इस कहानी के वैसे तो दो ही किरदार हैं— एक, कतरा, दूसरा, समंदर। लेकिन कतरे के साथ एक हिम्मत भी है, जो दरसल उसी की भीतरी दुनिया से उठ कर बाहर आती है। यही तीन पहचान में आते हैं; क्योंकि शेष जो हैं, वे सिर्फ वेनागॉग के चेहरे हैं, असंख्य, अनगिनत, सब कहीं-सब जगह फैले हुए। लेकिन समंदर से इन सबका अटूट रिश्ता है। आप मुक्तिबोध से जाकर इस रिश्ते की कैफियत मांगेंगे, तो वे इसे नाभिनाल संबंध कह कर आपको एक नई उलझन में डाल देंगे और दरवाज़े का रास्ता दिखा कर छुट्टी पा लेंगे और प्लेटो के पास दौड़े जाएँगे, तो वे कहेंगे कि जब इन चेहरों को न नगर-राज्य में रहने का हक है और न राजा चुनने के लिए अपनी राय देने का, तो मैं इनके बारे में सोच कर अपना दिमाग क्यों खराब करूँ! दरसल, ये चेहरे अजीब-अजीब हरकतें करके अपनी ही नज़र में अपने जिंदा होने पर यकीन करने की कोशिश करने में बराबर एक युद्ध लड़ रहे हैं। कुछ चेहरे समंदर की गहराइयों में नीचे और नीचे जाकर मूंगे की चट्टानों पर कब्जा करने की होड़ में हैं। बीच पानी में इन्हें कोई शिकारी ह्वेल अपना मुँह खोले मिल जाती है, तो ये उससे बचने की कोशिश न करते हुए खुद ही उसके मुँह में अपना सिर दे देते हैं और इससे पहले कि ह्वेल इनके बारे में कोई निर्णय ले, ये उसी के शरीर के किसी दूसरे छेद से बाहर आकर अपनी यात्रा पर निकल जाते हैं। कुछ चेहरे पानी की सतह पर सिर के बल चल रहे हैं और समंदर की नीलाई को आसमान मान कर खुश हो रहे हैं। हवा उन्हें समझाती है, तो ये उसका उपहास उड़ाने लगते हैं। वह जाकर बादल को बुला लाती है। ये बादल से कहते हैं, यहाँ क्या लेने आए हो? जाओ, खेतों और जंगलों की तरफ जाओ, वहाँ किसान और फसलें और पेड़-पौधे पिछले मौसम के बाद से ही तुम्हें बुला रहे हैं। बादल टोकने को होता है, तो ये तमक कर कहते हैं, तुम्हें पता नहीं कि जब से सारे-के-सारे पाँव चोर उठा ले गए हैं, तभी से ब्रह्मांड में जो कुछ भी है, वह सिर के ही बल चलने को मजबूर है, क्या तुम खुद सिर के बल नहीं खड़े हो?…
तभी समंदर के नीचे से आवाज़ आती है— ‘अब यह सूरज मुझे सोने नहीं देगा/सिर्फ एक रात की लज्जत का सिला हूँ मैं तो।’ बादल और हवा दोनों इसका भीतरी मतलब समझ कर एक दूसरे की आँखों में उतर कर छुप जाने के बारे में बेचैन होने लगते हैं, लेकिन सूरज दोनों के कंधे पकड़ कर उन्हें एक-दूसरे से दूर धकेल देता है। हवा के मन में सवाल कौंधता है, क्या हम कोई पाप करने वाले थे, जो सूरज ने हमें रोका? सवाल अबोला था, लेकिन उसे एक किताब सुन लेती है। वह किसी संत की तरह बोलने लगती है, ‘संसार में पाप कुछ भी नहीं है, वह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम है।’ बादल अपनी भीगी हथेलियाँ हवा के आँचल से पोंछते हुए इधर-उधर देखने लगता है। किताब का बोलना पूरा नहीं हुआ था। वह आगे कहती है, ‘हम न तो पाप करते हैं, न पुण्य करते हैं, हम केवल वह करते हैं, जो हमें करना पड़ता है।’ बात हवा और बादल दोनों की समझ के बाहर थी। दोनों असमंजस की साँसें लेने लगते हैं। एक पल बीतते-न-बीतते एक दूसरी आवाज़ उभरती है— ‘शरीर के तनाव को हल्का करने और शरीर की मांग को पूरा करने के लिए चंद पलों की लज्जत चाहिए तो जरूर, लेकिन उन पलों को ज़िंदगी भर के लिए बोझ न बनाइए, क्योंकि सूरज उनके लिए नहीं उगता’।
अब सूरज के बेचैन होने की बारे थी। वह असंख्य चिंगारियों की कमर को हाथों में लपेटे पहाड़ की ओट में चला गया। चारों तरफ अंधेरा था, जिसमें न जाने कितने मांस के लोथड़े चेहरों में बदलने की कोशिश में लहूलुहान हो रहे थे। पाप-पुण्य के सवाल शास्त्रों से टकराने जाते हैं, लेकिन पाते हैं कि वे अपने चेहरों की दीमक झाड़ने में व्यस्त हैं। सिर के बल पानी पर चलने वाले चेहरे कभी चिल्लाती, कभी भीख मांगती, कभी चौराहों पर पेट बजा कर राजा के सामने मिमियाती, कभी आपस में ही सिर फुटव्वल करती, कभी इतिहास लिखने की ज़िद करती भीड़ में और भीड़ से जुलूस में बदलने लगते हैं— उन्हें भला कौन पहचानेगा? राजा, मंत्री, लेखक, कलाकार, संपादक, बुद्धिजीवी या कोई जादूगर या मदारी? कौन?…
कतरा एक-एक कर सबकी तरफ देखता है और सबको निस्पृह, निर्जीव, निपट-निसंग, भाषा के गूंगेपन में डूबा देख कर अपने संकल्प से सवाल करता है कि वह इस चुनौती को स्वीकार करेगा? अचानक उपनिषद का वह फलवान वृक्ष सामने आ खड़ा होता है, जिस पर कतरा कभी तीन पक्षी बैठे छोड़ आया था। आज वह देखता है कि एक पक्षी चारों ओर से बेखबर फल खाने में लगा है, दूसरा वाला भी पूरे मन से फल खा रहा है, लेकिन बीच-बीच में पहले वाले पक्षी को देख कर मुस्करा भी रहा है, जबकि तीसरा पक्षी आवश्यकतानुसार फल तो खा रहा है, लेकिन बड़े ध्यान से कभी पहले पक्षी का और कभी दूसरे पक्षी का निरीक्षण भी कर रहा है। कतरा भीतर बहुत गहरे चिंता में डूब जाता है। भीतर ही अपने संकल्प से फिर पूछता है, क्या इस रास्ते पर चले? क्या इस खतरनाक सफर पर निकल पड़ने को तैयार हो जाए? समंदर उसे आवाज़ लगाता है और कहता है, ‘मैं अक्सर निराश चेहरों का हुजूम देखता हूँ— थके, बुझे, परेशान, दुखी, पीड़ित, शोषित, भयाक्रांत, व्याकुल, चिंतातुर, आँसुओं से तर चेहरों का जमघट, जहाँ-तहाँ ठहरा हुआ है।‘
क्या इन सबके पास जाकर इन्हें पहचानने की हिम्मत जुटा पाओगे? कतरा एक बार फिर से अपने भीतर झाँकता है। वहाँ अभी भी निराशा और उदासी अंतहीन बहस में उलझी हैं और पश्चिमी दरवाज़े से घुस आए दो चेहरे मौका देख-देख कर कभी निराशा की और कभी उदासी की तरफदारी कर रहे हैं। अब कतरे को अपना लक्ष्य साफ नज़र आने का आभास होने लगता है। समंदर अपनी बात जारी रखता है, ‘तालाब में ठहरा हुआ पानी कौन बदलेगा? निराश चेहरों की चुप्पी, उदासीनता कौन तोड़ेगा?… किसके पास इस सवाल का जवाब है, मुझे उसकी तलाश है, शायद तुम्हें भी और हम सबको। ‘कतरे की मुट्ठियाँ तन कर हवा में लहराने लगती हैं। वह चलने को होता है कि समंदर कहता है, मैं तुम्हारा बहुत पुराना दोस्त हूँ, तुम्हारी याद से भी पुराना, सफर भर तुम्हारे साथ रहूँगा, शायद तुम्हें किसी मोड़ पर मेरी जरूरत महसूस हो।
कतरे की पुतलियाँ आश्चर्य में ऊपर- नीचे, दाएँ-बाएँ नाचने लगती हैं। तभी घूमते-घामते एक चेहरा वहाँ आकर ठिठक जाता है। वह लिखने की मेज से उठते समय एक वाक्य अधूरा छोड़ आया था। समंदर की बात सुनता है, तो उसे पूरा करने लगता हैं, ‘जिस प्रकार पुरानी लकड़ी जलने में उपयोगी होती है, पुराना घोड़ा चढ़ने में अच्छा, पुरानी पुस्तकें पढ़ने में सुंदर तथा पुरानी मदिरा पीने में लाभकर, उसी प्रकार पुराने मित्र भी सदैव विश्वसनीय और श्रेष्ठ होते हैं।‘ कतरे की हिम्मत संकल्प का कान पकड़े उसके भीतर से निकल कर पास आकर कहती है, चलिए मैं तैयार हो गई हूँ, चलें, देर हो जाएगी… समंदर कहता है, मैं भी…
कतरा चला ही था कि कल की एक बात अचानक आकर उस पर हमला कर देती है। कल वह बिना किसी को बताए अमूर्त चेहरों की एक भीड़ में चला गया था। वहाँ एक चेहरा चाह कर भी भीड़ का हिस्सा बनने को सहमत नहीं हो पा रहा था। कतरा उससे सवाल करता है कि क्या तुम इंटेलेक्चुअल हो? क्योंकि, ‘मैने कहीं पढ़ा था कि परिश्रमी और प्रतिभावान व्यक्ति सदा अकेला होता है, क्योंकि वह भीड़ का हिस्सा नहीं बन सकता।‘ अकेला चेहरा यह सुन कर आहत और अपमानित महसूस करता है, उसके भीतर छिपे चेहरे की नसें तन जाती हैं, वह कहता है, तुम क्या जानो, ‘अकेला आदमी पूरे दिन को टुकड़ों में जीता है, और रात में अकेलेपन को सिरहाने रख कर इस आशा में सो जाता है कि सुबह एक उजला दिन होगा, कछुए की तरह सिमट आए उसके अस्तित्व का खोल उतार कर फेंक देगा।…
लेकिन वह उजला दिन कभी नहीं आता।‘ कतरा बहुत उदास हो जाता है। उसके मुँह से एक फलसफा निकल कर सामने खड़ा हो जाता है, ‘अकेले की मौत अकेलेपन की तरह चुपचाप आती है, और चली जाती है।‘ साथ चल रही हिम्मत कतरे को कुहनी मारती है, क्या बड़बड़ा रहे हो? कतरा अपने भीतर एक अजनबी आवाज़ को कहते सुनता है, ‘जब कोई तारा टूटता है और कहता है कि धरती पर आ गिरा है…. तो कैसा अजीब-सा महसूस होता है?’ कतरा सोचता है, यह मेरे भीतर का खंडित होता हुआ भ्रम बोल रहा है। मैंने इसे बड़े जतन से पाला था, क्योंकि मेरा विश्वास था कि ‘जीने के लिए भ्रम जरूरी होता है…’, लेकिन मैं नहीं जानता था कि, ‘जब भ्रम टूटता है, तो सपने टूटते हैं।‘ हिम्मत बेचैन होकर कतरे को देखती है, लेकिन बोलती कुछ नहीं।…
समंदर, जो अभी तक चुपचाप पीछे चल रहा था, कतरे के बराबर में आ जाता है और धीरे-धीरे कहता है, तुम नहीं जानते, जो बिना सोचे-समझे अपने लिए एक हसीन दुनिया का सपना देखते हैं, वे ज़िंदगी की तल्ख सचाइयों से सामना होने पर तुम्हारी ही तरह बाहर-भीतर से दरकने लगते हैं। कहते-कहते समंदर कुछ शायराना-सा हो उठता है— मेरे दोस्त! ‘बहुत हसीन है यह दुनिया, वास्तव में बहुत ही हसीन है दुनिया, उन क्षणों में, जब जेब में कोई टोटा न हो और जब किसी समस्या का हथौड़ा मस्तिष्क पर चोट न कर रहा हो।… उस मेमने के लिए भी यह दुनिया बहुत हसीन है, जिसकी गर्दन पर छुरा अकस्मात आया और हट गया, जिस पर उसने संतोष की साँस ली और एक इंद्रधनुषी छटा चारों ओर बिखर गई, मेमना हर्ष विभोर हो गया।‘ समंदर ने कुछ ऐसी ही कल्पनाएँ कोयल, कलाकार, कवि और मजदूर के लिए भी ज़मीन पर बिखेर दीं। मजदूर की बात सुन कर कतरे की आँखों की कोरें भर आईं, अपने ही भीतर डूबते हुए कहने लगा, ‘मेरी आँखों में आँसू छलक आते हैं, जब मैं जंगल से लकड़ी काट कर सिर पर बोझा रखे मजदूर को थके पाँव घर लौटते हुए देखता हूँ। कभी किसी ने दुनिया के हुस्न को ज़िंदगी से झाँक कर नहीं देखा कि यह पीड़ा के कितने मुरझाए हुए गुलदस्ते हैं?’ समंदर थोड़ा शर्मिंदा होकर फिर से पीछे-पीछे चलने लगता है।
हिम्मत को सहारा-सा मिलता है। अब कतरे के सोचने की दिशा बदल कर उसे तमाम खतरों से बचाया जा सकता है। बोली, तुम मजदूर की ही बात सोच रहे हो, जरा सामने बाँझ होती ज़मीन को देखो। बादल की राह तकते-तकते उसकी देह का सारा रस सूख गया है और वह इस चिंता में घुली जा रही है कि कहीं उसकी गर्भवती होने की ताकत ही न सूख जाए… और उसे बाँझ हो जाने का डर ही नहीं, बल्कि दुनिया की भूख का डर भी सता रहा है। उस किसान के बारे में भी सोचो, जिसके पास जीवन को बचाए रखने की बला की ताकत है, लेकिन वह बादल की सहायता के बिना लाचार है।…. समंदर हिम्मत की बातें सुन कर संकोच में पड़ गया, सोचने लगा, उसने तो बादल भी भेजे थे और उनकी उड़ान को खुशनुमा बनाए रखने के लिए बदलियाँ भी, लेकिन वे खेतों तक क्यों नहीं पहुँचे?
कतरा हिम्मत और समंदर से बिल्कुल अलग, आवाज़ें सुनने में अपने आस-पास के सब-कुछ से कट गया है। मौसम की इस धोखेबाजी के कारण उसके कानों को बराबर एक शोर सुनाई पड़ रहा है, ‘शहर का एक बुद्धिजीवी कह रहा है— मौसम बीमार है, मौसम अस्पताल में पड़ा है। मौसम मर रहा है।… और राजधानी का नेता कह रहा है, अभी हमें बादलों में आँखें गड़ाने की फुर्सत नहीं, अभी तो कुर्सी पर आँखें गड़ी हैं, कुर्सी मिल जाए, तो प्यासे खेत भी देखेंगे।… मुनाफाखोर व्यापारी कह रहा है— उसकी आँखें अनाज भरे गोदाम पर गड़ी हैं, सूखा पड़ने दो, वारे-न्यारे हो जाएँगे।‘ कतरा दहाड़ मार कर रोने लगता है। रोता जाता है और चिल्लाता जाता है, ‘किसान हताश है, परेशान है, उसकी प्रतीक्षा, उसकी चिंता, उसकी व्याकुलता में कोई हाथ नहीं बँटाता—उसका भगवान भी! किसान की टकटकी लगाई हुई, बुझी हुई, थकी हुई, प्रतीक्षारत आँखें मुझे भेदती हैं, जिनका सामना करने की मुझमें भी हिम्मत नहीं है।’ समंदर और हिम्मत सन्न रह जाते हैं। हिम्मत आसमान की ओर हाथ उठा कर बुदबुदाने लगती है, ‘काले मेघा पानी दे, पानी दे… पानी दे…।’
कतरा हिम्मत और समंदर दोनों के साथ अपनी संगति नहीं बैठा पा रहा है। वह इन्हें छोड़ कर चुपचाप आगे बढ़ जाता है, लेकिन उसे बराबर लगता रहता है कि कोई है, जो उसका पीछा कर रहा है। कौन हो सकता है? वह अजनबीयत का कवच ओढ़ कर तेज-तेज चलने लगता है, लेकिन उसका संशय कम नहीं होता। वह अचानक सामने का दृश्य देख कर चौंक जाता है। बारिश बहुत तेज हो रही है। तरह-तरह की आवाज़ें अपने-अपने छातों के तारों से टपकती बूंदें जीभ से पकड़ कर गले में कैद कर रही हैं, लेकिन गला तर होने में नहीं आ रहा है। आवाज़ें परेशान होकर तड़पने लगती हैं। बारिश जब जाने को होती है, तो आवाज़ें उसकी मनुहार करने लगती हैं, मत जाओ बारिश, अभी मत जाओ, तुम्हें ठहरना ही होगा, वरना हमारे प्राण चले जाएँगे। कतरे को न बारिश का रहस्य समझ में आता है, न आवाज़ों का। कौन हैं ये? उसका दम घुटने लगता है। वह गिरने को होता है कि समंदर उसे अपनी बलिष्ठ बाँहों में थाम लेता है।
कतरा आराम महसूस करता है। समंदर कहता है, मैंने कहा था न! पुराना दोस्त हूँ, साथ नहीं छोड़ूँगा। कतरा आवाज़ों की तरफ इशारा करके सवालिया नजरों से देखने लगता है। समंदर कहता है, ये सब प्यास की अतृप्त भटकती आत्माएँ हैं, किसी का राज-पाट से मन नहीं भरा, किसी का सोने की खदानों से, किसी को शांति नहीं मिली, किसी को मनचाही औरतें, और किसी को माँ का दूध नसीब नहीं हुआ। कतरे की उलझन थोड़ी कम होती है, लेकिन सवाल फिर भी परेशान करते रहते हैं। उसे लगने लगता है, ‘मैं भी प्यास का अदना-सा शिकार हूँ, मेरे गले में प्यास के काँटे उग आए हैं। मैं भी दौड़ रहा हूँ, मृगमरीचिका के पीछे भाग रहा हूँ— यह दौड़ तब तक जारी रहेगी, जब तक मैं ज़िंदा हूँ।’ यह क्या? आत्मस्वीकृति को भी दर्शन की आड़ में धकेल कर महानता का दूध पीने की कोशिश? सभ्यता का अंतर्विरोध? सवाल के बाद सवाल।…
यह क्षण आने तक हिम्मत कतरे के सामने पहुँच कर उसकी आँखों में झाँकने लगी थी। उसके हाथ में एक चिड़िया की लाश के कुछ टुकड़े हैं, जिनसे अभी भी खून बह रहा है और जिन्हें वह किसी मुंडेर से खींच लाई है। किसी प्यासे हत्यारे ने कुछ ही देर पहले उसकी देह के चिथड़े आसमान में उछाले थे, नीचे गिरे तो कुछ मुंडेरों पर अटक गए, कुछ घरों की छतों, सड़कों, चौराहों, खेत-खलिहानों में जा गिरे। सब जगह खून के छींटे सवाल बन कर फैल गए। सवाल, जो उत्तरों की आशा में ज़िंदा रहने का संकल्प कर चुके थे, लेकिन उत्तर किसी के पास नहीं था— न कतरे के पास, न समंदर के और न हिम्मत के।….
[दोस्तो! सवाल केवल चिड़िया का ही नहीं, आदमी का भी है; क्योंकि कम-से-कम अभी तक आदमी अपनी आज़ादी की लड़ाई नकली हथियारों से लड़ रहा है और ‘आदमी की स्वतंत्रता, उसकी मानवीय अनुभूतियों, उसकी भावनाओं और इच्छाओं के सबसे बड़े विकट दुश्मन से लड़ाई दफ्ती की तलवारों से लड़कर कभी नहीं जीती जा सकती।‘ आप असली हथियारों से लड़ने के लिए तैयार हैं, तो चंद्रमणि रघुवंशी की किताब ‘कतरा और समंदर’ का सामना करें— यह आपके लिए बहुत जरूरी किताब है। और यह भी, कि इस कहानी के सभी सूत्र इसी किताब में हैं। उन्हें कल्पना ने सहेजा भर है।]
कतरा और समंदर (2023)
लेखक : चंद्रमणि रघुवंशी
अविचल प्रकाशन, हल्द्वानी-263139
समीक्षक: प्रोफेसर देवराज