पुस्तक समीक्षा : ‘इक्यावन कविताएँ’ हैं ज़िद्दी और जुझारू

फणीश्वरनाथ रेणु का कथन है- “लेखक के संप्रेषण में ईमानदारी है तो रचना सशक्त होगी, चाहे किसी विधा की हो।” लेकिन सवाल यह है कि, लेखक कब ईमानदारी से लिख पाता है? प्रसिद्ध फिलिस्तानी कवि महमूद दरवेश ने एक बार कहा है- “हर सुंदर कविता प्रतिरोध का बाना है”। (द्रष्टव्य- प्रस्तावना : ‘इक्यावन कविताएँ: ऋषभदेव शर्मा’, पृ.9)। इसी प्रकार  अंग्रेजी कवि साइमन आर्मिटेज ने कहा है- “कविता के बारे में कुछ ऐसा है जो विरोधी है… इसमें कुछ अड़ियल है।

यह असहमति का एक रूप है… अपने भौतिक रूप में भी… यह दाहिने हाथ के मार्जिन तक नहीं पहुँचता है, यह पृष्ठ के निचले हिस्से तक नहीं पहुँचता है… इसमें कुछ ज़िद्दीपन और जुझारूपन सदा रहा है।” (वही: पृ. 9)। अर्थात्, जब कवि समाज और देश के बारे में सोचकर लिखता है, निरपेक्ष होकर लिखता है, लेकिन जज बनने का प्रयास नहीं करता है, तब वह ईमानदारी से लिखता है। ठीक वैसे ही, जैसे कवि ऋषभदेव शर्मा (1957) लिखते हैं। उनकी चुनिंदा कविताओं का संग्रह ‘इक्यावन कविताएँ‘ (2023; कानपुर: साहित्य रत्नाकर; 136 पृष्ठ; ₹ 200) इसे बखूबी प्रमाणित करता है।

प्रो.  गोपाल शर्मा ने इस पुस्तक के लिए कवि ऋषभदेव शर्मा की इक्यावन कविताओं का चयन ही नहीं किया है, अपितु सुविस्तृत प्रस्तावना भी लिखी है। इन कविताओं का स्वाद एक समान नहीं है, लेकिन इन कविताओं को कवि की ईमानदार चेतना ने साधारण जनमानस के जीवन के साथ जोड़ दिया है। प्रो. दिलीप सिंह के पास कवि ऋषभ के स्वभाव के बारे में कहने के लिए यह है- “लिखते अच्छा हैं, बोलते उससे भी अच्छा हैं। उनकी आवाज़ में हमेशा एक आवेश-जनित खनक होती है।” (वही, पृ.10)। यह आवेश उनकी कविता की भी पहचान है। देखें, माँ भारती को निवेदित उनकी कविता की ये पंक्तियाँ-

“काव्य को अंगार कर दे, भारती

शब्द हों हथियार, वर दे, भारती

हों कहीं शोषण-अनय-अन्याय जो

जूझने का बल प्रखर दे, भारती

सत्य देखें, सच कहें, सच ही लिखें

सत्य, केवल सत्य स्वर दे, भारती

सब जगें, जगकर मिलें, मिलकर चलें

लेखनी में शक्ति भर दे, भारती

हो धनुष जैसी तनी हर तेवरी

तेवरों के तीक्ष्ण शर दे, भारती”

(ऋषभदेव शर्मा: इक्यावन कविताएँ: पृ. 42)।

सामाजिक न्याय और सत्य की पक्षधर इस कविता की प्रासंगिकता स्वयंसिद्ध है! सही बात है क्योंकि जब तक माँ भारती के सपूत नहीं जागेंगे तब तक कैसे माँं भारती का आँचल स्वच्छ होगा! कवि का आह्वान है-

“अब न बालों और गालों की कथा लिखिए

देश लिखिए, देश का असली पता लिखिए।” (वही: पृ.43)।

साहित्यकार को केवल आदर्श बघारने के लिए ही नहीं लिखना चाहिए क्योंकि आदर्श और यथार्थ के बीच में जब द्वंद्व उत्पन्न होता है तब यथार्थ का साथ देना ही उचित और प्रासंगिक होता है। कवि ऋषभ इस सत्य से भली भाँति परिचित हैं। ‘औरतें औरतें नहीं’ कविता का यह अंश देखें-

“औरत को जीतने का अर्थ है

संस्कृति को जीतना

सभ्यता को जीतना,

औरत को हराने का अर्थ है

मनुष्यता को हराना,

औरत को कुचलने का अर्थ है

कुचलना देवत्व की संभावनाओं को।

इसलिए तो

उनके लिए

औरतें ज़मीन हैं;

वे ज़मीन जीतने के लिए

औरतों को जीतते हैं!” (वही: पृ. 50-51)।

यह कविता संपूर्ण विश्व में हज़ारों स्त्री-समर्थक नियमों के बावजूद स्त्री की भयावह दशा को रेखांकित करने में समर्थ हैं।

प्रस्तुत पुस्तक में संकलित कविता ‘लाज न आवत आपको’ में कवि ने तुलसीदास की पत्नी रत्नावली की भावनाओं को नए रूप में प्रस्तुत किया है। पढ़ते हुए बरबस ही मैथिलीशरण गुप्त की यशोधरा और उर्मिला की याद आ गई। उन्हें पति छोड़ गए थे अपने कर्तव्य पालन हेतु; लेकिन रत्नावली ने तो पति को कर्तव्य पथ से अवगत करवाया था। फिर क्यों वह एकाकी जीवन जीने के लिए बाध्य हुई? कवि ऋषभ की कल्पना कहती है-

“तुम्हें बता बैठी तुम्हारा सच

और तुम लौट गए उल्टे पैरों

कभी न आने को!”( वही: पृ. 57)।

हाँ, रत्नावली ने पति को सच बता देने का ही अपराध किया था। स्त्री को सच भी वही बोलना चाहिए जो पुरुष को मनभावन लगे! परंतु रत्नावली ने तो यह कह दिया कि-

“न तुमने रात देखी न बारिश,

न तुमने नाव देखी न नदी,

तुम्हें लाश भी दिखाई नहीं दी,

साँप तो क्या ही दीखता?

तुम लाश पर चढ़े चले आए।

तुम साँप से खिंचे चले आए!

न था तुम्हें कोई भय

न थी लोकलाज!

तुम पुरुष थे

सर्वसमर्थ;

और समर्थ को कैसा दोष?

मैं औरत थी

पूर्ण पराधीन;

और पराधीन को कैसा सुख?” (वही: पृ. 56)।

ऐसा माना जाता है कि स्त्री ही स्त्री-मन की भावनाओं को सजीव रूप में उकेर सकती है। लेकिन ऐसा नहीं है। कवि ऋषभ को पढ़ने से समझ आता है कि बुद्ध उसी दिन बुद्ध बने थे जिस दिन उनमें स्त्री रूपी करुणा का संचार हुआ था और धर्म को नवीन रूप में उन्होंने विश्लेषित किया था। इस कवि में भी वही आवेग है जो धार्मिक उन्माद के विरुद्ध जाकर कहता है-

“सभी महाप्रभु खाली कर दें मेरी धरती

मुझे उगाना है एक जातिहीन मनुष्य

धर्मों से परे!” (वही: पृ. 135)।

यह कवि घुमा फिराकर बात नहीं करता। सीधी सपाट भाषा में ‘पछतावा’ भी प्रकट करता है; कुछ इस तरह-

“हम कितने बरस साथ रहे

एक दूसरे की बोली पहचानते हुए भी

चुप रहे

आज जब खो गई है मेरी जुबान

तुम्हारी सुनने और देखने की ताकत

छटपटा रहा हूँ मैं तुमसे कुछ कहने को

बेचैन हो तुम मुझे सुनने-देखने को

हमने वक्त रहते बात क्यों न की?” (वही: पृ. 130)।

अंत में यही कि इन इक्यावन कविताओं का रसास्वादन यथाशीघ्र कर लेना उचित होगा, ताकि एक अच्छे संकलन को न पढ़ पाने का ‘पछतावा’ मन में न रहे।

डॉ. सुपर्णा मुखर्जी

हिंदी प्राध्यापिका, भवन्स विवेकानंद कॉलेज, सैनिकपुरी, हैदराबाद (तेलंगाना)। मो. 9603224007. ईमेल- drsuparna.mukherjee.81@gmail.com

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