अदम गोंडवी ने कहा है-
अचेतन मन में प्रज्ञा कल्पना की लौ जलाती है।
सहज अनुभूति के स्तर पे कविता जन्म पाती है।
इन पंक्तियों में एक इशारा है कि कविता मूलतः अचेतन मन की उपज है। सचेतन मन से श्रेष्ठ कविता का जन्म ले पाना कठिन है। इसके लिए उस अवस्था में जाना पड़ता है, जहाँ ‘मैं’ परिवर्तित होकर ‘हम’ हो जाता है और हम स्वयं से दूर होकर स्वयं व स्वयं के अनुभवों को देखते हैं। चंद्र प्रकाश दायमा जी का काव्य-संग्रह ‘पानी सब डालेंगे ही’ में इसी अवस्था में रची गई रचनाएँ हैं। इसी कारण पढ़ते या सुनते समय पाठक व श्रोता को लगता है कि ये रचनाएँ उसके अपने अनुभवों का आईना हैं।
व्यावहारिक दृष्टि से सफल साहित्यकार वह है जो पाठक को पढ़ते समय रोचक एवं प्रभावी लग सके, उसमें जिज्ञासा जगा सके। दायमा इस कसौटी पर खरे उतरते हैं। पानी सब डालेंगे ही शीर्षक सुनते ही मन में जानने की इच्छा होती है कि कवि ने यह नाम क्यों रखा। पानी के भिन्नार्थों का प्रयोग तो साहित्य में होता ही रहा है, इन्होंने ‘सौ सयाने एक मता’ लोककथा को इसकी पृष्ठभूमि बनाकर एक अनोखा सफल प्रयोग किया है।
शीर्षक दायमा जी के निम्न छंद का अंश है-
पानी सब डालेंगे ही, तुम दूध डालो बस
आदमी के बीच में इनसान बन जाइए जी…
प्रकाशन है- बोधि प्रकाशन जयपुर से। जो अपने द्वारा प्रकाशित साहित्य को जन-जन का साहित्य मानता है। यह बात दायमा जी की रचनाओं से प्रमाणित भी हो जाती है। इनकी रचनाओं का लक्ष्य मात्र स्वांतः सुखाय न होकर बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय है। ऐसा लगता है कि वे अपनी नहीं हम सबकी बात कह रहे हैं।
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पुस्तक पढ़ते समय निम्नलिखित पंक्तियाँ सजीव हो उठती हैं-
पलटता हूँ कोई पन्ना तो यों एहसास होता है
नया अध्याय मेरी ज़िंदगी से जुड़ गया कोई।
इस पुस्तक में 39 कविताएँ, 10 छंद और 7 मुक्तक यानी कुल 56 रचनाएँ हैं। पता नहीं यह मात्र संयोग है या दायमा जी ने जानबूझकर ऐसा किया है, क्योंकि छप्पन के कई नवीन प्रयोग वर्तमान युग में बहुत अधिक देखने को मिल रहे हैं, अब तक छप्पन, छप्पन इंच का सीना, छप्पन भोग आदि।
इन्होंने पुस्तक अपनी धर्मपत्नी मधु दायमा जी को समर्पित की है, यह कहते हुए कि ये उनके मधुमय पोषण का ऋण चुका रहे हैं। पुस्तक की सम्मतियाँ लिखते हुए वरिष्ठ साहित्यकार राजेंद्र मोहन शर्मा कहते हैं-
किसी को हो दर्द, और आपको एहसास हो जाए, यहीं हैं चंद्र प्रकाश। अतः कविता के माध्यम से कवि का व्यक्तित्व उपर्युक्त पंक्तियाँ रेखांकित कर रही हैं।
पुस्तक में यह उक्ति पुनः देखने को मिलती है, दायमा जी की कविता में, जहाँ वे कहते हैं-
किसी को हो दर्द. और आपको एहसास हो जाए,
समझ लेना कि उसने आपको देखा है प्यार से।
मधु दायमा जी ने इनकी दो कविताओं का ज़िक्र किया है ‘लटूरलाल’ और ‘गरीबी’। वे कहती हैं कि दायमा जी की कविताएँ ऐसा लगता है कि डमरू बजाकर हमें जगा रही हैं, जैसे-
आओ लटूरलाल, सुनाओ तुम्हारे हालचाल
कैसे बिताये तुमने पिछले पाँच साल।…
क्या कहा, तुम हमको नहीं पहचानते
और क्या रिश्ता है ये भी नहीं जानते
अरे तुम्हारा हमारा तो जन्म-जन्म का रिश्ता है
एक पीसता है तो एक पिसता है।
ऐसा लगता है कि कि कवि हमसे बतिया रहा है। वार्तालाप वाली शैली का प्रभाव इनकी कविताएँ कभी व्यक्ति-चित्र तो कभी शब्द-चित्र उभारती रहती हैं। कवि स्वयं समस्या बताता है, उससे जुड़े प्रश्न खड़े करता है और फिर समाधान भी दिखाकर उसे बड़ा ही खूबसूरत किंतु उपयोगी अंत देता है, यथा-
लटूरलाल
तुम हमारे पलड़े को झुका नहीं सकते हो
क्योंकि तुम एक झंडा कभी बना नहीं सकते हो
और जिस दिन तुम एक झंडा बना पाओगे
लटूरलाल तुम इन झंडों में ही लिपट कर मर जाओगे।
‘गरीबी’ कविता इस पुस्तक की श्रेष्ठ रचनाओं में से एक है-
जिस मकान में हम रहते हैं
वहीं गरीबी भी रहती है..
जिन रईसों की ये औलाद है
उन्होंने इसे हमारे यहाँ छोड़ रखा है…
फिर यह कविता अनेक व्यंग्य बाण छोड़ते हुए समस्याओं की सेना पर चढ़ाई करती है, जैसे-
गरीबी आजकल बहुत मोटी हो गई है…
मकान के कोने-कोने में जम रही है
मेरे कपड़ों पर से हटाता हूँ
तो बच्चों के कपड़ों पर जा बैठती है
जिस थाली में खाती है उसी में छेद करती है
कई बार मुन्ने के टिफिन में चली गई
और फिर कविता के अंत में कवि गरीबी का पता भी देता है-
पता है- गरीबी,
बेवकूफ़, खुद्दार, ईमानदार,
सालों से बोरोजगार, शराफत वाली गली,
मजदूरों का मुहल्ला, किसानों का बाजार,
गरीबी की रेखा से बहुत नीचे।
ग्राम – पुलिस का सताया हुआ
जिला – रईसज़ादों का शौक
वाया – संसद भवन, हिंदुस्तान।
चंद्र प्रकाश दायमा जी की सृजन धर्मिता से उपजी यह कविता अदम गोंडवी जी के उस शेर की याद दिला देती है कि-
घर पे ठंडे चुल्हे पर अगर खाली पतीली है।
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है।
इन रचनाओं में ज़मीनी सच्चाई है। दायमा जी की रचनाएँ जीवन के मौलिक संदर्भों की बातें करती हैं। मायामृग जी ने इन्हें करुणा और आक्रोश के संयोग से उभरे गहन व्यंग्य का कवि माना है। व्यंग्य में चोट करना स्वाभाविक है और चोट भी ऐसी कि आपको एहसास ही न हो कि आपको किसी ने पीटा है। व्यंग्य कवियों की अगर बात की जाए तो कविता में चाहे अशोक चक्रधर हों, शैलेश चदुर्वेदी हों, काका हाथरसी हों, या गद्य में श्रीलाल शुक्ल हों, शरद जोशी हों.. सबकी अपनी शैली है। चंद्र प्रकाश दायमा जी ने भी अपनी अनोखी शैली निर्मित और स्थापित की है, जिससे उन्हें भीड़ में भी पहचाना जा सकता है।
उनकी ‘पागल’ कविता पढ़कर ऐसा लगता है, जैसे- हम भी पागल होते तो अच्छा था। क्योंकि संसार में सुखी होने का सर्वोत्तम रास्ता है- पागल बने रहना। दायमा जी कहते हैं-
यार पागल
तुम्हें तो दुनिया ने बना ही दिया पागल
और तुम पागल हो गए
जहाँ चाहा, जब चाहा वहीं बैठ गए,
और जहाँ चाहा वहीं सो गए।
इस प्रकार की मौलिक और नैतिक मनमर्जियाँ सांसारिक अतिसमझदारी के बंधन में तो संभव नहीं है। आप आगे कहते हैं-
हम ईर्ष्या करते हैं तुमसे पागल
क्योंकि तुम सापेक्ष में सुखी हो
और हम परिप्रेक्ष्य में दुखी हैं।…
यही नहीं वे राम को भी इस संदर्भ में ले आते हैं और कहते हैं-
पागल तुमने तो हानि-लाभ, दुख-सुख
वेदना संवेदनाओं से भी मुक्ति पा ली।
और सामाजिक बंधनों की वो मजबूत जंजीर
जो भगवान राम से भी नहीं कटी, तुमने काट डाली।…
कुछ देर में ही कवि को आभास होता है कि वह समझदारों की दुनिया में ही समझदारों की शिकायत कर रहा है-
ये बातें तो समझदारों से की जाती हैं
और उनकी समझ,
उन्हें न जाने कहाँ-कहाँ नीचा दिखाती है।
इन्हें पढ़कर अनायास ही अतिसमझदारी से दूर ले जाने का निवेदन करती जयशंकर प्रसाद की पंक्ति याद आ जाती हैं-
ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे धीरे
दायमा जी हमें इस अतिसमझदारी वाले कोलाहल के युग से दूर चलने के लिए प्रेरित करते हैं। जहाँ हम अपने भीतर की इंसानियत को बचाए रख सकें-
अब तो हम भी शीशे में देखते हैं
तो बहुत पछताते हैं
वो लोग समझदार हैं
जो तुम्हारी तरह पागल हो जाते हैं।
आगे चलकर प्रेम की वह पीड़ा भी दिखाई दे जाती है जिसे कवि केवल अपना नहीं सबका बताकर छिपाता चल रहा है। इनका एक मुक्तक है-
ढाई आखर कबीर ने किसको दिए,
कुछ बचा ही नहीं आदमी के लिए।
प्रेम का शब्द तो बस किताबों में है
तुम कहो कौन जीता है किसके लिए।
इनकी कविता की एक विशेषता है कि कितनी भी घुमा फिराकर कही जाय, अंततः सीधी बात ही रहती है। वे कहते हैं-
बात अगर सीधी हो तो घुमाव नहीं होता
और घुमाव नहीं होने से, छिपाव नहीं होता
छिपाव नहीं होने से, दुराव नहीं होता
और दुराव नहीं होने से घाव नहीं होता।
पुस्तक में पहली कविता है- हम इतने सभ्य। इसमें कवि सभ्यता के विकास पर ही प्रश्न चिह्न खड़ा कर देता है कि कहीं यह असभ्यता का विकास तो नहीं।
हम इतने सभ्य हो गए
कि सभ्यता का नाम मिट गया है
घर का बादशाह
अपने ही प्यादे से पिट गया है।….
वे आगे आगाह करते हुए कहते हैं-
आज ही जी लेता हूँ अपनी जिंदगी
क्योंकि मैंने सुना है
उधारी अक्सर डूब जाती है।
वर्तमान युग में आदमी से आदमी के बीच की बढ़ती दूरी कवि को पीड़ित करता है, कवि इस व्यथा में अनायास ही कहते प्रतीत होते हैं-
अब तो विश्वास पर भी विश्वास नहीं होता।
गले से लगा आदमी भी पास नहीं होता।
उनकी कविता ‘कुत्ते की पूँछ’ जिसका जिक्र अपनी बात में कवि स्वयं करते हैं, और बताते हैं कुत्ते की पूँछ को नली में रखकर सीधा करने के प्रयास की बजाय उसे काट दिया जाए तो बेहतर है। ‘डर’ कविता एक प्रकार के मनोविकार से दूर करने की कविता है। ‘चोर’ कविता में बताया गया है कि चोर द्वारा की गई चोरी तो एक मजबूरी है, कुछ लोग हैं जो बिना मजबूरी के भी चोरी करते हैं किंतु चोर नहीं कहे जाते। ‘कश्मीर’ की आरंभिक पंक्तियाँ
कश्मीर में कोई मरता है
तो हमें क्या फर्क पड़ता है
वाक्य दर वाक्य, शब्द दर शब्द, हमें मौत नामक सच्चाई की ओर ले जाती हैं, और पुनः ज़िंदगी की ओर लौटा लाती हैं। सकारात्मकता उनके काव्य की सबसे बड़ी खूबी है। ‘पतझड़’ कविता के माध्यम से पत्तों की तुलना में मनुष्य की तुच्छता साबित कर देना, ‘सजा’ कविता के माध्यम से न्याय की लचर व्यवस्था को आईना दिखा देना। भागीरथ कविता के माध्यम से धन के बढ़ते महत्व से उपजी समस्या को उभारना, जैसे-
तुम्हारी जगह यदि मैं होता भागीरथ
तो गंगा की एक बूँद भी मुफ्त नहीं देता
मुर्दा बहाने के 500 रुपये लेता
और 5000 लिए बिना जिंदा बहाने नहीं देता
डुबकी लगाने से लेकर
बाँध बनाने तक की रेट लिस्ट होती।
इसी प्रकार रावण कविता जिसमें आपने रामायण के पात्रों की वर्तमान दशा में चरित्र चित्रण किया है-
तुम्हें पता है
यहाँ तो रावण की परवरिश में राम पल रहे हैं
और राम के आदर्श पेट की आग में जल रहे हैं
विभीषण, अब राम ही का भेद लेता है,
और हनुमान अब लंका में पहरा देता है
और मेघनाथ से नागपाश ले राम पर चलाता है
कैकेयी अब गली मोहल्ले में मिल जाती है
और मंथरा भी अपना चक्र वैसे ही चलाती है
यहाँ तो सबकुछ उलटा सीधा चल रहा है…
इसी कविता में वे आगे कहते हैं-
लेकिन रोज के सीता दहन को कैसे बचाओगे
जब राम ही के सामने कौशल्या जलाएगी सीता को।
‘मक्खन और चूना’ कविताएँ नवीन व्यंग्यात्मक परिभाषाएँ गढ़ना, इनकी विशिष्ट सृजनशीलता का प्रमाण हैं, यथा-
किसी को खुश करने के लिए जो लगाया जाता है
उसे मक्खन कहते हैं,
और जिसे लगाने के लिए, उसे खुश किया जाता है,
उसे चूना कहते हैं।
‘लोभ की सलाइयाँ’ में मन के विकारों जैसे- लोभ, मोह, अभिमान, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध आदि के स्वयं पर प्रभाव और परिणाम के लिए चिंता व्यक्त की गई है।
‘पृथ्वी’ कविता में आपने आज जो मनुष्य की स्वच्छंदता के अधिकार की माँग चल रही है उस भावना पर प्रहार करते हुए पृथ्वी के धीरज को रेखांकित और प्रणाम किया है।
इस पुस्तक की एक खासियत यह भी है कि इसका आरंभ चंद्र प्रकाश दायमा जी की कविता से होता है और अंत मधु दायमा जी की कविता से। संगति का असर कहें, या एकत्व की महिमा, मधु दायमा जी की ‘सूर्यदेव’ नामक यह कविता कहीं से पीछे नहीं हैं-
हे ग्रहों के राजा सूर्य
करते हैं हम तुम्हें नमन
जाने कैसा है तुम्हारा मन
जो जलते हो, दूसरों को जीवित रखने के लिए
शुद्ध सुंदर पारिवारिक सांस्कृतिक प्रयोग इनकी विलक्षणता दर्शाता है-
गर्मियों में बड़े बुजुर्गों की तरह तुमसे डरते हैं
जैसे नई दुल्हन जेठ से परदा करती है
ऐसे ही तुमसे परदा करते हैं।
इस रचना के प्राण हैं निम्नलिखित वाक्य-
वैसे जलते तो हम भी हैं
लेकिन फर्क है
तुम दूसरों को पालने के लिए जलते हो
हम दूसरों के पलने से जलते हैं…
अंत में मधु दायमा जी सूर्यदेव से वरदान माँगते हुए इस रचना का अंत करती हैं-
हमें भी अपनी तरह जलना सिखा दो।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि भाव, भाषा, शैली, शिल्प, अलंकरण, रस, औचित्य, श्रुति मधुरता, स्पष्टता, प्रवाह, लय-तान, बिंब, लोकमंगल की साधना आदि सभी काव्यत्मक गुणों की यथोचित वैविध्यता लिए यह अपने आप में एक अनोखी पुस्तक है।
समीक्षक डॉ. राजीव सिंह नयन
पुस्तक का नाम – पानी सब डालेंगे ही (काव्य-संग्रह)
कवि – चंद्र प्रकाश दायमा
प्रकाशन – बोधि प्रकाशन, जयपुर
मूल्य- 150 रुपये
प्रकाशन वर्ष – 2024