हैदराबाद (डॉ जयशंकर यादव की रिपोर्ट): वैश्विक हिन्दी परिवार के तत्वावधान में विदेशी भाषा के रूप में हिन्दी शिक्षण के मद्देनजर, पाठ्यक्रम निर्माण, चुनौतियों और संभावनाओं पर रविवारीय विशेष व्याख्यान आयोजित किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ पेंसिलवेनियाँ के पूर्व प्राचार्य प्रो सुरेन्द्र गंभीर ने वक्ताओं की प्रशंसा सहित कहा कि हिन्दी शिक्षण विद्यार्थियों की आवश्यकताओं के अनुसार शिक्षार्थी केन्द्रित होना चाहिए। विदेशियों के लिए प्रारम्भिक स्तर पर भाषा प्रस्तुति की चुनौती होती है जिसमें लेखन की अपेक्षा बोलना, पढ़ना और समझना महत्वपूर्ण होता है। अब पचास साल पूर्व की व्याकरण सम्मत सामग्री प्रौद्योगिकीयुक्त हो गई है जो अधिकृत होनी चाहिए।
सुरेन्द्र गंभीर ने आगे कहा कि एक शब्द को आत्मसात करने हेतु लगभग बीस बार विभिन्न संदर्भों में प्रयोग करने से आत्मविश्वास दृढ़ होता है। सामग्री निर्माण में सामाजिक एवं क्षेत्रीय विभिन्नताएँ स्वाभाविक हैं। लिपि, सीखने का स्तर और सम्प्रेषण तथा संस्कृति के भी विविध पहलू होते हैं। क्षेत्र विशेष की संस्कृति एवं परंपरा आदि का विशेष प्रभाव स्वाभाविक है। आजकल समाचार पत्रों आदि में मिश्रित हिंग्लिश भाषा के प्रयोग से अंग्रेज़ी न जानने वाले शिक्षार्थियों को हिन्दी सीखने में कठिनाई आती है।
जापानी विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ वेद प्रकाश ने कहा कि विदेशी भाषा भाषियों के लिए मानक शब्दकोश निहायत जरूरी है। ‘बूढ़ी काकी’ कहानी शीर्षक का अनुवाद ओल्ड क्रो या कौवी जैसा अनुवाद दुखद है। हम लोग खुद क्षेत्र विशेष के अनुसार सामग्री निर्माण कर पढ़ाते हैं। विद्यार्थियों को तकनीकी मदद की छूट है। नाटक और फिल्म एजुटेंमेंट काफी सहायक हैं। दूसरे देश की सामग्री यहाँ काम नहीं आती।
यूक्रेन के कीव राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष डॉ यूरी बोत्विंकिन का स्पष्ट हिन्दी लहजे में कहना था कि आरंभ में हमें हिन्दी पढ़ाने की सामग्री रूस से मिली। आजकल गूगल प्रयोग से कागजी पुस्तिका की भूमिका कम हो रही है। यहाँ चुनौतियाँ कम और संभावनाएं अधिक हैं। यूक्रेन के विद्यार्थी उपनिषद, पुराण आदि के कार्टून देखते हैं। सिनेमा भी काफी प्रभावोत्पादक है। पीएच डी के लिए भी हिन्दी सिनेमा में स्त्री संवाद का विकास , सदृश विषय रहे हैं। हिन्दी सीखने के लिए सुव्यवस्थित दृष्टिकोण और इच्छाशक्ति चाहिए। यहाँ सामग्री की कमी नहीं है। हम उन्हें अंग्रेजी सुधारने हेतु बाध्य नहीं कर सकते।
रूस के पूर्व हिन्दी प्रोफेसर डॉ राजेश कुमार का स्पष्ट मत था कि दृश्य श्रव्य सामग्री अधिकृत और प्रामाणिक होनी चाहिए। हिन्दी सिखाने के लिए केंद्रीय हिन्दी संस्थान और एन सी ई आर टी जैसे सुप्रतिष्ठित संस्थानों से तैयार की गई सामग्री कारगर होगी।
सिंगापुर नेशनल यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर एवं इस कार्यक्रम की संयोजक डॉ संध्या सिंह द्वारा ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साथ विषय प्रवर्तन और आत्मीयता पूर्वक स्वागत किया गया। पुर्तगाल के लिस्बन विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ शिव कुमार सिंह द्वारा समुचित भूमिका के साथ शालीनता, विद्वता और उदात्तता से सधा हुआ संचालन किया गया। उन्होंने बारी-बारी वक्ताओं का संक्षिप्त परिचय देते हुए बड़े प्रेम से आमंत्रित किया।
कार्यक्रम में यू के की साहित्यकार सुश्री दिव्या माथुर, शैल अग्रवाल, रूस से प्रो अल्पना दास, चीन से प्रो विवेक मणि त्रिपाठी, सिंगापुर से प्रो संध्या सिंह, खाड़ी देश से आरती लोकेश, थाइलैंड से प्रो शिखा रस्तोगी, श्रीलंका से प्रो अतिला कोतलावल तथा भारत से जवाहर कर्नावट, बरुन कुमार, जयशंकर यादव, किरण खन्ना, रश्मि वार्ष्णेय, पी के शर्मा, गंगाधर वानोडे, विजय नगरकर, मिहिर मिश्र, राजेश गौतम, संजय कुमार, अपेक्षा पाण्डेय, अनिल साहू, सरिता, स्वयंवदा, ऋषि कुमार, विनय शील चतुर्वेदी एवं जितेंद्र चौधरी आदि सुधी श्रोताओं की गरिमामयी उपस्थिति रही। तकनीकी सहयोग का दायित्व डॉ मोहन बहुगुणा और कृष्ण कुमार द्वारा बखूबी संभाला गया। इस अवसर पर अनेक शोधार्थी उपस्थित थे।
समूचा कार्यक्रम विश्व हिन्दी सचिवालय, अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद और केंद्रीय हिन्दी संस्थान तथा वातायन संस्था के सहयोग से वैश्विक हिन्दी परिवार के अध्यक्ष अनिल जोशी के मार्गदर्शन और समन्वयन में संचालित हुआ। अंत में ब्रिटेन के बर्मिंघम से डॉ वंदना मुकेश द्वारा आत्मीय भाव से माननीय अध्यक्ष, सम्माननीय वक्ताओं, संयोजकों, समन्वयकों, संचालकों, सहयोगियों, शोधार्थियों एवं सुधी श्रोताओं आदि को नामोल्लेख सहित धन्यवाद ज्ञापित किया गया। समूचा कार्यक्रम सौहार्द पूर्ण माहौल में विदेशी भाषा के रूप में हिन्दी शिक्षण के ज्ञानार्जन सहित आत्मीयतापूर्वक सम्पन्न हुआ।