तेलंगाना समाचार में फिल्म समीक्षा- ‘द केरला स्टोरी’ के बहाने मन में उठते हुए सवाल’ शीर्षक आलेख में डॉ सुपर्णा मुखर्जी द्वारा उठाए गए कुछ मुद्दे और इस पर सलीम जी की प्रतिक्रिया पढ़ने को मिली.
लेख पढ़कर सबसे पहले यही सवाल मन में उठा कि एक धर्म के बारे में बतलाते समय दूसरे धर्म को उसमें घसीटना क्या सही है? क्या अपने धर्म की दूसरे धर्म से तुलना जरूरी है? यह कहना कि उस धर्म के लोग ऐसा कर रहे हैं तुम क्यों नहीं कर रहे हो, कहां तक सही है?
लेखिका प्रश्न उठाती है कि जितनी आसानी के साथ एक मुस्लिम लड़की अपने हिजाब के बारे में बात कर लेती है तो उतनी ही आसानी के साथ एक हिन्दू लड़की अपने घूँघट, दुपट्टा, सिंदूर, साड़ी, पायल, बिछुआ आदि के बारे में बात क्यों नहीं कर पाती है?
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यहां प्रश्न उठता है कि अगर मुस्लिम लड़की हिजाब के बारे में बात करती है तो तो क्या यह जरुरी है कि हिन्दू लड़की घूँघट के बारे में बात करे?
आज की युवा पीढ़ी बहुत आगे चली गई है. वह बहुत आधुनिक बन गई है, सोच में भी पहनावे में भी. जींस, स्कर्ट, पैन्टिस पहनकर बेधड़क घूम रही है. मर्दों के साथ कंधे से कंधा भिड़ाकर नौकरी कर रही है. वह डॉक्टर है, वह इंजीनियर है, वह वैज्ञानिक है, वह पायलट है, वह वाइस चांसलर है, वह प्रोफेसर है, वह सेना में है, वह पुलिस में है, वह क्लर्क है, वह कंडक्टर है. ऐसा कौन सा क्षेत्र है जहाँ वह नहीं है. क्या आज उन्हें घूँघट काढ़कर ड्यूटी निभाने की राय दी जा सकती है?
दक्षिण भारत में घूँघट की प्रथा नहीं है. हाँ उत्तर भारत में जरूर रही है. उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार, मध्य प्रदेश आदि प्रांतों में आज भी देहातों में यह प्रथा देखने को मिलती है. युवा पीढ़ी ने यह लगभग त्याग सा दिया है. जो स्त्रियां घूँघट काढ़ रही हैं, घूँघट न काढ़ने के लिए उनके साथ किसी तरह की जोर जबरदस्ती नहीं है. घूँघट काढ़े या न काढ़े यह उनकी या उनके समाज की मर्जी है.
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इसी तरह हम देखते हैं कि बहुत सारी मुसलमान लड़कियां भी बिना बुरखा या हिजाब के रह रही हैं. पहनें या न पहनें यह उनकी या उनके समाज की मरजी है. परन्तु जब उन पर हिजाब न धारण करने के लिए दबाव डाला गया तो, तब तक हिजाब न धारण करने वाली लड़कियों ने भी हिजाब पहन, उसके बारे में खुलकर चर्चा करते हुए अपना विरोध जतलाया. यह उनके आइडेंटिटी का सवाल बन गया था. क्या अब इसी बात को लेकर हिन्दू लड़कियां भी घूँघट काढ़ने लगे? सब कुछ छोड़कर उस पर ही चर्चा करने लगे?
हम किसी भी धर्म के बारे में चर्चा क्यों न करें हमारा उद्देश्य वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देना ही होना चाहिए. आशा है सुपर्णा जी इसे अन्यथा न लेंगी और इस सम्बन्ध में पुनर्विचार करेंगी. आपकी प्रतिक्रिया का सहर्ष स्वागत है.
एन आर श्याम
12-285 गौतमीनगर
मंचेरियल-504208