जन्म कल्याणक
‘अहिंसा परमो धर्म:’, ‘जीओ और जीने दो’ तथा ‘सच्चं भयवं’ का संदेश देने वाले, राग-द्वैष विजेता, 8 कर्मों को क्षय करके केवल ज्ञान प्राप्त करने वाले कलिकाल सर्वज्ञ वीतराग वर्धमान भगवान महावीर का जन्म क्षत्रिय कुण्डपुर ग्राम में महाराज सिद्धार्थ के राजमहल में चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन महारानी त्रिशला देवी की रत्न कुक्षी से हुआ। महावीर के जन्म के तुरन्त बाद सौधर्म इन्द्रादि देवों ने सुमेरु पर्वत पर भगवान का जन्म कल्याणक महोत्सव मनाया। भगवान महावीर का जीव सोलह स्वप्नों के साथ जब माता त्रिशला के गर्भ में आया, तब से ही राज्य में धन-धान्य और ऐश्वर्य में निरन्तर वृद्धि हुई इसीलिए उनका नाम ‘वर्धमान’ रखा गया।
महावीर
जन्म से ही भगवान श्रीवत्स आदि 1008 उत्तम लक्षणों से विभूषित थे और उनके साथ दस अतिशय प्रकट हो गए थे। ऐसे अनेक प्रसंग इतिहास में पढ़ने को मिलते हैं, जिनके द्वारा इस बात की पुष्टि होती है कि महावीर जन्म से ही निडर प्रकृति के थे। एक बार बालकों के साथ खेलते हुए जब सर्प बीच में आ गया तो बाकी बालक डर के मारे भाग गए लेकिन बालक वर्धमान ने बिना डरे उसे उठाकर दूर छोड़ दिया। तब से ही उन्हें ‘महावीर’ के नाम से पुकारा जाने लगा।
विवाह संस्कार
इनके बड़े भाई का नाम नंदीवर्धन था। जब वर्धमान महावीर ने यौवन वय में कदम रखा तो इनके माता-पिता ने इनके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। इच्छा न होते हुए भी उन्होंने माता-पिता की बात का मान रखते हुए राजकुमारी यशोदा के साथ विवाह किया। जिससे इनके एक पुत्री का जन्म हुआ, जिसका नाम प्रियदर्शिनी रखा गया, युवा होने पर उसका विवाह राजकुमार जमाली के साथ हुआ। दिगम्बर जैन परम्परा में भगवान महावीर के विवाह की बात नहीं मानी जाती है, बल्कि उन्हें बाल ब्रह्मचारी माना जाता है।
दीक्षा कल्याणक
महावीर गृहस्थ जीवन में भी समण के जैसा जीवन जीते थे। भगवान महावीर के माता-पिता 23वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के अनुयायी थे। उस युग में हिंसा, पशुबली और यज्ञादि कर्मकाण्डों का बोलबाला था। भगवान महावीर इन सबके पक्ष में नहीं थे और सत्य व अहिंसा के मार्ग पर चलना चाहते थे। लेकिन अपने माता-पिता के अत्यन्त स्नेह के कारण उन्हें दु:ख नहीं पहुंचाना चाहते थे। उनके स्वर्गवास के पश्चात् उन्होंने बड़े भाई की आज्ञा से वर्षीदान प्रारम्भ किया। दीक्षा लेने से पूर्व भगवान ने देवों के सहयोग से वर्षीदान दिया। माना जाता है कि उन्होंने लगातार एक वर्ष तक तीन अरब, अठासी करोड़ और अस्सी लाख स्वर्ण मुद्राओं का दान दिया। तत्पश्चात् सुखपालिका ज्ञातखंड वन में अशोक वृक्ष के नीचे मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी के दिन तीसरे प्रहर में भगवान ने अपने समस्त वस्त्राभूषण त्याग कर पंचमुष्ठि लोच किया, शकेन्द्र ने उनके केशों को थाल में लिया और बाद में उन्हें क्षीर समुद्र में प्रवाहित कर दिया।
णमो सिद्धाणं
भगवान महावीर ने ‘णमो सिद्धाणं’ का स्मरण करते हुए देवों और मनुष्यों की विशाल परिषद के समक्ष यह प्रतिज्ञा की कि ‘सव्वं मे अकरणिज्जं पावं कम्मं’ अर्थात् अब से मेरे लिए समस्त पाप कर्म अकरणीय है। यह कहकर उन्होंने सामायिक चरित्र स्वीकार कर लिया। दीक्षा लेते ही उन्होंने अभिग्रह किया-‘केवल ज्ञान प्राप्त होने तक मैं व्युत्सृष्ट देह रहूंगा अर्थात् देव, मनुष्य तथा तिर्यञ्च (पशु जगत) जीवों की ओर से जो भी उपसर्ग समुत्पन्न होगा, उसको समभाव पूर्वक सहन करुंगा।’
उसके तुरन्त बाद उन्होंने वहां से विहार कर दिया। सौधर्मेन्द्र ने उस समय भगवान के कन्धे पर एक देवदुष्य वस्त्र रख दिया। ज्ञात खण्ड से विहार करके मुहुर्त्त भर दिन शेष रहते भगवान कुमारी ग्राम पहुंचे और वहां पर ध्यानावस्थित हो गए।
साधना काल में प्रथम उपसर्ग
भगवान के ध्यानस्थ होने के बाद कुछ ग्वाले वहां पर आए और अपने बैलों को संभला कर गांव में चले गए। बैल चरते-चरते अन्यत्र चले गए और जब ग्वाले वापस आए तो उन्हें वहां पर बैल नहीं मिले। वे भगवान से पूछने लगे- ‘बाबा! हमारे बैल यहां पर ही चर रहे थे, वे कहां गए?’ भगवान तो मौन थे। उनके मौन ने ग्वाले के क्रोध को और भड़का दिया। उन्होंने भगवान को कोड़ों से पीटना प्रारम्भ कर दिया। तभी इन्द्र देव ने दिव्य दृष्टि से देखा और वहां आकर उन ग्वालों को समझाया। इन्द्र ने भगवान से प्रार्थना की- ‘प्रभो! आपके अभी बहुत कर्म शेष हैं अतः बहुत उपसर्ग होंगे। आप मुझे आज्ञा दें तो मैं आपकी सेवा में रहूं।’ तब भगवान ने मुस्कुरा कर कहा, ‘देवेन्द्र! अरिहन्त कभी दूसरों के बल पर साधना नहीं करते। अपने सामर्थ्य से ही वे कर्मों का क्षय करते हैं, अतः मुझे किसी की सहायता नहीं चाहिए।’
बहुल ब्राह्मण
दूसरे दिन वहां से विहार करके कोल्लाग सन्निवेश में पधारे और वहां पर बहुल ब्राह्मण के घर पर परमान्न अर्थात् खीर से बेले का पारणा किया। इसी तरह ग्रामानुग्राम विहार करते हुए अनेक कष्टों और उपसर्गों को सहन करते हुए भगवान साधना में लीन रहते। शूलपाणि यक्ष ने एक ही रात में विविध प्रकार के कष्ट दिए तो चण्डकौशिक सर्प ने अपने विषैले डंक मारकर भगवान को कष्ट पहुंचाने, फिर भी वे अडिग रहे। जब भगवान के साधना काल का 11वां वर्ष चल रहा था तो इन्द्र ने अपनी सभा में उनके ध्यान, तपस्या और साधना की महिमा का बखान करते हुए कहा-‘भगवान महावीर का धैर्य वह साहस इतना गजब का है कि कोई मानव तो क्या, हम देवता भी उन्हें विचलित नहीं कर सकते।’
संगम देव द्वारा उपसर्ग
इन्द्र देव की बात सुनकर संगम देव ने भगवान की परीक्षा लेने के लिए एक ही रात में 20 मारणान्तिक कष्ट दिए लेकिन भगवान तब भी विचलित नहीं हुए। फिर भी वह 6 महीने तक भगवान को कष्ट देता रहा लेकिन भगवान को अपने तप से नहीं डिगा सका। साधना काल के 12वें वर्ष में भगवान कौशाम्बी नगरी पधारे। वहां पर उन्होंने पौष कृष्णा एकम को तेरह बोलों का कठिन अभिग्रह स्वीकार किया। 5 महीने और 25 दिन के बाद भगवान विचरण करते-करते धनावह सेठ के घर पहुंचे। वहां पर राजकुमारी चन्दनबाला को हथकड़ियों और बेड़ियों में जकड़ा हुआ देखा तो बारह बोल तो मिल गए लेकिन चन्दना की आंखों में आंसू नहीं थे। भगवान वापस मुड़ गए।
ख्याति की सुगन्ध फैलने लगी
जैसे ही भगवान महावीर वापस मुड़े तो चन्दनबाला की आंखों से अश्रुधारा बहने लगी तब भगवान ने फिर मुड़ कर देखा। सभी बोल मिलने से उन्होंने चन्दनबाला के हाथ से उड़द के बाकलों की भिक्षा ग्रहण की। अभिग्रह पूर्ण होते ही देवों ने पंच द्रव्य प्रकट किए, देव-दुन्दुभि बजने लगी और सोनैयों की बरसात होने लगी। आकाश में ‘अहोदानम्, अहोदानम्’ की ध्वनि गुंजायमान हो गई। चन्दनबाला अपने मूल रूप में आ गई और उसकी हथकड़ियां और बेड़ियां टूट कर गिर गई। चारों ओर भगवान की साधना की ख्याति की सुगन्ध फैलने लगी।
साधना काल
साधना काल के 13 वें वर्ष में छम्माणी गांव के बाहर एक ग्वाले ने भगवान के कानों में कीलें ठोंक दी फिर भी वे ध्यान मग्न रहे। जब वहां से विहार करके मध्यमा पधारे तो भिक्षार्थ सिद्धार्थ वणिक के घर पहुंचे। वहां पर वैद्यराज खरक ने भगवान के कानों से कीलें निकाली और व्रण संरोहण औषधि घाव पर लगाकर प्रभु को वन्दना की। यह भगवान महावीर का भीषण और अन्तिम परिषह था। यह एक संयोग ही था कि भगवान के उपसर्गों का प्रारम्भ भी ग्वाले से हुआ और अन्त भी ग्वाले द्वारा दिए गए उपसर्ग से।
केवल ज्ञान की प्राप्ति
भीषण उपसर्गों और कष्टों को सहन करते हुए, ध्यान एवं तपस्या के द्वारा अपनी आत्मा को भावित करते हुए प्रभु जंभिय ग्राम के बाहर पधारे। वहां पर ऋजुबालिका नदी के किनारे श्यामाक गाथापति के खेत में शाल वृक्ष के नीचे ध्यानारूढ़ हो गए। वैशाख शुक्ला दशमी, दिन के अन्तिम प्रहर में उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र, क्षपक श्रेणी का आरोहण, शुक्ल ध्यान का द्वितीय चरण, शुभ भाव, शुभ अध्यवसाय में, बेले के तप में गोदोहिका आसन में भगवान ने बारहवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म का समूल नाश कर दिया तथा अवशिष्ट तीन घाती कर्म- ज्ञानावरणीय कर्म, दर्शनावरणीय कर्म और अन्तराय कर्म का क्षय कर 13 वें गुणस्थान में केवल ज्ञान और केवल दर्शन को प्राप्त कर लिया।
भगवान महावीर की शिक्षाएं
भगवान महावीर ने जातिवाद, कर्मकाण्ड और पशु बलि का विरोध किया। निरीह और मूक प्राणियों की बलि देकर धर्म कमाने की प्रचलित मान्यता को उन्होंने मिथ्यात्व की संज्ञा दी और कहा- ‘हिंसा करना पाप है। उससे धर्म करने की बात खून से सने हुए वस्त्रों को खून से ही साफ करने का उपक्रम है। हिंसा से बचकर ही धर्म किया जा सकता है।’
धर्म के स्थायित्व के लिए पवित्रता अनिवार्य
जब भगवान से पूछा गया- ‘आप द्वारा प्रतिपादित धर्म को कौन ग्रहण कर सकता है?’
उत्तर में भगवान ने कहा- ‘मेरे द्वारा निरूपित शाश्वत धर्म को हर व्यक्ति स्वीकार कर सकता है। उसके लिए कोई बन्धन नहीं है। जाति, कुल, वर्ग या चिह्न धर्म को अमान्य हैं। शाश्वत धर्म को स्वयं में टिकाने के लिए हृदय की शुद्धता जरूरी है, अशुद्ध हृदय में धर्म नहीं टिकता। धर्म के स्थायित्व के लिए पवित्रता अनिवार्य है।’
स्त्री-पुरुष में केवल शारीरिक भेद मात्र
भगवान महावीर की दृष्टि में स्त्री-पुरुष में केवल शारीरिक भेद मात्र है। आत्मा केवल आत्मा है। आत्म विकास के लिए स्त्री पुरुषों के समकक्ष है। मातृ शक्ति को धर्म से वंचित करना बहुत बड़ा अपराध है, धार्मिक अन्तराय है। भगवान महावीर ने व्यक्ति की स्वतंत्रता पर विशेष बल दिया। उन्होंने दास प्रथा को धर्म विरुद्ध घोषित किया। उन्होंने कहा कि किसी व्यक्ति को दास के रूप में खरीदना और उसे गुलाम बनाकर रखना हिंसा है, पाप है। हर व्यक्ति की स्वतंत्रता स्वस्थ समाज का लक्षण है। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा- ‘मेरे संघ में सब समान होंगे। कोई दास नहीं है, एक-दूसरे का कार्य एक-दूसरे की परिचर्या निर्जरा भाव से की जाएगी, दबाव से नहीं। दास प्रथा सामूहिक जीवन का कलंक है।’
परिग्रह पर नियंत्रण
अपरिग्रह का सिद्धान्त भगवान महावीर की देन है। उन्होंने अर्थ के संग्रह को अनर्थ का मूल बतलाया। अर्थ को धार्मिक प्रगति में बाधक बताते हुए मुनियों के लिए उसका सर्वथा त्याग अनिवार्य बतलाया। साथ ही साथ श्रावक-श्राविकाओं के लिए भी परिग्रह पर नियंत्रण आवश्यक बतलाया।
आज भी प्रासंगिक है अनेकान्त दर्शन
अहिंसा के विषय में भगवान महावीर के सूक्ष्मतम दृष्टिकोण का लोहा सारा विश्व मानता है। उनकी दृष्टि में शारीरिक हिंसा के अतिरिक्त वाचिक और मानसिक कटुता भी हिंसा है। सूक्ष्मतम अहिंसा के दृष्टिकोण को साधना का विषय बनाना अन्य दार्शनिकों के लिए आश्चर्य का विषय था।
वैचारिक अहिंसा
वैचारिक अहिंसा को विकसित करने के लिए उन्होंने स्याद्वाद (अनेकान्तवाद) का प्रतिपादन किया। उनका मानना था कि हर वस्तु को एकांगी दृष्टिकोण से देखना आग्रह है, सत्य का विपर्यास है, अनन्तधर्मा वस्तु के एक धर्म को मान्यता देकर शेष धर्मों को नकारना स्वयं में अपूर्णता है। हर वस्तु का अपेक्षा से विवेचन करना ही यथार्थ को पाना है। जैसे घड़े को घड़ा कहना उसके अस्तित्व का बोध है, घड़े को पट के रूप में नकारना नास्तित्व का बोध है। एक ही घड़े के अस्तित्व और नास्तित्व, दो विरोधी धर्मों का समावेश करने का नाम ही ‘स्याद्वाद’ है। स्याद्वाद या अनेकान्तवाद को मानने वाला एकान्तिक आग्रह से मुक्त हो जाता है फिर वैचारिक विग्रह का कहीं पर भी अवकाश नहीं रहता।
प्रभावशाली और प्रासंगिक
वर्तमान समय के अनुसार देखा जाए तो भगवान महावीर की ये शिक्षाएं अत्यन्त प्रभावशाली और प्रासंगिक हैं। अगर प्रत्येक व्यक्ति अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य के सिद्धांतों को अपने जीवन में अपना ले , ‘जीओ और जीने दो’ का सिद्धान्त व्यावहारिक रूप में स्वीकार कर ले तो कहीं भी कोई समस्या नहीं रहेगी। बस आवश्यकता इस बात की है कि हम धर्म को धर्म ग्रन्थों से बाहर निकाल कर अपने व्यवहार में लाएं।
– लेखिका सरिता सुराणा स्वतंत्र पत्रकार हैदराबाद