रामनवमी पर्व दिनांक 6 अप्रैल को है। भगवान श्रीराम के अवतरण / प्राकट्योत्सव दिवस को रामनवमी कहा जाता है। “रामनवमी” के संदर्भ को अनेक कारकों, कारणों और दृष्टियों से भी देखा जा सकता है। कुछ प्रमुख कारण, विवेचन दृष्टि को निम्नलिखित शीर्षकों में भी देखा जा सकता है।
(क) भौतिक दृष्टि:
भौतिकवादी इस जगत में विकास को जड़ तत्त्व अजीव जड़ तत्त्व जल से सजीव की उत्पत्ति और उसका विकास मानते हुए एक कोशीय अमीबा सदृश जलीय जीव से सर्वोच्च विकसित मानव जगत तक का एक क्रमिक विकास मानते हैं। इस क्रम में वे चिंतक क्रमश: एक कोशीय अमीबा इत्यादि सूक्ष्म से बहुकोशीय जल जीवन को मत्स्य रूप (जलचर), कच्छप रूप (उभयचर), कूर्म रूप (थलचर), नृसिंह रूप (अर्द्ध मानव), वामन रूप (लघु मानव), परशुराम रूप (मानव), श्रीराम (मर्यादा पुरुषोत्तम) का विकास मानते हैं। बाद में यह विकास की यह शृंखला श्रीकृष्ण (पूर्ण मानव) और तथागत बुद्ध (कारुणिक मानव) और कल्कि (भविष्य मानव) तक जा पहुंचती है। इस भौतिक चिंतन में ही आध्यात्मिक चिंतन के बीज स्पष्ट रूप से दिख जाते हैं।
पाश्चात्य दर्शन की दृष्टि से भविष्य का मानव “नित्से” के चिंतन में जहां एक भयानक अतिमानव रूप में प्रस्तुत होता है, वहीं भारतीय दर्शन में “श्रीअरविंद” के दर्शन में भी यह अतिमानव के रूप में कल्पित है। किंतु यहां महाम अन्तर है; श्रीअरविंद का अतिमानस नित्से की भांति भयावह और अशुभ जैसा नहीं है, इसके विपरीत शुभत्व और आदर्श की पराकाष्ठा है। वह परमादर्श है, परमशुभ है और कहा जा सकता है कि वही “कल्कि” स्वरूप है जिसके कल्पना पुराणों में की गई है। जिसके अवतरण की प्रतीक्षा सनातन संस्कृति कोअगतार उत्सुकता से कर रही है।
(ख़) आध्यात्मिक दृष्टि:
भौतिक दृष्टि जड़ से सृष्टि का विकास माना वही सनातन संस्कृति ने प्रकृति और पंचमहाभूतों की पृष्ठभूमि में भी चेतन सत्ता को ही देखा। भौतिक वादियों ने यदि जल को जड़ कहा तो सनातन संस्कृति ने जल में चेतना को देखा, देवत्व को देखा और उसे वरुण देव कहा। चेतना में प्रभव (उत्पादन) इशन (शासन/पोषण) शक्ति होने के कारण ही इसे “प्रभु” कहा। इस जीव में ही “शिव”, शिव में “शक्ति”, जन में “जनार्दन”, नर में “नारायण” के दर्शन किए। सृष्टि में आदर्श स्थापना हेतु इसी “नारायण” के विभिन्न अवतार/प्राकट्य सिद्धांत में दृढ़ विश्वास और श्रद्धा निरन्तर बनाए रखा है।
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(ग) सामाजिक दृष्टि:
समाज संवेदनशील जीवों का एक ऐसा समूह है जिसमें समय-समय पर और मांग और आवश्यकता के सापेक्ष परिवर्तन, संशोधन और परिवर्द्धन लगातार होते रहते है। ये संशोधन ही समाज की प्रगतिशीलता का निर्धारण करते है। जो समाज यह अपेक्षित संशोधन नहीं कर पाता है वह विकास की दौड़ में पिछड़ जाता है अथवा विलुप्त हो जाता है। यह नियम केवल मानव जगत पर ही नहीं, कीट-पतंगें, पशु-पक्षी, नागर-आदिम सभी पर समान रूप से लागू होता है।
जब समाज में कलह-कोलाहल, मार-काट, खून-खराबा अत्यधिक बढ़ जाता है तो शांति, सौहार्द्र, सद्भाव की स्थापना हेतु “मर्यादा”, “संयम” और “विवेक” की महती आवश्यकता होती है। परशुराम द्वारा जब 21 बार समाज के एक वर्ग की नृशंस हत्या एक मर्यादित धीर, गंभीर, आदर्श मानवता की मांग कर रही थी, उसी मांग के क्रम में मर्यादा पुरुषोत्तम रूप में श्री राम का अभ्युदय, प्राकट्य हुआ, जिसके कार्यों और जीवन शैली को समाज का भरपूर लाभ, प्यार और स्वीकार्यता मिली। यह आदर्श और स्वीकार्यता आज भी एक मानक रूप में पथप्रदर्शक भूमिका में न केवल स्वीकृत है अपितु मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में मानव से देवत्व कोटि में परिणत होकर उनके जन्म दिवस ने एक महापर्व और त्यौहार का रूप ले लिया है जिसे “रामनवमी” पर्व के रूप में सभी सनातनी हर्षोल्लास और धूमधाम से प्रत्येक वर्ष मनाते हैं।
(घ) राजनीतिक दृष्टि
राजनीति और सत्ता का इतिहास प्रारंभिक काल से ही कल-बल-छल, विश्वासघात, न्याय-अन्याय की अनेक कहानियों से भरा पड़ा है। राजनीति, सत्ता और सिहासन के लिए वीभत्स संघर्ष राज्य की सीमा विस्तार हेतु ही नहीं, राजपरिवार में भी होते रहे हैं। रामकथा या रामायण (राम का आयन, घर) एक ऐसी दिव्य कहानी है जहां राजमुकुट निष्ठुरता और दृढ़ता से उपेक्षित में ठुकराए गए है, तिरस्कृत किए हैं, उछाले गए है और आपसी स्नेह, सद्भाव, प्यार और आपसी संबंधों को सर्वोपरि स्थान मिला है। सिंहासन पर स्नेह सम्बन्ध को सर्वोच्च वरीयता मिली है। भारतीय संस्कृति ही नहीं, विश्व संस्कृति में इस प्रकार का कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता।
(च) धार्मिक दृष्टि:
“धर्म” आस्था और विश्वास के साथ साथ लोकहित का भी करें और निवारण है। लोक कल्याण के लिए धार्मिक नियम, लोक अनुष्ठान और व्यक्ति के लिए भी अनुष्ठान धर्मशास्त्र ही बताते हैं। वे ही शुभ और अशुभ, उचित और अनुचित, पाप और पुण्य आदि का निर्धारण करते हैं। पुण्य के लिए पारितोषिक और पाप के लिए दण्ड का विधान धर्मशास्त्र ही करते है। धर्मशास्त्र ही बताते हैं कि लोक विधान से ऊपर भी कोई शाश्वत विधान हैं। कोई अपराधी या पापी इस न्यायालय से यदि किसी प्रकार बच भी जाए तो उस सर्वोच्च सत्ता से नहीं बच सकता। इस सर्वोच्च सत्ता की परिकल्पना सभी धर्मों की अपनी अलग अलग भले ही है किंतु सभी सत्य और असत्य, शुभ और अशुभ, उचित और अनुचित को मानते हैं। उस सर्वोच्च सत्ता के परम न्यायशील होने के विश्वास से समय मानव बुराइयों से बहुत हद तक बच जाता है। सभ्य समाज के लिए यह एक बहुत बड़ा उपहार है।
धार्मिक मान्यताएं गई कि सर्वोच्च सत्ता समाज सुधार और लोकहित के लिए, सर्व कल्याण के लिए पथ प्रदर्शक भी भेजता रहता है। और जबकभी समाज अन पथ प्रदर्शकों की भी नहीं सुनता और अधर्म विध्वंशकारी हो जाता है तो वहीं सत्ता मानव रूप में अवतरित हो अशुभत्व का नाश और शुभत्व की संस्थापना करती है। रामायण, मानस, गीता और दशमग्रंथ श्लोक, चौपाई और गुरुवाणियां इसका सबल उल्लेख करती है। त्रेतायुग में इसी अधर्म का विनाश और धर्म की संस्थापना, भक्तों की सुरक्षा के लिए श्रीराम का अयोध्या की धरा पर अवतरण/प्राकट्य हुआ था।
(छ) वरदान और शाप दृष्टि:
वरदान और शाप भी व्यक्ति के अपनी निजी कर्म और कर्मफल का परिणाम है। प्रयेक कर्म का औचित्य के अनुरूप शुभ या अशुभ फल होता है, यह हमारे दैनिक दिनचर्या से भी शत प्रतिशत प्रमाणित है। उग्र, कठिन और सकाम साधना के लिए वह सर्वोच्च सत्ता प्रकट होकर वरदान भी देती है और अशुभ कर्म के लिए शाप भी देती है। ईश्वर के निकट रहने वाले भी इस शाप और दण्ड से बच नहीं पाते है। दुघर्ष, भंयकर राक्षस, असुर भी कभी ईश्वर के निकतस्थ (पार्षद) रहें है जो ईश्वर के शाप अथवा ऋषि – मुनियों के शाप से राक्षसी योनि में जन्म लेते हैं। किंतु करुणा के वशीभूत होकर उन्हे मुक्ति का आशीष/वरदान भी देते है। इन्हीं वरदानों के कारण कभी पुत्र/पुत्री रूप में और कभी मुक्ति प्रदान करने हेतु ईश्वरीय सत्ता अवतीर्ण भी होती है। मनु – शतरूपा के तपस्या के फल, “वरदान” और रावण, कुंभकर्ण आदि को “दण्ड/मुक्ति” हेतु राम का अवतरण माना जाता है।
(ज) वेदान्त दृष्टि:
अध्यात्म और वेदान्त की दृष्टि अनोखी और विचित्र होती है। वेदांत केवल एक अद्वितीय परमसत्ता में विश्वास करता है। वेदांत के अनुसार एक अद्वितीय के अतिरिक्त और कोई सत्ता ही नहीं है। जो दिख रहा है वह स्वप्न सदृश क्षणिक है विनाश और नश्वर है। जो कुछ भी दृश्य जगत है, वह विवर्त है। यदि वह चैतन्य दिखता है तो मूल सत्ता से चेचंवित होने के कारण। यह जगत उसी मूल चेतना का आभास है, चिदाभास है। परमसत्ता कूथास्थ, चेतना है, आनन्द ही उसका स्वभाव है। इसी आनंदमय स्वभाव के करा वह निर्गुण निराकार ही सगुण साकार बनकर क्रीड़ारत है -“आपसे रसिया आपि रस आपसे रावनहार”। “सर्वम खल्विदं ब्रह्म”, “ईशावास्य इदं सर्वम”। यहां न कुछ शुभ है, न अशुभ, आ मृत्यु है, न अमरता। वस्तुत दृश्य, श्रव्य जगत ही नहीं है। सबकुछ निर्गुण का विकार है।
इस प्रकार निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है – “जा की रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।”
डॉ जयप्रकाश तिवारी
बलिया/लखनऊ उप्र
मोबाइल नं. 94533 91020
