पुस्तक समीक्षा : ‘कलम की तलवारें’ से सीख लो करना वार : उषाकिरण आत्राम

डॉ मिलिंद पाटिल की ‘पुस्तक कलम की तलवारें’ की समीक्षा

गोंड आदिवासी साहित्य की चर्चित साहित्यकार हैं उषाकिरण आत्राम। कविता, नाटक और कथा-साहित्य के माध्यम से उन्होंने आदिवासी स्त्रियों के संघर्षशील और ‘भावनात्मक विलासिता रहित जीवन’ (देवराज) को उकेरा है। उनकी कविताओं को पढ़ने से यह प्रतीत होता है कि दुःख-दर्द, वेदना, पीड़ा, शोषण को सहकर चलने वाली इन आदिवासी स्त्रियों के पास रूठने, शिकायत करने या कहें कि अपनी नियति पर आँसू बहाने या कोसने के लिए भी फुर्सत के चंद लमहे नहीं हैं। उषाकिरण आत्राम ऐसी स्त्रियों की आवाज है।

उषाकिरण आत्राम का जन्म 28 अप्रैल, 1954 को नंदौरी गाँव (तालुका भद्रावती, जिला- चंद्रपुर) में हुआ था। उनके पिताजी का नाम दादजी कुशन शाह आत्राम और माता का नाम शालूबाई था। सातवीं कक्षा तक की पढ़ाई उन्होंने गाँव में संपन्न की। शिक्षा के संबंध में उन्होंने स्पष्ट किया है कि “उस समय हमारे गाँव में हाई स्कूल नहीं था। न ही स्थायी सड़कें थीं और न ही बसें थीं। बचपन से ही पढ़ाई की बड़ी इच्छा थी। मेरे पिताजी ने इधर-उधर से जानकारी जुटाई और चंद्रपुर में मुझे रखकर ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई कराई। ग्रेजुएशन के समय घर की आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गई थी। मैंने अपना गुजारा करने के लिए पास ही के गाँव के खेतों में काम भी किया। इस तरह मेरी ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी हुई।”

उषाकिरण आत्राम का बचपन अभावों में बीता। उन्होंने आर्थिक समस्याओं को नजदीक से देखा और भोगा। उन्होंने पढ़ाई के साथ-साथ अपने पिता की सहायता करने हेतु ग्रामसेविका के रूप में भी कार्य किया था। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं मोट्यारिन (गोंडी काव्य संग्रह : 1993), अहेर (मराठी कथा संग्रह : 1996), म्होरकी (मराठी काव्य संग्रह : 1998), एक झोका आनंदाचा (मराठी बालगीत : 2000), गोंडवाना की महान वीरांगनाएँ (2003) आदि। वे ‘गोंडवाना दर्शन’ और ‘आदिवार्ता’ पत्रिकाओं के संपादक मंडल की सदस्य भी रहीं। अनेक सम्मानों एवं पुरस्कारों से उषाकिरण आत्राम सम्मानित हो चुकी हैं। उनकी कथनी और करनी में अंतर नहीं दिखाई देता। जिस तरह से महाश्वेता देवी, रमणिका गुप्ता आदि साहित्यकारों ने जमीनी स्तर पर आदिवासी समुदायों के लिए कार्य किया उसी प्रकार उषाकिरण आत्राम भी अपने आदिवासी समुदाय के लिए सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में कार्य कर रही हैं। वे धनेगाँव में ‘आदिवासी भाषा विकास व संशोधन प्रकल्प’ की स्थापना करके लुप्तप्राय आदिवासी भाषा, साहित्य और संस्कृति के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं।

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2023 में प्रकाशित ‘कलम की तलवारें’ शीर्षक पुस्तक जन-संघर्षधर्मी आदिवासी कवयित्री उषाकिरण आत्राम की मराठी व झाड़ी कविताओं का संग्रह है। इन कविताओं में आदिवासी स्त्रियों की संस्कृति मुखरित है। इस संग्रह की पहली कविता अत्यंत संवेदनशील कविता है। इस कविता में दो स्त्रियों- माँ और बेटी के बीच संवाद है। माँ अपने मन के दुख को बेटी के सामने अभिव्यक्त करती है यह कहकर कि घी निकालना, फिर छाछ की खरीदारी करना, उरसूँडी की टोकरी की रस्सी काटना आदि उनकी नियति है। तब बेटी यह सवाल करती है कि हम घी क्यों निकाले, ऊपर से छाछ की खरीददारी भी क्यों करें? जब माँ अपनी नियति को कोसती है तब बेटी आत्मविश्वास के साथ जवाब देती है कि “अपनी मुट्ठी में होती है नियति/स्वयं का दीप स्वयं ही होना है/अपनी नियति के कपड़े पछाड़ने होंगे हमें ही।” (आत्राम: 2023 : 45)। भूमिकाकार प्रो. देवराज कहते हैं कि “यह अपनी अशिक्षा और अज्ञानता का साक्षात्कार करते हुए युगों से चली आती हुई सामाजिक-आर्थिक पराधीनता को पहचानने की घटना है। इसके आगे पराधीनता-सूचक समस्त बंधनों-जड़ताओं की जंजीरों को तोड़ डालने के लिए संघर्ष का मार्ग खुलता है, जिसे पहचानते ही माँ के मुँह से अनायास निकलता है- बेटी! सही में तुमने/ मेरे अंधेरी दुनिया को/ रौशनी से भर दिया…!” (आत्राम: 2023 : 46)। यदि कहें कि यह बोध आदिवासी विमर्श की पहली चिंगारी है, तो गलत नहीं होगा।

एक ओर अशिक्षा के कारण आदिवासी समुदाय पिछड़ा हुआ है तो दूसरी ओर निर्धनता के कारण। पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने भी स्त्रियों का कम शोषण नहीं किया है। इस व्यवस्था ने स्त्री को दासी के रूप में परिवर्तित कर दिया है। स्वाधीनता संग्राम में आदिवासियों की भूमिका भी उल्लेखनीय है। स्त्रियाँ भी पीछे नहीं थीं। स्वाधीनता संग्राम में प्राणों की आहुति देने के बावजूद भविष्य की पीढ़ियों को क्या मिला? वे अपना आक्रोश व्यक्त करते हुए गुहार लगाती हैं कि “क्रांति की हमने, होम दिए हमने प्राण/ बहाया हमने रक्त, कर दिए अर्पित फूलों जैसे शीश/ दहकाया क्रांति-कुंड रक्त की ज्वालाओं से/ शेषांत में पाया क्या?/ उपेक्षा-अपमान-तिरस्कार/ सौतेले व्यवहार, क्या मिला हमें?” (आत्राम: 2023 : 48)

पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था ने स्त्री को घर की चारदीवारी के भीतर समेट दिया। पुरुषों ने उससे सारे अधिकार छीन लिए। और सीधे-सीधे कहने लगे “औरत की जिंदगी भँवरे जैसी ही होती है/ गर-गर चकरी मर्द के इशारों पर!” (आत्राम: 2023 : 52)। ससुर के मुँह से इस तरह की बातें सुनकर बहू आहत हो उठती है और हिम्मत करके आवाज बुलंद करते हुए चीख उठती है– “वा! वा! खूब निकले भँवरा बनाने/ दुनिया में जन्म देनेवाली माँ को/ भँवरा बना नचाने वाला आदमी/ कितना बेईमान कितना लोभी/ कपटी और स्वार्थी और अहंकारी/ औरत को जिंदगी भर भँवरा बना घुमाता मर्द/ अपनी ताल पर, अधिकार पर…।/ दुनिया को जन्म देने वाली– औरत कैसे हुई कमतर?” (आत्राम: 2023 : 52)। आत्राम द्वारा किया गया यह प्रश्न स्त्री सशक्तीकरण का बुनियादी प्रश्न है, क्योंकि स्त्री चाहे भद्र समाज की हो या फिर आदिवासी समुदाय की– वह तो हमेशा उपेक्षित ही रही है।

स्त्री अपने अधिकारों को लेकर आज सजग है। अपने प्रति हो रहे अन्याय को आखिर कब तक वह सह सकती है? कभी-न-कभी तो वह विरोध करेगी ही। स्त्री को समाज ने न जाने कितने संबोधन दिए हैं! पुरुष के लिए वह अबला, निरीह प्राणी, अन्या, बेचारी, बेबस और कमजोर प्राणी है। उसे मनुष्य की तरह नहीं देखा जाता। इस बेचारगी के तले आखिर कब तक वह दबी रह सकती है! यह स्थिति सिर्फ स्त्री की ही नहीं है, बल्कि सभी उपेक्षित समुदायों की यही स्थिति है। आदिवासी समुदाय की स्थिति तो और भी बदतर है। आदिवासी जंगलों में अपनी स्वेच्छा से जीवन यापन करते हैं। प्रकृति की गोद में हँसते-गाते धूप और तूफ़ानी हवाओं के साथ नाचते हुए जिंदगी जीते हैं। जंगलों में निवास करने वाले इन मूल निवासियों को ‘सभ्य’ समाज ‘बेचारे आदिवासी’ कहकर संबोधित करता है। आत्राम पूछती हैं कि ये लोग ‘बेचारे’ कैसे हुए? ये तो जंगल के मूल निवासी हैं। जंगल में बिंदास घूमने वाले किस कोण से बेचारे लगते हैं? अपने लिए ‘बेचारे’ संबोधन सुनकर आदिवासी व्याकुल हो उठते हैं क्योंकि वे दीन नहीं, लाचार नहीं। आत्राम ‘सभ्य समाज’ पर प्रहार करती हैं और कहती हैं, “तुम्हारे बीमार-सड़े शब्दों ने ही/ कर डाली हत्या उस स्वार्थहीन की/ तुम्हारे कपटी-स्वांग ने ही किया घात/ वे बेचारे! वे बेचारे! पुकार/ मत बनाओ लूला-लंगड़ा मन मस्तिष्क, कलाई/ मत रहो भ्रम में/ समय गया नहीं… समय आ ही पहुँचा है/ हाथ में आ जाए बंदूक, तो कोई बड़ी बात नहीं!” (आत्राम: 2023 : 54)

स्त्री की बात ही अलग है। वह तो हर तरह से शोषित है। आदिवासी समाज में भी लिंगाधारित भेदभाव को देखा जा सकता है। लड़के और लड़की के बीच भेदभाव को एक माँ कहाँ तक सह सकती है? लड़के के जन्म पर जहाँ जश्न मनाया जाता है, वहीं लड़की के जन्म पर मातम मनाया जाता है, और तो और पति रूपी पुरुष “नहीं जन्मा लड़का/ मारता जलती लकड़ी से” (आत्राम: 2023 : 145)। वंश की वृद्धि के लिए पुत्र की कामना में ‘पति’ का “दो होने से भी, नहीं जी भरता” (आत्राम: 2023 : 146)। आँखें दिखा-दिखाकर गुस्सा करता है और “कहता लड़का चाहूँ, कर लूँगा तीसरी बीवी/ बिना दोष ही खड़ी उभारी से पीटे।” (आत्राम: 2023 : 146)। इस स्थिति से उबरना हो तो स्त्री को स्वयं ही बाहर निकलना होगा। यह तभी संभव है जब घर-घर में, द्वार-द्वार पर ज्ञान की जोत जलेगी। (आत्राम: 2023 : 147)

मार्क्स ने गुहार लगाई थी – दुनिया के मजदूरो, एक हो जाओ। आपके पास खोने के लिए अपनी जंजीरों के अलावा कुछ भी नहीं है! इसी तर्ज पर आत्राम भी कहती हैं “गोंडवाना के कंगाल उत्तराधिकारियो!/ उठो-उठो हो जाओ फिर से तैयार/ गढ़-किले की प्राचीर से फिर फेंको/ अपना नव अश्व-बल… चढ़ा लो फिर से/ उन भोथरी तलवारों को सान पर/ दागो फिर वही बंदूकें/ गढ़ो फिर नया इतिहास।” (आत्राम : 2023 : 70)। आत्राम तलवार और बंदूक को प्रतीकों के रूप में प्रयोग करते हुए ललकारती हैं – “फेंक शतरंजियाँ हाथ की/ कलम की तलवारों से/ सीख लो करना वार” (आत्राम : 2023 : 71)/ “हाथों में बंदूक थामे/ लड़नी होगी अपनी लड़ाई हमें ही” (आत्राम : 2023 : 47)

‘लेखणीच्या तलवारी’ में संकलित मराठी एवं झाड़ी कविताओं को डॉ. मिलिंद पाटिल ने हिंदी में अनुवाद करके आदिवासी समुदाय की पीड़ा, आक्रोश और संघर्ष को विशाल पाठक समुदाय के समक्ष ला खड़ा किया है। इन कविताओं में प्रकृति के विविध रंगों के साथ-साथ प्रकृति पुत्रों की आस्था-अनास्था, आशा-निराशा, असंतोष-आक्रोश, संघर्ष-जिजीविषा पग-पग पर समाहित हैं। इन कविताओं को पढ़ते समय पाठक की आँखों के सामने फिल्म की रील की तरह आदिवासी लोक-जीवन के दृश्य दीख पड़ते हैं। इन कविताओं में प्रयुक्त भाषिक उक्तियाँ पाठकों का ध्यान आकर्षित करती हैं– मन के दुख की उल्टी कर दी!/ अपनी नियति के कपड़े पछाड़ने होंगे हमें ही/ झोंपड़ी-खोपड़ी को रौशन करूँगी/ करके प्राणों की किलेबंदी/ खदबदाया झोझरी हाँडी-सा/ हमारी दुनिया की अंधेरे से मिट्टी-पलीद कर दी/ मेरी हड्डी की सुई/ खून की स्याही/ जिंदगी का बचा कोरा कागज/ ढपोरशंखी बातों के गुब्बारे आदि।

लोक जीवन के विविध रंगों को सहज रूप से बिखेरने के लिए कवयित्री ने जिन सांस्कृतिक शब्दों का प्रयोग किया है, अनुवादक मिलिंद पाटिल ने हिंदी में उनका लिप्यंतरण करके प्रयोग किया है, साथ ही पाद टिप्पणियों के माध्यम से उनका अर्थ स्पष्ट किया है। जैसे– उरसूँडी (टोकरी बनाने के लिए प्रयुक्त विशेष वनस्पति), पोवाड़ा (महाराष्ट्र में प्रचलित प्रशस्ति प्रधान वीरगाथाओं पर आधारित लोकगायन-शैली), शिब्ल (बाँस से बनी चौकोर टोकरी जिसका प्रयोग गोबर उठाने के लिए किया जाता है), हुड़की (छोटी पहाड़ी), आंबिल (एक तरह का पेय पदार्थ जो ज्वार के आटे से बनाया जाता है), पाणोर्या (महुए के पत्ते पर पकाई गई रोटियाँ), भड्डा (दाल में महुआ डालकर पकाया गया मीठा पदार्थ), निवडुंग (कैक्टस की एक प्रजाति), कीचड़-लोंढी (कृषि उत्सव), शंकरपट (बैलों का खेल), पैजन (कमर में धारण करने वाली काले या लाल रंग की सूती डोरी), मोरा (बाँस का पहनावा), ओझरनी (गोदना गोदने वाली स्त्री), नावा जीवा हिक्के व्हा झपझप! बेके होत्तुर रे (हे मेरे प्रियतम! जल्दी से तू यहाँ आ जा। कहाँ है तू!)। इस तरह के प्रयोग निस्संदेह ही हिंदी शब्द भंडार को समृद्ध करेंगे।

कुल मिलाकर कहें तो उषाकिरण आत्राम की कविताओं में निहित आदिवासी जीवन गाथा को मिलिंद पाटिल ने विशाल हिंदी पाठक समुदाय के समक्ष लाकर प्रशंसनीय कार्य किया है। आशा है, हिंदी समाज इस कृति का स्वागत करेगा।

समीक्षक डॉ गुर्रमकोंडा नीरजा
एसोसिएट प्रोफेसर
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास
टी. नगर, चेन्नै – 600017

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