आते हैं याद: अथर्व इंडिया अंतरराष्ट्रीय शोध संस्थान ने किया पितृपक्ष एवं श्राद्ध दर्पण विषय पर गोष्ठी का सफल आयोजन

लखनऊ/हैदराबाद : अथर्व इंडिया अंतरराष्ट्रीय शोध संस्थान द्वारा 22 अक्टूबर को सनातन वैदिक सभ्यताओं, भारतीय कला संस्कृति, परम्पराओं मान्यताओं के अनुरूप किए जा रहे नेक कार्यों के क्रमानंतर्गत अथर्व संवाद कार्यक्रम में पितृपक्ष एवं श्राद्ध दर्पण विषय पर ऑनलाइन गोष्ठी का सफल आयोजन किया गया। इस गोष्ठी में डॉ वी बी पांडेय “पवन जी महाराज” (संस्थापक अथर्व इंडिया अंतरराष्ट्रीय शोध संस्था संस्थान), कार्यक्रम अध्यक्ष डॉ. सौरभ पाण्डेय (डायरेक्टर धराधाम, इंटरनेशनल), मुख्य अतिथि प्रभात कुमार श्रींगरी (मुख्य पुजारी वैद्यनाथधाम मंदिर, झारखंड) मुख्य वक्ता आचार्य मनोज कृष्ण (आध्यात्मिक संत एवं ज्योतिषाचार्य), मुख्य वक्ता डॉ. जयप्रकाश तिवारी (वरिष्ठ साहित्यकार, समीक्षक, संपादक), महंत राजवीर देव महाराज, (वैदिक योग दिव्य साधना आश्रम, बरेली), प्रो. उषा वाजपेई, संध्या श्रीवास्तव, डॉ संजीदा, गीता सक्सेना, पूजा यादव और अन्य वक्ताओं ने भाग लिया और पितृपक्ष, श्राद्ध और तर्पण पर अनेक दृष्टिकोणों से अपने – अपने विचार प्रस्तुत किए।इससे पितृपक्ष, श्राद्ध और तर्पण का संप्रत्यनयन स्पष्ट हुआ।

डॉ. जयप्रकाश तिवारी ने कहा कि पितरों के प्रति अगाध श्रद्धा ही श्राद्ध है। यह पितृ और पितर (पूर्वजों) के प्रति संपूर्ण समर्पण है। पूर्वज शब्द को स्पष्ट करने के लिए छांदोग्य उपनिषद से पंचाग्नि विद्या और पांचवी आहुति के बाद मानव उत्पति से अन्न, वनस्पति सहित पंच महाभूतों को मानव का पूर्वज और पितृ होने की बात कही। इसी क्रम में स्पष्ट किया की पितृ पूजन प्रकरांतर से प्रकृति संरक्षण और पोषण की भी क्रिया है। पितृपक्ष में काक, कौआ, कुत्ते इत्यादि को भोजन देने के पीछे उनका पर्याप्त पोषण कार्य भी है। ज्ञातव्य है कि काक, कौआ, कुत्ते आदि का प्रजनकाल भी पितृपक्ष का ही समय है। ये जीव प्रकृति के सफाईकर्मी है। इनकी संख्या यथेष्ठ और पर्याप्त बनी रहे, इस दृष्टिकोण से जीवों को पोषण प्रकृति की स्वच्छता की दृष्टि से एक वैज्ञानिक उपक्रम है जिसे पितृपक्ष से जोड़ दिया गया है।

पितृपूजन के बाद ही देवपूजन, देवी पूजन की पात्रता आ पाती है। श्रद्धा के महत्व को रेखांकित करते हुए उन्होंने एक कथानक, संस्मरण सुनाया जो एक कौतूहल के साथ विषय वस्तु का तर्कपूर्ण समाधान था- श्राद्ध की श्रद्धा से मिला सन्मार्ग। कथानक कुछ इस प्रकार था। यूँ तो माँ को भौतिक शरीर छोड़े हुए हो गए हैं, कई वर्ष। किन्तु लगता है.., वह है बहुत निकट …, यहीं कहीं, आस पास ही। मनाता हूँ अब भी श्रद्धा से – “श्राद्ध”, उसकी पुण्य तिथि को प्रत्येक वर्ष, बिलकुल वैसे ही जैसे कभी वह मनाती थी- मेरा जन्म दिन हर साल- हर वर्ष उल्लास के साथ। आज हाथ जोड़कर, विनीत भाव में आज मांगता हूँ उससे सन्मार्ग, आशीर्वाद, उन्नति और उत्कर्ष का आशीष।

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आज फिर उसकी पुण्य तिथि है, उसके चित्र को झाड – पोंछकर, फूलमाला से सजाकर रखा है उसी परंपरागत केक वाली चौकी पर। समर्पित किया है- पुष्पं, पत्रं और मधुरं उसे, श्रद्धा भाव से। जलाया है दीप, चढ़ाया है चन्दन, दिखाया है – अगरबत्ती और धूप। देखता हूँ आज – धूप के सुगन्धित धूम्र में, माँ, आ खडी हुई है, लिपटी श्वेतवस्त्रों में। अब दीख रही है “माँ”.., मेरी प्यारी माँ…अब साडी, उड़ रही है, हवा में धीरे… धीरे… माँ, हिला रही है … हाथ … हौले… हौले… और अब विलीन हो गयी, हवा में… व्योम में…। हवा अब बदल गयी है… मेघ … में, मेघ संगठित होकर नभ में छा गया है, हल्की, रिमझिम बूंदें बरसा गया है। मेघ से तो बरसा था…पानी; पानी तरल था… बूंद रूप था, पानी ठोस था… ओला स्वरुप था। ध्यान आया सघन – संगठित ओला ही तो है हिमवान… हिमालय। लगा सोचने…माँ तो… गंधरूपी थी, धूम्र बनी…, वायुरुपी थी.., जलरूप बनी। तो क्या हिमनद रूप माँ का ही है? क्या ये नदियाँ…, दरिया…, ये झरने, सब… माँ का ही प्रवाह हैं.? हां, हां… तभी तो करते हैं, पालन पोषण, माँ के समान। और ये फलदार वृक्ष? ये ठूंठ… सूखे.. से… पेड़? क्या इसने नहीं पाला है, हमे माँ के ही समान? क्या इससे बने पलंग, कुर्सियां, सोफे… अनुभूति नहीं कराते, माँ की गोद का? दरवाज़े बनकर क्या नहीं करते सुरक्षा? छत बनकर क्या नहीं करते हमारी रक्षा?

परन्तु…, आश्चर्य है, यह बात पहली बार, आज क्यों समझ में आ रही है? क्योंकि, आज तुने सन्मार्ग पूछा है- माँ से, प्रगति और उत्कर्ष का मार्ग पूछा है- माँ से। पहली बार श्राद्ध किया है तूने परम श्रद्धा से। माँ, अब तुझे सन्मार्ग दिखा रही है, प्रगति का, उत्कर्ष का मार्ग बता रही है। सबमें अपने अस्तित्व का बोध करा रही है, मानो कह रही हो, बेटे! चित्र को छोड़ो, तस्वीर को भूलो। सृष्टि में मेरा ही रूप देखो, वही हूँ मैं, वही है मेरा असली रूप, मेरा स्वरुप…। सचमुच, इस दिव्य ज्ञान के आलोक में देखता हूँ – दर्शन के ‘सर्वेश्वरवाद’ को ..। यह जल अब पानी नहीं, माँ है। यह वायु अब हवा नहीं – ‘माँ’ है। यह वृक्ष अब लकड़ी नहीं – ‘माँ’ है। यह अरण्य और आरण्यक, ये सब कुछ और नहीं…, – ‘माँ’ है। ये प्रस्थर… ये शैल… माँ है, माँ है। अरे हाँ, तभी तो कहा गया है माँ को “शैलपुत्री”, ‘शैलजा’ और ‘गिरिजा’ धर्म ग्रंथों में।

यह हिमनद “ब्रह्मचारिणी” के तप से है द्रवित, स्नेह से है गतिमान। माँ है- ‘हिमाचल पुत्री’, गिरिराज किशोरी। अज्ञानता की जब तक है, घनी धुँध छायी; वह ‘क़ाली’ है। वही भद्रक़ाली – कपालिनी – डरावनी भी है। ज्ञानरूप जब चक्षु खुला, देखा, अरे! वह ‘गोरी’ है, ‘गौरी’ है। वह अब अम्बा है, जगदम्बा है। ब्रह्माणी, रूद्राणी, कमला कल्याणी है। चेतना हुई है अब जागृत, माँ ने इसे कर दिया है- झंकृत। सचमुच आज सन्मार्ग दिखाया है, मुझे सत्य का बोध कराया है। लेते हैं संकल्प अभी से, संग तुम भी ले लो मेरे भाई। अब न स्वयं करेंगे, न करने देंगे – “वायु प्रदूषित”। अब न स्वयं करेंगे, न करने देंगे – “जल को दूषित”। अब न स्वयं करेंगे, न करने देंगे – “ध्वनि प्रदूषित”। अब पेड़- पौध लगायेंगे, इसकी संख्या बहुत बढ़ाएंगे। माँ का क़र्ज़ चुकायेंगे, अब माँ का क़र्ज़ चुकायेंगे। हे माँ ! तुझे नमन, तुझे वंदन, बहुत बहुत अभिनन्दन। अन्त में आभार अभिव्यक्ति के बाद कार्यक्रम समापन की घोषणा हुई।

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