भारत की आबादी जो अब शहरों में रहती है उनके लिए ‘आदिवासी’ शब्द अब एक गाली के समान है। जैसे अगर किसी को अशिक्षित कहना हो तो लोग पूछते हैं ‘क्या जंगली आदिवासी’ हो’? किसी को असामाजिक कहना हो तो लोग कह देते हैं ‘आदिवासी जंगली जनजाति समान अपराधी है’। आदिवासियों को लेकर अनेकों कुमंतव्यों को सुना जा सकता है। कुल मिलाकर तथाकथित सभ्य समाज ने यह मान लिया है कि आदिवासी वे लोग हैं जो अशिक्षित हैं, बर्बर हैं, असभ्य हैं और अपराधी भी हैं। “जाति” और “जनजाति” की अवधारणाएँ भारतीय समाज में पुर्तगाली यात्री-लेखकों और धर्म प्रचारकों के आने के बाद जड़ें जमा बैठीं। वे इन शब्दों का इस्तेमाल भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न नस्ली तथा व्यावसायिक समूहों और समुदायों के लिए करते थे। आज ये शब्द लंबे समय तक पहने हुए उन मुखौटे की तरह हो गए हैं जिन्होंने असली व्यक्तित्व पर कब्ज़ा कर लिया है’।
(1) आदिवासी जीवन की सच्चाई क्या है? इनकी जीवनधारा का उत्स कहाँ है? इन प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए मानवशास्त्री लुई ड्यूमोंट के विचार को पढ़ना प्रासंगिक होगा। जाति प्रथा की चर्चा करते हुए लुई ड्यूमोंट लिखते हैं कि, ‘अठारहवीं शताब्दी के अंत तक, “जाति” शब्द का प्रयोग विशिष्ट सामाजिक समूहों के लिए किया जाता था जबकि “जनजाति” शब्द उन समूहों के लिए था जो सामाजिक अनुक्रम में नीचे थे। औपनिवेशिक शासकों ने अंत में इन दोनों की समानता को कानूनी हस्तक्षेप द्वारा नष्ट कर दिया जब उनके द्वारा 1872 में भारत के समुदायों की एक आधिकारिक सूची तैयार की गई जिसे भारत के जनजातियों की सूची करार दिया गया। तब से आज तक “जनजाति” को भारतीय समाज के एक पृथक अंग के रूप में ही देखा गया है’।
(2) इस अध्ययन से यह तो स्पष्ट हो ही गया है कि आदिवासी समूह को लेकर चिंतन प्रक्रिया केवल आज संकुचित है ऐसा नहीं है, इस संकुचित मानसिकता का इतिहास बहुत पुराना है। इस संकुचित इतिहास को वृहद बनाने, तर्कशील और सामाजिक बनाने का प्रयास भारतीय समाज में कभी किया नहीं गया। इसके विपरीत प्रयास बारंबार यही किया गया कि इन्हें समाज के मूलस्रोत से दूर रखा जाए, इनके ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया जाए। कभी इन्हें जंगली मानकर दुत्कारा गया तो कभी अपराधी मानकर उन्हें दंड दिया गया। आदिवासी समूहों का इतिहास विश्व के प्रत्येक देश में ही पाया जाता है लेकिन कमोबेश भारतीय आदिवासियों की जीवन गाथा तुलनात्मक दृष्टि में अधिक दयनीय दिखाई पड़ती है। वैसे तो ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों पर अनेक अत्याचार किया लेकिन आदिवासियों के उत्थान के लिए जो प्रयास भारतीयों को करना चाहिए था वह प्रयास अंग्रेजों ने किया था। वेरियर एल्विन एक ऐसे ही आदिवासी प्रेमी ब्रिटिश थे ‘जिनके आदिवासियों के बारे में हमारी वर्तमान जानकारी के लिए हम आभारी हैं, आदिवासी समुदायों के बीच एक सावधान और क्रमिक हस्तक्षेप के सिद्धांत की हिमायत की थी। जवाहरलाल नेहरू ने इस सिद्धांत को, जो उन दिनों पंचशील सिद्धांत कहलाता था, आदिवासियों के प्रति राज्य नीति के रूप में अपनाया। उन्होंने “अपराधी जनजाति” के नाम से कलंकित समुदाय की अधिसूचना रद्द करवाई। एल्विन का न्यूनतम हस्तक्षेप का सिद्धांत उनके आदिवासियों से गहरे जुड़ाव और प्रेम का परिणाम था’।
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(3) साहित्यकारों ने भी समय-समय पर आदिवासियों के घुमंतु जीवन को लेकर पर अनेक रचनाओं को रचा। ऐसी ही एक साहित्यकार है- उषाकिरण आत्राम। मूलत: ये मराठी भाषा की लेखिका हैं। इन्हें केवल आदिवासी जीवन को लिखनेवाली लेखिका कहना गलत होगा क्योंकि उषाकिरण आत्राम द्वारा स्थापित ‘आदिवासी भाषा विकास व संशोधन प्रकल्प, धनेगाँव’ आदिवासी भाषा, साहित्य और संस्कृति को संरक्षण प्रदान करने में महतावपूर्ण भूमिका निभा रहा है। अर्थात, लेखिका को आदिवासी जीवन का स्वअनुभव है। यह ज्ञान ही ‘कलम की तलवारें’ बनकर पाठकों की चेतना को लहूलुहान करने के लिए साहित्य से जुड़ा हुआ है। उषाकिरण आत्राम ने गोंड जनजाति की जीवनशैली को अपनी कविताओं के केंद्र में रखा है। उनकी कविताओं का अनुवाद मिलिंद पाटिल ने किया है। प्रोफेसर देवराज ने अनूदित कविता संकलन ‘कलम की तलवारें’ की भूमिका में लिखा है, ‘कलम की तलवारें’ काव्य-संकलन को पढ़ना शुरू करेंगे, तो पहली कविता में ही दो स्त्रियॉं के बीच घटने वाले संवाद से साक्षात्कार होगा। इनमें, एक प्रौढ़ा है, दूसरी किशोरी। इसके आगे बढ़ने के पहले कहना जरूरी है कि इस कविता को सही-सही समझने के लिए पाठक को लोक जीवन के अपने संचित ज्ञान को सक्रिय करना होगा, क्योंकि यह कविता सीधा बयान करती है, जबकि पृष्ठभूमि को पाठक की जीवन (और काव्य) की समझ पर छोड़ देती है’।
(4) प्रोफ़ेसर देवराज की इस उक्ति को आधार बनाकर अनूदित कविता संकलन ‘कलम की तलवारें’ को पढ़ना शुरू किया तो आदिवासी विमर्श से संबंधित निम्न तथ्यों को विस्तार से समझने का अवसर प्राप्त हुआ।
रोजगार से संबंधित प्रश्न- आदिवासी या घुमंतु लोगों के लिए जीवनयापन की समस्या प्रतिदिन की समस्या है। ऐसा नहीं है कि ये लोग काम नहीं करना चाहते हैं। समस्या यह है कि पारिश्रमिक देकर कोई इनसे काम नहीं करवाना चाहता है। सभ्य समाज इनका शोषण करने से कभी पीछे नहीं हटता है। स्वतन्त्रता से पहले दृश्य यह था कि, ‘1871 तक अंग्रेजी शासन द्वारा अपराधी जातियों की एक आधिकारिक सूची तैयार कर ली गई तथा उसी वर्ष इनके नियंत्रण के लिए एक कानून पारित किया गया। उदाहरण के लिए भील जनजाति जिसने अंग्रेजों के खिलाफ नर्मदा तट पर खानदेश में युद्ध किया उन्हें भी भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code) की धारा 110 के अंतर्गत अपराधी घोषित कर दिया गया। क्रिमिनल ट्राइब्स ऐक्ट (आपराधिक जनजाति अधिनियम) के तहत सुधार बस्तियों की स्थापना करने का प्रावधान बना जहाँ तथाकथित “अपराधी” आदिवासियों को बंदी बना कर रखा जाता और उन्हें कम वेतन पर काम करने के लिए बाध्य किया जाता। उन्हें दिन में कई बार पहरेदारों के पास जाकर हाज़िरी देना ज़रूरी था ताकि वे इन दमनकारी बस्तियों से भागने का प्रयास न कर सकें’।
(5) स्वतन्त्रता के बाद ‘भारत सरकार द्वारा अपराधी घोषित आदिवासियों को विमुक्त कर दिया गया, परंतु इस अधिसूचना के स्थान पर एक के बाद एक कई अन्य अधिसूचनाएं जारी हुई जिन्हें ‘हैबिचुअल ऑफेंडर्स ऐक्ट’ (Habitual Offenders’ Act) (HOA) के नाम से जाना जाता है। विमुक्तिकरण तथा HOA के पारित होने के बाद भी क्रिमिनल ट्राइब्स ऐक्ट (आपराधिक जनजाति अधिनियम या CT Act) द्वारा दंडित इस समुदाय की परेशानियों का अंत नहीं हुआ क्योंकि HOA में पिछले CT अधिनियम के काफ़ी प्रावधान मौजूद थे सिवाय इस अंतर्निहित अवधारणा के जिसके अनुसार पूरा का पूरा समुदाय “जन्मजात अपराधी” माना जाता है’।
(6) इन दो परिस्थितियों के बीच में माँ और बेटी का निम्न वार्तालाप-
‘नियति है हमारी
घी निकालना, फिर छाछ की खरीददारी करना
उसने उरसूँडी की टोकरी की रस्सी
काट डाली दाँतों से बात की बात में… और
मन के दुख की उल्टी कर दी!
तभी हाथ में खड़िया-पाटी
थामे लड़की ने उछाला सवाल…!
माँ! परंतु हम घी क्यों निकालें,
ऊपर से खरीददारी भी क्यों करें छाछ की’?
(7) ये केवल कुछ पंक्तियाँ नहीं है बल्कि पीढ़ी दर पीढ़ी आदिवासी कैसे अपने जीविकोपार्जन के लिए संघर्षरत है। इसका सजीव चित्र प्रस्तुत करनेवाला विश्लेषण है।
अस्तित्व की रक्षा का प्रश्न- भारत के संविधान में विद्यमान प्रतिश्रुति, ‘राज्य जनता के दुर्बल वर्गों के, विशिष्टतया, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा और सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से उनकी संरक्षा करेगा’।
(8) क्या इस प्रतिश्रुति का पालन किया जाता है? अगर उत्तर ‘हाँ’ है तो प्रश्न फिर यह उठेगा कि फिर आदिवासी बच्चे स्कूली शिक्षा क्यों नहीं प्राप्त कर पाते हैं? क्यों अधिकतर आदिवासी विकृत रक्त कोशिका के रोग से ग्रस्त हैं? क्यों आदिवासी ऋण ग्रस्त हैं जबकि उनके पास तो उनके हिस्से का कोई पक्का मकान भी नहीं रहता है। क्यों उनके प्रश्न को ‘विद्रोह’ कहकर दबा दिया जाता है? प्रश्न यह भी उठता है कि भाषा विज्ञानियों का अनुसंधान कहता है कि आदिवासियों की लगभग 88 भाषाएँ हैं लेकिन उनकी किसी भी भाषा को संवैधानिक मान्यता क्यों नहीं प्राप्त हुई है? आदिवासी आज भी अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्षरत है। उनकी जीवनशैली को ही रहस्यात्तमक रूप में ऐसे प्रस्तुत किया जाता है कि जैसे वे इस धरती के वासी ही नहीं है। निम्न पंक्तियाँ इसी सच का प्रमाण प्रस्तुत कर रही है-
‘हम जन्मे माँ के पेट से ही
वे हाथ-पाँव, नाक और मुँह से
जनमने का बताते इतिहास
सच कैसे वह इतिहास?
माँ के पेट से जन्म
कैसे है झूठ?
तुम्हारी लिपि नहीं, भाषा नहीं
धर्म नहीं, संस्कृति नहीं
कहते है आप
पर आप जब पधारे पश्चिम से
तब-हम देश में अपने गूंगे, बहरे, अंधे थे क्या?
(9) यह कैसी विडंबना है कि अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए तथाकथित सभ्य, सुशिक्षित समाज सुव्यस्थित तरीके से आदिवासियों को साधारण मनुष्य श्रेणी से बाहर रखने के जीतने हथकंडे हैं सबका प्रयोग करने के लिए तैयार है। न्यायव्यवस्था भी मौन है जबकि आदिवासी का यह कहना मिथ्या नहीं है कि-
देख लीजिए- मोहन – जो- दाड़ो, हड़प्पा
जिंदा है आज भी सुवर्ण इतिहास हमारा
स्वर्णिम इतिहास, लिपि का, संस्कृति का प्रगति का
उच्चतम सभ्यता का वैभव लकलक करता इतिहास
बहादुर पंडितों!
दिया धोखा कलम ने आपको
सच के महत द्वार पर ठोक ताला’।
(10) देश के स्वतन्त्रता संग्राम में बंगाल के संथाल आदिवासियों ने जिस अदम्य साहस का परिचय दिया था, 1778 में बिहार के आदिवासियों ने स्वतन्त्रता के लिए अपना सब कुछ झोंक दिया था, 1809 के भील विद्रोह के बिना क्या स्वतन्त्रता मिल सकता था? 1942 में उड़ीसा के लक्ष्मण नाइक के नेतृत्व में स्वतन्त्रता के लिए विद्रोह का स्वर मुखरित हुआ। ये सारी घटनाएँ इस सच्चाई को दिखाते हैं कि न तो आदिवासी असभ्य हैं और न ही रहस्यमय प्राणी। वे भी भारत के नागरिक हैं, उन्हें स्वस्थ जीवन प्रणाली अब तक मिल जाना चाहिए था। ‘परंतु जब आदिवासी पहाड़ों और जंगलों में लड़ रहे थे, भारत के बाकी हिस्सों को शिक्षित और “सभ्य” बनाया जा रहा था, उनका आत्मबोध इतना अभिभूत हो चुका था कि स्वतंत्र होने के बाद भारत ने भी आदिवासियों को आदिकालीन और असभ्य समझा जो इतिहास के साथ तालमेल न बैठा सके। अधिसूचित जनजातियों की स्थिति इनसे भी बदतर थी। अगस्त 1952 तक देश में इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया कि इन जनजातियों को अनाधिसूचित करने की घोषणा भी उसी अर्धरात्रि को होनी चाहिए थी जिस रात, नेहरू के शब्दों में, भारत ने “नियति के साथ अपना वादा” पूरा किया’।
(11) आदिवासी आज भी स्वाधीन भारत देश से प्रश्न पूछ रहे हैं कि-
‘स्वाधीनता हित दी जिन्होंने आहुति प्राणों की
कर दिए मातृभूमि के लिए अर्पित प्राण
चले गए – हो गए निश्शेष…. शहीद हो गए… लेकिन
मिला क्या उनकी पीढ़ियों को?
क्या मिला उनके रक्तदान का प्रतिदान?
क्या पाया हमने?
(12) प्रोफेसर देवराज ने बिल्कुल सही लिखा है कि, ‘आदिवासी शब्द के पूर्व-पद के रूप में स्थापित ‘बेचारा’ विशेषण वर्चस्ववादी वर्गों को यह स्वयंभव छद्म-छली स्वतन्त्रता प्रदान करता है कि वे परंपरागत रूप से आदिवासियों के अधिकार और संरक्षण में रहे प्राकृतिक संसाधनों का- विकास और आर्थिक प्रगति के नाम पर – मनमाना दोहन करें, आदिवासी समुदायों को अधिकारहीन बनाएँ, उनका शोषण करें। इनमें ठेकेदार, दलाल, पूंजीपति, उद्योगपति, वैश्विक अर्थ-व्यवस्था के संचालक-नियंत्रक कार्पोरेट्स मुख्य हैं’।
(13) कहने को तो आदिवासियों के लिए अनेक प्रकार की योजनाओं को शुरू किया गया है, अनेक प्रकार के आरक्षण है। सच्चाई यह है कि उनके अस्तित्त्व को अंग्रेजी वर्णमाला के दो वर्णों ST (Schedule Tribe) के द्वारा संकुचित कर दिया गया है। इन दोनों वर्णों ने इन्हें दया के पात्र से भी अधिक रहस्यकरी अवांछित पात्र के रूप में चित्रित किया है। कवयित्री उषाकिरण आत्राम की ‘कलम’ ‘तलवार’ बनकर लिखती है कि-
‘संबोधित किया जाता हमें ‘बेचारे आदिवासी’
नंगे रहते अभाव में कपड़ों के,
करते शिकार
खाते कंद-मूल
धूप और तूफानी हवाओं का
सामना करते हँसते-नाचते
वे भला बेचारे कैसे?
जाँघ पर बैठा लेता बाघ
गर्दन में लपेट लेता साँप
जंगल-गुफा-बीहड़
घूमता बिंदास
वह कैसा बेचारा’?
(14) आज अपनी अस्तित्त्व की लड़ाई लड़ता हुआ आदिवासी वर्ग भी दो भागों में विभक्त हो गया है। एक वर्ग जो कि विभिन्न योजनाओं का लाभ उठाकर सुसभ्य बनकर आज अपने को आदिवासी कहलाना पसंद ही नहीं करता है, वह अपनी आदिम संस्कृति को शहरी चकाचौंध में दफना चुका है और एक वर्ग आज भी दरिद्रता से लड़ रहा है, घुमंतू जीवन बीता रहा है और कई झूठे-सच्चे आरोपों के कारण न्याय के कठघड़े में खड़ा दिखाई पड़ता है। कवयित्री उषाकिरण आत्राम की लेखनी लिखती है-
‘जिनको सौंपे अधिकार
समाज को बचाने को
देशसेवा के- राष्ट्र रक्षा के
उन्होंने काट ली आपकी जेब, तो-
भेजो लानत उस खाकी वर्दी पर
और पान खा कर थूक दो- तिरछी टोपी पर
नहीं होते सभी पानी पेय-जल योग्य
धो डालो सब कुछ गंगा में
लड़की हमारी नहीं है, तो क्या
लूट लेगा कोई भी उसकी इज्जत’?
(15) सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान का प्रश्न- पिज़्ज़ा, बर्गर, डिस्को, डीजे आदि के समय में वैसे तो संपूर्ण भारतीय संस्कृति ही ‘fusion culture’ में परिवर्तित हो गई है। ऐसे में आदिवासी सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान को बचाकर रखनेवाले नियमों, उत्सवों और खानपान आदि को समझना कठिन कार्य है। सबसे पहले तो यह मान लिया जाता है कि आदिवासियों की कोई संस्कृति, सभ्यता होती ही नहीं है क्योंकि वे तो जंगली हैं। यह सोच इतनी बलवती है कि इससे बाहर जाकर कोई कुछ सोच ही नहीं पाता है। तथाकथित सभ्य समाज को यह जानना चाहिए कि, ‘संचय करना आदिवासियों की प्रवृत्ति नहीं है। धन-संपत्ति, ज़मीन और जानवर पर स्वामित्व उन्हें एक सीमा तक ही भाता है। अतः उनके श्रम का उद्देश्य केवल संपत्ति जोड़ना नहीं है। धनार्जन उनके परिश्रम का एकमात्र परिणाम नहीं है इसलिए वे दूसरों का काम के मामले में शोषण नहीं करते हैं। जिन्हें हम आमतौर से आदिवासी हस्तकला समझने की भूल करते हैं, बनाते हैं। वे अपने समाज के नियमों के प्रति बहुत संवेदनशील होते हैं परंतु अन्य किसी नियम और कानून के प्रति पूरी तरह से उदासीन और बेफ़िक्र’।
(16) दुखद सत्य यह है कि इनकी ‘समृद्ध संस्कृति’ को नकारने का एक भी प्रयास सभ्य नहीं छोड़ता है। आदिवासी चीख चीख कर कहता है-
‘वे युग-युगों से ही नकारते आए हैं
सच पर खड़ा मेरा जीवन और अस्तित्व
मेरे दर्द के गाँव का रास्ता
नहीं किसी को ज्ञात
मेरे जख्मों की मालाओं का विद्यापीठ
सशक्त यथार्थ-विज्ञानवादी-सत्य’
(17) ध्यान देनेवाली बात यह है कि आदिवासी संस्कृति के नाम पर उनके नृत्य, संगीत आदि का प्रदर्शन किया तो जाता है। लेकिन, इन प्रदर्शनों में आदिवासी संस्कृति के लिए सम्मान कम और सहानुभूति अधिक दिखाई पड़ती है। आदिवासी उत्सवों में आदिवासी केवल दर्शक और नर्तक बनकर ही रह जाते हैं। उन्हीं की कहानी उनको ही बुद्धिजीवी, नेतागण भाषणबाजी के माध्यम से सुनाते हैं। इन उत्सवों की आड़ में आदिवासी स्त्रियों का शोषण किया जाता है।
‘हमारे घर में
आपका बिछोना है
उसे हम कभी भी फेंक सकते हैं
घर में घुस आने वालो, मत बोलो हमें वनवासी
वो, जो देखा ही नहीं किसी ने
कैसे कहें उसे स्वर्ग?
जीवन भर उनकी ज़िंदगी
दहकते कोयले का डूह
वो जलती राख कैसे नहीं पड़ती
आपकी आँखों में?
(18) आदिवासी शोषण और कानून व्यवस्था का प्रश्न- आदिवासी शब्द का अर्थ केवल कोई एक समुदाय नहीं है। यह ज्ञात होना आवश्यक है कि सभी आदिवासी समुदाय एक समान नहीं होते हैं। प्रत्येक समुदाय अपने आप में अलग होता है। प्रत्येक समुदाय अपने आप में ऐतिहासिक और सामाजिक समुदायों का परिणाम है। आदिवासी समुदाय 4 विभिन्न भाषा-परिवार, अनेक अलग प्रकार के प्रजातीय वंशों और जीववादी साँचों में ढला हुआ होता है। इसलिए किसी एक समुदाय के नियम को दूसरे समुदाय के नियम के साथ जोड़ा नहीं जा सकता है। आदिवासियों की आवश्यकता एक ठोस ईमानदार कानून व्यवस्था की है। क्या आदिवासियों की इस आवश्यकता को पूरा किया जाएगा? प्रोफेसर देवराज जी ने लिखा है, ‘उपनिवेशवाद ने हमारे लिए कई अनचाही विरासतें निबटाने के लिए छोड़ीं हैं। पर हमारे आत्मबोध पर उनका प्रभाव सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण रहा है। “जाति” और “जनजाति” के वर्गीकरण ने भारतीय समाज के बारे में हमारी सोच पर ऐसी छाप छोड़ी है कि आने वाले समय में शायद यह संभव नहीं लगता है कि ऐसे लोगों को जिन्हें हम आदिवासी कहते हैं गैर आदिवासियों से भिन्न कर सके’।
(19) प्रोफेसर देवराज के विश्लेषण को गलत नहीं कहा जा सकता क्योंकि सच्चाई तो हम सब देख रहे हैं कि,
‘बजता उनका ढोल दिल्ली से गल्ली तक
विकास! विकास! आदिवासियों का विकास!
करोड़ों, खर्च, उनके सर्वांगीण विकास पर
कुपोषण, शिक्षा, घरकुल, खिचड़ी, पत्रावली,
सुअर, मुर्गे, बकरियाँ, गाय-बैल, इत्यादि इत्यादि
सामूहिक विवाह में जनता साड़ी…
सोने का मुलम्मा चढ़ा ताँबे का मंगलसूत्र
दिया, उनके जीवन का सोना किया
सुवर्ण दिन, सुवर्ण काल, सौभागी हुए वे
बना मूर्ख, मार दिये दबा कर मुँह’।
(20) संविधान सभा के आदिवासी सदस्यों– जयपाल सिंह मुंडा, जेम्स जाय मोहन निकोलस, बोनिफास लकड़ा, रामप्रसाद पोटाई आदि ने बहुत प्रयास किया कि आदिवासी समुदाय अपनी मूल सांस्कृतिक पहचान के साथ ही संवैधानिक संरक्षण प्राप्त कर सके। दुखद सत्य यह है कि आदिवासी शोषण जो शताब्दियों से यूँ ही चल रहा था स्वाधीन भारत में इस शोषण के साथ 5 नए पक्ष जुड़ गए।
⦁ प्राकृतिक संसाधनों के अतिरिक्त दोहन पर आधारित विकास की उस अवधारणा का अनुकरण किया जाने लगा जिसने आदिवासियों को प्रकृति से ही दूर कर दिया।
⦁ आदिवासियों ने जब भी अपनी बात को रखने का प्रयास किया उन्हें आंदोलनकारी या विद्रोही कहकर चुप करा दिया गया। अभिव्यक्ति का अधिकार उन्हें मिला ही नहीं। लेखकों, कलाकारों, प्राध्यापकों, सामाजिक जन सूचना कार्यकर्ताओं ने जब इन आदिवासियों की सहायता करने का प्रयास किया तो उन्हें ‘अर्बन नक्सल’ का नाम देकर उन्हें भी कानून के शिकंजे में फँसा लिया गया।
⦁ आदिवासियों को धर्म परिवर्तन के लिए कभी पैसों का लालच दिया गया तो कभी उन्हें यह समझाया गया कि ‘धर्म ही संस्कृति’ है। इससे आदिवासी चिंतित हुए और अपनी ‘सांस्कृतिक पहचान’ को बचाने लिए कहीं-कहीं आक्रामक भी बन गए। बस! इन्हें दंड देने का, समाज से दूर रखने का मौका मिल गया।
⦁ आदिवासियों के प्रति ‘कृत्रिम सहानुभूति’ दिखाने का नाटक तो चलता रहा लेकिन उनकी जीवनशैली को समझने के लिए किसी प्रकार का कोई शोधपरक प्रयास किया ही नहीं गया।
⦁ आदिवासी विकास की नीतियों को आकर्षक ढंग से बनाया तो गया लेकिन आदिवासी स्वयं यह कभी जान ही नहीं सके कि उनके अधिकार कौन से हैं? ऐसे में वे उन नीतियों का लाभ भला कैसे उठाते?
यह सब कुछ सोच समझकर ही किया गया। इससे यह स्पष्ट हो ही जाता है कि कानून रूपी रक्षक ही आदिवासियों के हितों का भक्षक है। कानून नहीं उषाकिरण आत्राम जैसी साहित्यकार ‘कलम की तलवारें’ खींचकर प्रयासरत हैं आदिवासियों को उनके पारंपरिक जीवनशैली के साथ ही समाज की मुख्यधारा के साथ जोड़ने के लिए। आशा का साथ छोड़ना गलत है इसलिए आशा रखनी होगी कि आदिवासियों की जीवन शैली को लेकर जो भ्रम फैला हुआ है उसमें परिवर्तन अवश्य ही आएगा।
समीक्षक डॉ. सुपर्णा मुखर्जी एक जागरूक नागरिक
सैनिकपुरी, हैदराबाद केंद्र
9603224004
drsuparna.mukherjee.81@gmail.com