोई अपनी कामना ही नहीं है, वह है- ‘शत्रुघ्न’. लक्ष्मण की कामना है- ‘राम’, भरत की भी कामना है- ‘राम’, परन्तु जिसे ‘राम’ की भी कामना नहीं, जो वीतरागी है, अलौकिक है, जिसका कोई पराया नहीं, कोई शत्रु नहीं, वही तो है – ‘शत्रुघ्न’. अर्थात जिसने मनोवृत्तियों पर विजय पा ली हो, जीवन मुक्ति की स्थिति में हो, जिसने मुक्ति को, निर्वाण को, कैवल्य को, बका-फ़ना और मोक्ष की प्राप्ति कर ली हो, वही तो है- ‘शत्रुघ्न’. जीवन मुक्त भी जागतिक कार्य करता है, कार्य से मुक्ति नहीं, हो भी नहीं सकती, लेकिन अब वह कार्य ‘निष्काम कर्म’ है, उसका प्रत्येक कार्य निष्काम कर्मयोगी का कार्य है. यह साधक की पूर्णता है. यह कर्म-अकर्म-विकर्म तीनों कोटियों से परे की अवस्था है. ऐसा एक योगी ही कर सकता है, ऐसा ही योगी है- शत्रुघ्न.

दान वृत्ति: पुरुषार्थ वृत्ति की परिणति दान में है. लोक कल्याणार्थ धर्म और अर्थ (राम और लक्ष्मण) को सुपात्र (विश्वामित्र) के हाथों सौंप देना ही इसकी उपादेयता और उपयोगिता है. पुरुषार्थी का कार्य सामाजिक अव्यवस्था, प्रगतिशीलता में बाधक आसुरी प्रवृत्तियों से सृजनशील शोध-संस्थान/प्रयोगशालाओं की सुरक्षा करना भी है. आज भी समर्त्वानों से, संवेदनशीलों से यही अपेक्षा है.

धनुष यज्ञ: धनुष यज्ञ में महायोगी शिव के धनुष को तोडना है. एक योगी ही शिव के धनुष को तोड़ सकता है, कोई दूसरा नहीं. शिव के इस धनुष का नाम ‘पिनाक’ है. और निरुक्त में पिनक का अर्थ है –‘रम्भः पिनाक्मिति दण्डस्य’. अर्थात रंभ और पिनक दंड के नाम हैं. यह पिनक नाम मेरुदण्ड के वाच्यार्थ में है, प्रतिक रूप में यही धनुष है. जो योगी होगा, जिसे योग के षटचक्रों का ज्ञान होगा, वही इस धनुष का मर्म-भेदन कर कुण्डलिनी शक्ति से तोड़ सकता है. इस धनुष के निचले शिरे मूलाधार से उपरी शिरे आज्ञा चक्र तक की यात्रा ही योग की सिद्धि है. इसी आज्ञा चक्र में शिव और शक्ति का मिलन होता है. राम एक योगी है. कुण्डलिनी जागरण द्वारा तड़का- सुबाहु- मारीच रूपी काम-क्रोध- लोभ-मोह पर विजय प्राप्त कर सहस्रार तक की यता पूरी की थी. इसी सहस्रार (पुष्प वाटिका) में सहस्रदल कमल खिलता है. इसी पुष्प-वाटिका में शिवरूपी राम का शक्तिरूपी सीता से प्रथम परिचय होता है. यहीं ‘शिव-शक्ति’ का मिलन होता है. धनुष यज्ञ के माध्यम से राम-सीता विवाह की कहानी शिव-शक्ति के मिलन की ही कहानी है. जो योगी नहीं होगा, धनुष को हिला भी नहीं पायेगा. योगबल के अभाव में तनबल, धनबल, संख्याबल का कोई महत्व नहीं है. इसी का संकेत मानस में इस प्रकार किया गया है -‘भूप सहसदस एकहिं बारा लगे उठावन टरहीं न टारा’.

अ-दृढ़ योगी ‘दशरथ’:

योगपथ कंटकाकीर्ण साधना पथ है. थोड़ी सी असावधानी भी योगी को उसके उद्देश्य से, प्राप्य और प्राप्ति से भटका सकता है. उसके जीवन में उथल-पुथल ला सकता है. त्रिगुण रुपी कौशल्या- सुमित्रा- कैकेयी के प्रति भाव असंतुलन दशरथ को ‘शासक दशरथ’ के स्थान से च्युत कर ‘शासित दशरथ’ बना देता है. आकाक्षाएँ अधूरी रहती हैं- शोक, पश्चाताप, दुःख, अतिशय दुःख और अंत में मृत्यु. सहस्रार तक की यात्रा पूरी न कर पाने के कारण तत्व साक्षात्कार से भी वंचित.

रामरूपी धर्म-साधक का कार्य:

रामरूपी धर्मसाधक का कार्य है- साधना; स्वयं को, समाज को, लोक को भी. इस साधना के चार सोपान हैं- बुद्धि, चित्त, मन, और अहंकार.

(अ) प्रथम सोपान (बुद्धि जगत):

जहाँ बुद्धि है, वहां द्वंद्व है, विचारों में अनेकता है, अपने-अपने तर्क वितर्क है. जहाँ द्वंद्व न रहे, द्वंद्वों से मुक्ति मिले, वही है अयोध्या. अतएव अदोध्य में घटित समस्त लीलाएं, साधना और साधक की भौतिक लीला है.

(ब) द्वितीय सोपान (चित्त जगत):

‘चित्त’ अत्यंत सूक्ष्म है, यही स्मृतियों और यादों का भंडार है, स्थूलरूप में यही चित्रकूट है. चित्रकूट की सभी लीलाएं चित्त जगत की हलचल हैं, भाव तरंगों का बनना, … मिटना, पुनः पुनः बनना.. यादें … विस्मरण… इसी की प्रधानता है. चित्त की पांच अवस्थाएं है –“क्षिप्त मूढं विक्षिप्तमेकाग्रम निरुद्धमिति चित्तभूमण.”(योग १.१.)

(स) तृतीय सोपान (मानस जगत):

मन अत्यंत चंचल है. यहाँ कामनाएं औए लोकेषणायें हेलोरें मारती हैं. उचित-अनुचित भी समझ में नहीं आता. बौद्धिक जगत के समाधान अब अस्थायी लगने लगते हैं. कुछ समझ में नहीं आता, जो होता है वह दीखता नहीं, जो दीखता है, वह होता नहीं: यहाँ पूरी तरह मृग मरीचिका की स्थिति है. असंभव कंचन मृग भी वास्तविक लगाने लगते हैं और बुद्धि मोहित हो जाती है. पंचवटी ही मन है. पंचवटी की सारी लीला साधक के मानसिक क्षेत्र की लीला है. इसी को विजित करना है. मन को यदि नियंत्रित नहीं किया गया तो समझो विस्वामित्र की तपस्या गयी… सूर्पणखा की नाक (मर्यादा) और तपस्वी राम की शक्ति (सीता) भी गयी… (अपहृत कर ली गयी).

(द) चतुर्थ सोपान (अहंकार):

भौतिक सम्पन्नता की प्राप्ति पर अहंकार आता है. इस अहंकार के विविध रूप है. यह धन का, ज्ञान का, शक्ति का, राज्य का होता है… यही साधक के अन्तः का राजमद है, और यही रावण है. इसी रावण रुपी अहंकार को परास्त करना है. रावण के दस सिर हैं, इसका तात्पर्य है की दसों इन्द्रियां स्वच्छंद हैं, रावण उन्मुक्त, मदमस्त है. इस रावण पर विजय प्राप्ति का एकमात्र उपाय है- ईश्वरीय पूजा, साधना और उपासना।

रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग की स्थापना:

पूजन का उद्देश्य है- तत्व साक्षात्कार, सिद्धांतों की खोज, उसकी व्याख्य तथा अशिक्षितों को शिक्षित-प्रशिक्षित करना. वेदांत कहता है- “जन्माद्यस्य यतः” अर्थात जिससे इस जगत का जन्म, जिसमे स्थिति और प्रलय होता है; वह ब्रह्म सिद्धांत जानने योग्य है. धर्म के प्रतिनिधि के लिए यह अनिवार्य कार्य है. साधक राम ने गुरु वशिष्ठ और विस्वमित्र के साथ अन्य ऋषियों से वेद-वेदांग का अध्ययन किया है. वे भली प्रकार जानते हैं कि इस ब्रह्माण्ड का स्रोत (नाभिक) क्या है? वेद जहाँ “वेदाहमस्य भुवनस्य नाभिम” (यजु. 26/60) कहकर इसे रेखांकित किया है. गीता ने इसे ही जहाँ “सर्वभूतानाम् बीजम्” तथा “प्रभवः प्रलयः स्थान निधानं बीजम् अव्ययम” कहकर संकेत किया है, वहीँ विज्ञान ने सुप्रसिद्ध ‘बिगबैंग थियरी’ द्वारा विश्लेषित किया है. साधक राम यही कार्य अपनी तरह से कर रहे हैं, निरक्षरों, अशिक्षितों को विज्ञान-दर्शन पढ़ा रहे हैं.

राम ने उपस्थित सभी सहयोगियों को समझाया; सृष्टि और प्रलय प्रकृति का शाश्वत नियम है. दृष्टिगत यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड प्रलयकाल में अत्यंत घनीभूत होकर एक विंदी में विलीन हो जाती है, यह विन्दु ही सर्वोच्च सत्ता है. इसलिए रावण को परास्त करने के लिए इस ज्ञान का, सिद्धान्त रूपी ब्रह्मा सत्ता का, शिव सत्ता की आराधना सर्वथा उचित है, यही श्रेयष्कर है. इसे ही-‘लयं गच्छति भूतानि संहारे भूतानिखिलं यतः I सृष्टिकाले पुनः सृष्टिस्माद लिंगमुदाहृतं II’ (लिंग पुराण-99.8).

विन्दु की आराधना, विन्दु का पूजन, विन्दु में सिन्धु समाहित हो जाने की बात वानरी सेना की समझ में नहीं आई. तब राम ने मुट्ठी-भर रेत हाथ में लेकर एक गोलाकार पिंड बनाया, मंत्रोच्चार के साथ स्थापित किया. राम समझाते रहे यही पिंड प्रकारांतर से ब्रह्मा- विष्णु- महेश का प्रतीक है. शास्त्र वचन है- ‘मूले ब्रह्मा तथा मध्ये विष्णुस्त्रिभुवनेश्वरः / रुद्रोपरिमहादेवः प्राणवाख्यः सदाशिवः //’ वानरों की समझ में अब भी नहीं आया, तब राम ने पिंड को अंडाकार बनाया; उसके निचे अरघा (जलहरी) बनाया और अपनी व्याख्या को और भी सरल, सहज ढंग से समझाया- यह अंडाकार पिण्ड ‘ब्रह्माण्ड पुरुष सिद्धांत है’ तथा यह अर्घ ‘ब्रह्माण्ड नारी सिद्धांत’. युग्मरूप में यही ‘शिव-शक्ति’ सिद्धांत है, यही अर्द्ध-नारीश्वर, यही सृजनहार है- “लिंगदेवी महादेवी लिंगसक्षान्महेश्वरः / तयो सम्पूजनानित्यं देवी देवस्च पूजनम”.

शिवतत्व ही परमतत्व है, विलक्षण है, यही सर्वस्व है ; इसे न केवल अध्यात्म तक सीमित किया जा सकता है, न केवल विज्ञान तक. यह असीम, कल्याणकारी ‘शिवम’ है, न ही यह ‘पुलिंग’ है, न स्त्रीलिंग और न हि नपुंसकलिंग है. यह ‘ब्रह्माण्ड लिंग’ मात्र है. यही राम को सर्वप्रिय है, इसे ही स्थापित कर राम ने पूजित किया था- “लिंग थापि विधिवत कर पूजा शिव सामान प्रिय मोहि न दूजा”. सिद्धांत रूप में इसे अध्यात्म और विज्ञान दोनों ने ही सामान रूप से स्वीकार किया है. केवल गोल पिंड ‘न्यूट्रान’ है, अरघा सहित पिण्ड ‘हाइड्रोजन’ या ‘अर्द्धनारीश्वर’ रूप है. बिगबैंग (अण्ड-विस्फोट) से, शब्द ब्रह्म से, ध्वनि-ऊर्जा से ब्रह्माण्ड की सृष्टि हुई है. इस तत्व दर्शन ने वानरों के अन्तः से भय को समाप्त कर दिया, ज्ञान की चेतना उत्पन्न दी. ज्ञानचक्षु खुलने से अहंकार रुपी लंका पर विजय संभव हो पाया. साधक राम को भी उनकी अपहृत शक्ति (सीता) प्राप्त हुई. यही है राम-कथा का संक्षिप्त विज्ञान-दर्शन जो अपने अन्तः में अनेक सिद्धांतों के समेटे हुए है. आवश्यकता बस ध्यानमग्न होकर ढूँढने, अनुसन्धान करने और खोजने की है.

डॉ जयप्रकाश तिवारी लखनऊ, उत्तर प्रदेश
संपर्क: 9453391020

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