स्मृतिशेष प्रोफेसर टी मोहन सिंह को विनम्र श्रद्धांजलि…

प्रो टी मोहन सिंह की ‘प्रतिबद्धता’

“किसानों के सिवा सभी को रोटी चाहिए!”

[नोट-आदरणीय प्रोफेसर टी मोहन सिंह जी का सोमवार को सुबह निधन हो गया है। मोहन सिंह जी का निधन हिन्दी साहित्य जगत के लिए यह अपूरणीय क्षति है]

‘प्रतिबद्धता’ (2009: आदित्य पब्लिकेशन्स, प्लाट न.10, रोड न. 6, समतापुरी कालोनी, हैदराबाद- 500035/ 100रुपये/ 64 पृष्ठ) में वरिष्ठ हिंदी-तेलुगु विद्वान डॉ. टी. मोहनसिंह की दो सौ से अधिक क्षणिकाएँ संकलित हैं। डॉ. टी. मोहन सिंह अपने आप को ‘सहज’ कवि नहीं मानते और इस तथ्य से नहीं मुकरते कि उनका कविकर्म ‘यत्नज’ है; इसीलिये उन्हें यह भी लगता है कि ”चूंकि मूलतः मैं गद्यकार हूँ अतः गद्यात्मकता ने इन क्षणिकाओं को अवश्य प्रभावित किया है| कविता पर गद्य का प्रभाव एक दोष है | इस दोष से मैं पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया हूँ| यह मेरी विवशता है |”

इस आत्मस्वीकृति के बावजूद यह सच अधिक महत्त्वपूर्ण है कि डॉ. टी. मोहन सिंह ने इन लघुकाय कविताओं में अपने जीवनानुभव का सार संचित करने का सफल प्रयास किया है। ये क्षणिकाएँ कम शब्दों में अधिक गहरी, पैनी, सुलझी हुई और व्यंजनापूर्ण अभिव्यक्ति का अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। जिस गद्यात्मकता को काव्यदोष कहा जा सकता है वह विचार के कविता में न ढल पाने पर उभरती है| संतोष का विषय है कि गद्यात्मक होने की अपनी इस विवशता पर रचनाकार ने अपनी संवेदनशीलता के सहारे विजय प्राप्त करने का प्रयास किया है| सवेदन शीलता की यह सहजता ही उनकी कविता को’ सहज ‘ बनाती है – भले ही वे ‘सहज कवि’ हों या न हों ! वैसे यह भी पूछा जा सकता है कि प्रतिबद्ध कवि क्या वाकई दूर तक या देर तक सहज कवि रह सकता है! ‘प्रतिबद्धता’ से कवि की प्रतिबद्धता का भी पता चलता है। कवि प्रतिबद्ध है लोकतंत्र के प्रति, जन के प्रति, जन-संघर्ष के प्रति, मूल्यों के प्रति, अपनी ज़मीन के प्रति और मनुष्य के प्रति।

प्रो. टी. मोहन सिंह मूलतः आंध्र प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र से संबद्ध हैं। वे इस क्षेत्र के साधारण निवासियों-किसानों-के असुविधापूर्ण और यातनामय जीवन से परिचित हैं। किसी भी संवेदनशील नागरिक के मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इस क्षेत्र के किसान आत्महत्या क्यों करते हैं। डॉ. मोहन सिंह को भी इस प्रश्न ने विचलित किया है। संभवतः इसीलिए आंध्र प्रदेश और विशेषकर तेलंगाना पर केंद्रित क्षणिकाओं की संख्या सबसे अधिक है। यह अपनी धरती से उनके जुड़ाव का भी द्योतक है। इसमें संदेह नहीं कि ग्लोबल विषयों पर लिखने का आकर्षण हर रचनाकार अनुभव करता है। लेकिन रचनाकार का वैशिष्ट्य स्थानीय तत्वों की अभिव्यक्ति में अधिक मुखर होकर उभरता है। स्थानीयता के अंकन से ही रचना में यथार्थ की प्रामाणिकता आती है। यह प्रामाणिकता इस संकलन में भरपूर है।

हैदराबाद में गंदे पानी में अवस्थित गौतम बुद्ध हों या तेलंगाना में बिजली और पानी की अनुपलब्धता के कारण गुम हुई खुशहाली हो, कवि ने दोनों का कष्ट देखा है। वे मानते हैं कि किसानों की आत्महत्याएँ पूँजीवादी व्यवस्था की विफलता का प्रमाण हैं। किसानों की इस दुरवस्था का कारण राजनीति और प्रशासन द्वारा उनकी उपेक्षा में निहित है। तिलमिलाकर कवि व्यंग्य करता है –

”अन्न के उत्पादक/
किसानों के सिवा,/
सभी को रोटी चाहिए!”

लेकिन इन किसानों को ज़ख्मों और आश्वासनों के अलावा कुछ नहीं मिलता। दूसरी तरफ़ गुडंबा अपना गुल खिलाता रहता है और आंध्र का हर गाँव धीरे-धीरे ‘धूलपेट’ बन जाता है। खतरे में घिरे हुए किसानों के प्राण किसी को प्यारे नहीं।

कवि को हैदराबाद से बड़ा प्यार है। इसलिए जहाँ एक ओर उन्हें हाइटेक सिटी और फिल्म सिटी के समानांतर इस शहर की ‘पिटी’ दुःखी करती है, वहीं दूसरी ओर वे हलीम और मटन बिरियानी जैसे खाद्य पदार्थों से लेकर गोलकोंडा, कुतुबशाही समाधियों, चारमीनार और सालारजंग म्यूज़ियम तक तमाम धरोहर पर गर्व भी करते हैं। वे इतिहास पर प्रश्न उठाते हैं कि निजाम की दो सौ रानियाँ होना प्रेम का प्रतीक है या वासना और विलासिता का सूचक। आसन्न इतिहास की त्रासदियाँ भी उनके मन-मस्तिष्क में तरोताजा हैं। इसीलिए वे अलग तेलंगाना का समर्थन करते हैं –

”लोगों के/
मन मस्तिष्क पर/
रज़ाकारों के अत्याचार/
आज भी तरोताज़ा हैं/
अतः यहाँ की जनता/
मात्र पृथक तेलंगाना चाहती है/
न कि रज़ाकार।”

इसका अर्थ यह न समझा जाए कि वे पृथकतावादी हैं, बल्कि सामाजिक न्याय के लिए उठी उस आवाज के समर्थक हैं जो तेलंगाना के प्रति सौतेले व्यवहार के प्रतिकार में उठी है –

”छल कर/
जिस तरह पानी लूटा गया/
नौकरियाँ लूटी गईं/
उसी के विरुद्ध उठी आवाज है तेलंगाना।”

असंतुलित विकास ने तेलंगाना की समस्याओं को और अधिक हृदय विदारक बना दिया है। बाढ़ और अकाल से पीड़ित किसानों के लिए अन्नदाता और भाग्यविधाता जैसे शब्द अब कोई अर्थ नहीं रखते। उन क्षेत्रों की पीड़ा तो और भी मार्मिक है जहाँ पानी तो है पर फ्लोराइड के विष से इस तरह भरा है कि पूरा नलगोंडा हड्डियों और दाँतों के क्षरण से रोग ग्रस्त होकर असमय बुढ़ा गया है।

स्थानीय विषयों के प्रति कवि की यह जागरूकता उत्तरआधुनिक समाज के उस व्यापक वैश्विक संकट के साथ भी जुड़ी हुई है जिसके परिणामस्वरूप पूरा विश्व एक ओर तो जीवन मूल्यों में गिरावट का सामना कर रहा है तथा दूसरी ओर आर्थिक मूल्यों में मंदी का शिकार है। बेईमानी और बेवफाई इस उत्तरसंस्कृति के उत्तरमूल्य बन गए हैं जिनका नेतृत्व टी. वी. के सितारे कर रहे हैं। उत्तरसंस्कृति में घरों को बरबाद कर वृद्धाश्रमों को आबाद करना आम बात है। रंग बदलना विशेष योग्यता मानी जाने लगी है –

”गिरगिट की तरह/
राजनीति भी/
रंग बदलती है/
वर्तमान युग रंग बदलने का युग है।”

संबंध छीज रहे हैं, स्वार्थ रिश्तों पर भारी पड़ रहे हैं, पूँजी और मुनाफा सबसे बड़े मूल्य बन गए हैं। जनहित का स्थान जनहिंसा ने ले लिया है –

”भगवान शंकर ने/
जनहित में ज़हर पिया था/
किंतु आज के लोग/
ज़हर उगल रहे हैं/
अमृत को चुरा/
हलाहल बांट रहे हैं।”

सेंसेक्स का चढ़ना और उतरना लोगों के भाग्य का नियामक बन गया है जिससे पूँजीपति मालामाल हो रहे हैं और मध्यवर्ग भू-लुंठित। इस उत्तर आधुनिक संकट की कवि को अच्छी पहचान है। रियल एस्टेट की हवा चलने पर गरीबों का लुटना हो या इलेक्ट्रानिक मीडिया की हवा चलने पर हिंदी के स्थान पर हिंग्लिश की प्रतिष्ठा हो, दोनों कवि मोहन सिंह को समान रूप से विचलित करते हैं। वे याद दिलाते हैं कि इस उत्तरकाल ने जातियों को जातियों से भिड़वा दिया है तथा मनुष्य की विश्वसनीयता को समाप्त करके अवसरवादिता को सम्मान दिया है। कार्पोरेट विद्यालय, कार्पोटर अस्पताल और मल्टी नेशनल कंपनियाँ इस नई संस्कृति के वारिस हैं। व्यंग्यपूर्वक कवि ने कहा है –

”स्टार होटलों के/
विस्तार से/
अपने आप मिट गई है/
लोगों की भूख।”

इसे वे पूँजीवाद के नए विस्तार के रूप में देखते हैं और आम आदमी के भीतर बढ़ती हुई वणिक वृत्ति के साथ घटती हुई पारिवारिकता उन्हें बेहद चिंतित करती है –

”गाँव की नदी सूख कर/
जब रेत में बदली/
तब सारे ग्रामीण/
व्यापारी बन बैठे।”
xxx
”डालर ने/
जब लोगों को भरमाया/
रिश्तों को ठुकरा/
वे घर से बाहर निकल आए।”

डॉ. टी. मोहन सिंह ने इस संकलन की क्षणिकाओं में अनेक स्थलों पर भारतीय लोकतंत्र की विफलता पर चिंता प्रकट की है। फिर भी वे पराजित और हताश नहीं हैं। संघर्ष में उनका विश्वास है और वे मानते हैं कि लोकतांत्रिक संघर्ष चेतना वर्तमान परिस्थितियों को बदलने की ताकत रखती है। देश, समाज और व्यक्तिगत जीवन में व्याप्त बहुविध विडंबना ने भी कवि का ध्यान खींचा है और संवेदनशील मनुष्य के मन को मथनेवाले जीवन और जगत् के अनेक प्रकार के प्रश्न भी उनकी इन क्षणिकाओं में मुखरित हुए हैं। इन प्रश्नों का समाधान वे मानवतावाद में खोजते हैं और याद दिलाते हैं –

”द्वेष करना/
उनका स्वभाव है/
प्रेम करना/
हमारा।”

उन्हें यह प्रेम सारी प्रकृति में व्याप्त दीखता है –

”नदियाँ बेचैन हैं/
सागर में समा जाने के लिए,/
प्रेमी बेचैन हैं/
एक दूसरे से मिलने के लिए।”

शब्दों के मोतियों से भरी इन सीपी सदृश लघु कविताओं या क्षणिकाओं को सूक्ति कहा जाए और प्रो. टी.मोहन सिंह को सूक्तिकार; तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

– लेखक डॉ ऋषभदेव शर्मा
परामर्शी (हिंदी), मानू, हैदराबाद

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