[इस विशाल संसार में हर व्यक्ति पानी के एक बुलबुले की तरह होता है। लेकिन इस संसार में ऐसे भी व्यक्ति है जो अपना जीवन जोखिम डालकर दूसरों के जीवन को प्रकाशमय और आनंदमयी बना देते हैं। ऐस ही अनेक लोगों के जीवन में एक व्यक्ति ने प्रकाश और आनंद से भर दिया है। वह व्यक्ति है पंडित गंगाराम जी वानप्रस्थी। दूसरों की पीड़ा को अपना दर्द समझकर उसे दूर करने के लिए सबसे आगे रहते थे। वो आज हमारे बीच नहीं है। मगर उनकी यादों को उनके बेटे भक्तराम जी ने आजादी के अमृत महोत्सव पर ‘तेलंगाना समाचार’ के पाठकों को साझा करने का मौका दिया है। हम उनके आभारी है।]
आर्य सत्याग्रह आर्यों के उत्सव और हिंदू जनता की भावनाओं और भाई बंसीलालजी के दृढ़ संकल्प को देखकर सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा ने जुल्मी शासन के विरुद्ध अहिंसात्मक सत्याग्रह करने का निर्णय लिया और महात्मा नारायण स्वामी जी की अध्यक्षता में सार्वदेशिक स्तर का पहला जत्था गुलबर्गा में पकड़ा गया और सभी को जेल की सजा हुई। आर्य सत्याग्रह के सर्वाधिकारी संचालक थे श्री स्वामी स्वतंत्रतानंद जी सरस्वती, जिनका आदेश था कि सत्याग्रहियों की सतत भर्ती के लिए ना तो वे (गंगाराम जी) सत्याग्रह करें और न पकड़े जायें। इनके प्रयत्नों से सत्याग्रहियों की भर्ती निरंतर जारी रही और सर्वाधिकारी पंडित विनायक राव जी के जत्थे के लिए 1500 आर्यों का जत्था तैयार था। यह देख तत्कालनी सरकार ने आर्य समाज की सभी मांगे मान ली और सत्याग्रह सफलता पूर्वक संपन्न हुआ। आर्य समाज के सत्याग्रह के वे भी एक प्रमुख अंग रहे हैं।
आर्य सम्मेलन स्टेट स्तर पर चलने वाले आर्य सम्मेलनों की श्रृंखला में चतुर्थ आर्य सम्मेलन गुलबर्गा (1944) में गंगाराम जी उपमंत्री थे, जबकि पंडित नरेंद्र जी मंत्री और श्री राजा नारायणलालजी पित्ती अध्यक्ष थे। स्थानीय असामाजिक मुस्लिमों को उकसाकर पुलिस ने दंगा करवाया। सिनेमा घर पर हमला करवाया। आर्य नगर (सम्मेलन स्थल) पर हमला करने ये तत्व आगे बढ़ रहे थे कि आर्य लोगों की मुकाबले के लिए तैयारी देखकर रुक गए। इसी बीच इन्हीं (गंगाराम जी) व श्री गोपाल देव जी शास्त्री की सूझ-बूझ से सम्मेलन के डेरे, नल, पाइप, लाइट फिटिंग आदि सामान जिसका उसे पहुंचा दिया तथा बूढ़ों, बच्चों और महिलाओं को दंगाइयों से बचाकर सुरक्षित भेज दिया।
पंचम आर्य सम्मेलन वरंगल (1945) के श्री कृष्णदत्त जी के साथ ये संयुक्त मंत्री रहे। अष्टम आर्य सम्मेलन जालना (1946) के मंत्री रहे। मुस्लिम लीग की सीधी कार्रवाई से देश भर में दंगे होने लगे थे, ऐसे में यह सम्मेलन ने यहां के हिंदुओं का मनोबल बढ़ाया है। सप्तम आर्य सम्मेलन लातूर (1947) के अध्यक्ष थे महात्मा आनंद स्वामी जी और वे स्वागत मंत्री मंत्री थे।
अष्टम सार्वदेशिक आर्य महासम्मेलन हैदराबाद (1954) के वे स्वागताध्यक्ष थे व अध्यक्ष श्री घनश्याम सिंह जी गुप्त थे। इसी प्रकार दशम सार्वदेशिक आर्य महासम्मेलन के उपाध्यक्ष रहे। एकादश सार्वदेशिक आर्य महासम्मेलन मॉरीशस के प्रतिनिधि बनकर मॉरीशस गये। आर्य प्रतिनिधि सभा, दक्षिण मध्य (हैदराबाद निजाम राज्य) आर्य प्रतिनिधि सभा के 1944 से 1949 तक मंत्री रहे।
1946 में मुस्लिम लीग ने सीधी कार्रवाई के तहत नोआखाली में भयंकर तबाही मचाई थी। सैकड़ों हिंदुओं की हत्या की। घर-जायदाद लूटे लिये गये। जबरदस्ती मुसलमान बनाया गया। कुछ लोगों ने पलायन किया। उस समय आर्य समाज के रिलीफ के काम को अपने हाथ लिया। इन्होंने नोआखाली पीड़ितों की सहायता के लिए आर्य प्रतिनिधि सभा के मंत्री के नाते लगभग 25,000 रुपया जमा किया। ये नोआखाली जाने वाले थे कि निजाम सरकार ने इन्हें पकड़ने से पहले घर की तलाशी ली।
बाद में वारंट भी जारी कर गिरफ़्तारी करना चाही थी, लेकिन बचकर नोआखाली चले गये। कोलकाता पहुंचने पर बंगाल – आसाम आर्य समाज रिलीफ़ सोसाइटी ने इन्हें नोआखाली के रिलीफ़ काम का मंत्री बनाकर सौंपा। इनसे पहिले रिलीफ़ का काम महात्मा आनंद स्वामी जी करते थे। पंजाब में गड़बड़ होने से वे पंजाब चले गये। लगभग 8 महीनों तक इस रिलीफ़ के काम को इन्होंने बड़ी खूबी से संभाला। महात्मा गांधी (जो उस समय नोवाखाली में ही थे) की सलाह पर वे 2 महीने तक बिहार के जिलों पटना, राजगीरी, बिहार शरीफ, नालंदा आदि में सेवा कार्य करते रहे।
24 जुलाई 1947 से 25 सितंबर 1948 तक निजाम सरकार ने डिफेंस एक्ट के तहत गिरफ्तार कर के हैदराबाद और गुलबर्गा के सेंट्रल जेलों में नजरबंद रखा। जेल से छूटने के बाद इन पर लगे सभी प्रतिबंध समाप्त हुए। तब 12 मई 1949 को इनका विवाह (सौ इंद्राणी देवी जी) से हुआ। इन्होंने एलएलबी की पढ़ाई पूरी की। नवंबर 1949 से वकालत करने लगे। 1950 से 1956 तक हैदराबाद नगर निगम के सदस्य रहे। पृथक तेलंगाना स्टेट के लिए सरगर्मी से कार्य करते रहे।
शिक्षा के क्षेत्र में रुचि लेने लगे। हिंदी महाविद्यालय की स्थापना कर उसके संस्थापक मंत्री रहे। इसी प्रकार दयानंद उपदेशक महाविद्यालय की स्थापना कर उसके संस्थापक मंत्री रहे। 1965 में महर्षि दयानंद धर्मार्थ प्रतिष्ठान की स्थापना कर उसके संस्थापक प्रधान रहे। प्रतिष्ठान के अंतर्गत 1965 से 1980 तक 75,000 ट्रैक्ट एवं लघु पुस्तिकाएं मुफ़्त बांटी गई। 1980 से एक मासिक पत्रिका वर्णाश्रम पत्रक 2000 लोगों तक मुफ्त पहुंचाते रहे।
1984 में श्री स्वामी सच्चिदानंद सरस्वती योगी जी से वानप्रस्थ की दीक्षा ले, घर से अलग हो, पहले गुरु आश्रम, बोन्तापल्ली, फिर दयानंद उपदेशक महाविद्यालय और 1989 से वानप्रस्थ साधना आश्रम, गंडीपेट में रहे। जीवन पर्यन्त, महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के द्वारा बताए मार्ग पर चलते रहे। उन्होंने अपनी अन्तिम सांस 25 फरवरी 2007 इस तरह गंगारामजी की जीवन यात्रा समाप्त हुई।
आर्य रक्षा समिति आर्य रक्षा समिति, निजामी अत्याचारों से तंग होकर आर्य युवक बेचैन रहा करते, सत्याग्रह व किसी और प्रकार के बलिदान के लिए तैयार थे। ऐसे में श्री पंडित दत्तात्रेय प्रसाद जी के साथ मिलकर आर्य रक्षा समिति बनाई। इस समिति ने स्टेट स्तर पर सत्याग्रह की घोषणा कर दी, जिसका पहला जत्था पंडित देवीलाल जी की अध्यक्षता में बेगम बाजार में सत्याग्रह किया, दूसरा जत्था श्री निवर्ती रेड्डी की अध्यक्षता में अहमदपुर में सत्याग्रह किया, तीसरा जत्था श्री दिगंबर राव लाठकर की अध्यक्षता में नांदेड़ में सत्याग्रह किया।
संक्षिप्त परिचय
जन्म: वसन्त पंचमी (8 फरवरी) 1916 को हैदराबाद में श्री गंगाराम जी का जन्म हुआ। उनकी मातु श्री का नाम बाडू बाई और पिताश्री का नाम श्री अनन्त रामजी था। जब वे 3 वर्ष के थे कि पिताजी का देहान्त हुआ। मातुश्री के कुशल देख-रेख में उनका पालन-पोषण हुआ और 1942 में उनका भी देहान्त हुआ।
शिक्षण: प्राथमिक शिक्षण मराठी, मिडिल स्कूल उर्दू, हाई स्कूल अंग्रेजी और यूनिवर्सिटी कॉलेज शिक्षण B.SC., L.L.B. उर्दू माध्यम से हुआ।
बॉय स्काउट: बॉय स्काउट के नाते 1933 में बासर, निज़ामाबाद, गोदावरी दरिया में डूबती हुई एक बाल विधवा युवती को बचाने के उपलक्ष्य में 13 वर्षों से सरकार द्वारा घोषित ग्वालेंट्र मेडल के प्रथम विजेता रहे।
सन् 1934 में चारमीनार के चारों ओर के पटाखों की दुकानों में लगी भयंकर आग में एक बंगले के कमरे में फंसी एक महिला और उसके गोद के बच्चे को जलते हुए चौखट और दरवाजों से झुलसकर दोनों को बाहर ले आये।
वायु सेना: पहली बार भर्ती के लिए उस्मानिया विश्वविद्यालय से 6 विद्यार्थियों का चयन केडिट के लिए करना था, उसमें उनका नाम प्रथम था। पर पण्डित विनायक राव जी एवं श्री कृष्ण दत्तजी आदि साथियों के कहने पर कि आर्य समाज का काम फीका पड़ जाएगा, नाम वापस ले लिया।
भारत छोड़ो आंदोलन: सन् 1942 “भारत छोड़ो आन्दोलन” के सिलसिले में एक साल तक जबान बन्दी हुई और किसी भी शैक्षिक संस्था से सम्बन्ध न रखने को सरकार के आदेश से केशव स्मारक विद्यालय के अध्यापकी और उस्मानिया विश्वविद्यालय से L.L.B. दोनों से खारिज कर दिए गये।
आर्य समाज: आर्य समाज की विचार धारा से 10 वर्ष की आयु में प्रभावित हुए। प्रभावित करने वाले आर्य समाज के कार्य क्रम थे, फिर 1926 का सनातन धर्म से आर्य समाज का शास्त्रार्थ, बड़े-बड़े उत्सव, दलितोद्धार, छुआ-छूत निवारण, जात – पात तोड़ना, शाकाहार प्रचार, ब्रह्मचर्य और हिन्दी भाषा की शिक्षा।
अछूत कहे जानेवालों के साथ मिल-बैठ भोजन करने पर जात बाहर कर दिये गये। पर हरिजनोद्धार का काम जारी रखा। शुद्ध शाकाहारी बने। अपना विवाह जात-पात तोड़कर किया। इनके तीन बेटे और एक बेटी है। सबका विवाह जात-पात तोड़कर किया। उपासना पद्धति भी वैदिक अपनाई।
– संकलन भक्तराम आर्य