आज एक ऐसी वीरांगना की पुण्यतिथि है, जिन्होंने जमीदारों और निजामों के अत्याचार, उत्पीड़न और दमन के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ी और अपने विरोधियों को धूल चटाई, पर उन्हें इतिहास में जो स्थान मिलना चाहिए था वह नहीं मिल सका। क्योंकि वह एक बहुजन महिला थीं।
बहुत कम लेखकों और इतिहासकारों ने महिलाओं की भागीदारी और योगदान का उल्लेख किया है या स्वीकार किया है। शायद ही कोई ऐसा आंदोलन होगा जो बिना महिलाओं के या बिना उनकी सहभागिता के सफल हुआ हो। देश के विभिन्न हिस्सों में चलने वाले सामाजिक-राजनीतिक संघर्षों, आंदोलनों और विद्रोह की तरह ही तेलंगाना में भी निज़ाम के ख़िलाफ (1946-50) चलने वाले तेलंगाना किसान विद्रोह में भी महिलाएं सक्रिय भागीदार होकर हथियार लेकर अगली पंक्ति में लड़ाई लड़ीं। उन्हीं में से एक प्रमुख और प्रसिद्ध नाम है- तेलंगाना किसान विद्रोह शुरू करने वाली महिला चित्याला ऐलम्मा अर्थात चाकली ऐलम्मा (Chakali Ilamma) का।
वीरांगना नारी चित्याला ऐलम्मा का जन्म
वीरांगना नारी चित्याला ऐलम्मा का जन्म (ज्ञात स्रोतों के अनुसार) आज से 100 वर्ष पूर्व 10 सितंबर 1919 को तेलंगाना राज्य के वरंगल जिला के रायपर्ती मंडल के कृष्णापुरम गांव में हुआ था। वह वह धोबी जाति की थीं। वीरांगना चाकली ऐलम्मा का वास्तविक नाम चित्याला था। ऐलम्मा का विवाह 11 वर्ष की आयु में चित्याला नरसिम्हा से हुआ था। उनके 5 बच्चे (4 पुत्र और एक पुत्री सोमू नरसम्मा) थे। उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण जीविकोपार्जन हेतु वे अपना कपड़े धोने का परंपरागत पेशा ही करते थे अर्थात उच्च जातियों की सेवा करते थे।
चाकली शब्द की उत्पत्ति
धोबी जाति को तेलगु भाषा में ‘चाकली’ कहते थे। बाद में उनकी जाति एक सशक्त दावा के रूप में उनका उपनाम बन गई। जाति को अपने उपनाम में ले जाने से या लगाने से गुलामी का इतिहास सामने आता है जिसने हमेशा बाहादुरी का इतिहास और उच्च जाति के समंतवादियों के लिए उनकी सहिष्णुता का जश्न मनाया। आंध्र प्रदेश (और अब तेलंगाना में भी) में धोबियों को चाकली के नाम से जाना जाता है। चाकली शब्द की उत्पत्ति ‘चकला’ शब्द से मानी जाती है। इसका अर्थ होता है ‘सेवा करना’। वह पहली महिला थीं जिन्होंने उच्च जातियों की सर्वोच्चता पर प्रश्न खड़ा किया था और पहचाना कि जातीय सर्वोच्चता वर्ग, जाति और जेण्डर के भीतर जीवन के प्रत्येक फ्रेम में महत्वपूर्ण रोल अदा करती है।
ऐलम्मा जमीदारों के खिलाफ खड़ी हो गईं
चित्याला ऐलम्मा का जन्म ऐसे समय में हुआ था जब तेलंगाना विदेशी मूल के निजाम और उसके राजकार (निजाम की सेना) दरबारियों के क्रूर दमन के अधीन था। उस समय पालकुर्ता जमींदार गांव के गरीब लोगों से जबरदस्ती खेत में काम करवाते थे। बूढ़े, बच्चे, स्त्री सभी पर जुल्म करते थे। अगर कोई किसान उनकी खिलाफत करने का साहस दिखाता था तो या तो उसका खेत छीन लिया जाता था या उसकी फसल कटवा ली जाती थी। जमींदार का हौसला और बुलंद रहता था। क्योंकि उससे लड़ने की हिम्मत कोई नहीं जुटा पाता था। लेकिन यह सब देखकर चित्याला ऐलम्मा ज्यादा दिन अपने आपको रोक न सकीं और यह ऐलान कर दिया कि ‘अबसे हम यह सब सहन नहीं करेंगे।’ उन्होंने एक सभा बनाई तथा उसमें अपने बेटे औरी बेटी को शामिल किया। जब चित्याला ऐलम्मा जमीदारों के खिलाफ खड़ी हो गईं तो बहुत से गांवों में लोग एकजुट हो गये और जमीदारों से लड़ाई लड़कर अपनी ज़मीनें छुड़वाई। चित्याला ऐलम्मा न तो पढ़ी-लिखीं थीं और न ही सम्पन्न परिवार से थीं। वह इतनी गरीब थीं कि उनका गुजारा बड़ी मुश्किल से हो पाता था लेकिन फिर भी वह किसान और मजदूरों के हक-हुकूक दिलवाए और गरीबों की नेता बन गईं। उन्होंने आंध्र प्रदेश के वरंगल जिले के पालकुर्ती गांव में सामंतों, जमीदारों और निज़ाम सरकार की संगीनों से बेख़ौफ़ न केवल काश्तकारों और खेतिहर मजदूरों के मानवाधिकारों की लड़ाई लड़ी अपितु महिला समानता के लिए भी लड़ाई लड़ी।
निज़ाम के खिलाफ आंदोलन में सक्रिय
सरकार द्वारा निजी संस्थानों को लोगों की भाषा में शिक्षा प्रदान करने की अनुमति नहीं थी। लोगों के पास नागरिकता के प्रारम्भिक अधिकार तक नहीं थे। कृषि किराएदारों की हालत बहुत बेकार थी। जमींदार किराएदारों से गुलामों के जैसा बर्ताव करते थे और उनसे बेगारी (वेट्टी चाकरी) करवाते थे। चित्याला ऐलम्मा के लिए यह आत्मसम्मान की बात थी। जिसकी रक्षा करना वह बखूबी जानती थीं और लोगों को आत्मसम्मान की लड़ाई हेतु एकजुट करती थीं। इसीलिए उनका घर जमीदारों और उनके गुंडों के खिलाफ रणनीतिक और सामरिक गतिविधियों की योजना बनाने का केंद्र बन गया था। ऐलम्मा ने निज़ाम सरकार के खिलाफ सक्रिय रूप से काम किया और अपने घर का दरवाजा सामन्तवादी जमीदारों की गतिविधियों के खिलाफ संघर्ष करने वालों के लिए खोल दिया और उनका घर सामंती जमींदारों के खिलाफ गतिविधियों का केन्द्र बन गया था। ऐलम्मा ने अपने साथियों के साथ मिलकर निज़ाम और सामंतों के अत्याचारों के खिलाफ लड़ाई छेड़ी थी। चाकली ऐलम्मा का यह संघर्ष केवल अपने परिवार, धर्म, जाति और वर्ग की महिलाओं के लिए न होकर प्रत्येक जाति, धर्म और वर्ग की महिलाओं के साथ-साथ संपूर्ण उत्पीड़ितों और किसानों के लिए था, जो निज़ाम, उनके गुण्डे और समर्थकों से पीड़ित थे। यद्यपि कि चाकली ऐलम्मा एक मध्यमवर्गीय धोबी परिवार में पैदा हुई थीं फिर भी निज़ाम के खिलाफ आंदोलन में सक्रिय रूप से न केवल भाग लिया बल्कि उनका घर सामंती प्रभुओं के खिलाफ चलाई जा रही गतिविधियों का केंद्र भी था। उन्होंने हर उस सामंत के खिलाफ आंदोलन किया जिन्होंने निज़ाम के साथ हाथ मिलाया था।
क्रांतिकारी महिला
चाकली ऐलम्मा ने कभी हालात से समझौता नहीं किया बल्कि अपनी साड़ी को आगे बांधते हुए इस वीरांगना नारी ने यह तय किया कि स्वतंत्रता प्राप्त करने के बजाय अर्जित करना है या छीनकर लेना है और उन्होंने निज़ाम का शासन और सामंती व्यवस्था को ख़त्म करके ही चैन की सांस ली। वह एक ऐसी क्रांतिकारी महिला थीं जिन्होंने तेलंगाना शस्त्र संघर्ष में न केवल उत्पीड़ित महिलाओं अपितु उत्पीड़ित पुरुषों के लिए भी जमीदारों और रूलिंग क्लास के दमन के खिलाफ खड़े होने का एक प्लेटफार्म तैयार किया। सामंतों और जमीदारों को खुली चुनौती दी जिससे प्रभावित और प्रेरित होकर बहुत सी महिलाएं अपनी जमीन और प्रतिष्ठा के लिए लाठी दराती, मिर्च पाउडर, और चाकू आदि लेकर तन कर खड़ी हो गईं। इनके हथियार कृषि के कार्य में प्रयोग होने वाले यंत्र ही हुआ करते थे। वे सभी जातियों के और तेलगु स्वाभिमान की रक्षा के लिए हमेशा संघर्षरत रहीं।
चाकली ऐलम्मा का निधन
उन्होंने अपने परंपरागत पेशे वाली जाति का नाम ही उपनाम के तौर पर लगाना शुरू किया और एक सशक्त दावे के रूप में प्रचलित किया। जाति को उपनाम के तौर पर लगाने का प्रचलन नया नहीं है, क्योंकि जाति को उपनाम में लगाने से गुलामी का इतिहास सामने आता है और इसी गुलामी के इतिहास को सामने लाने के लिए चाकली ऐलम्मा ने विरोध स्वरूप अपने नाम से पहले लगाया और उच्च जाति के सामन्तों और निजाम सरकार के खिलाफ बहादुरी से लड़ाई लड़ी। उन्होंने इस उपनाम को उस दौर में इसलिए भी लगाया कि उपनाम हिंसा के इतिहास का उद्घाटन करता है और इंगित करता है कि उनके समुदाय को उच्च जातियों के उत्पीड़न और दमन का सामना करना पड़ा था। जैसे आज के दौर में भी उच्च जातियों को निम्न जातियों या पिछड़े वर्गों को अपने को दलित कहना या उनके द्वारा जाति को उपनाम के तौर पर प्रयोग करना खटकता है वैसा ही उस दौर में भी था, लेकिन सामंतों और जमीदारों की परवाह न करते हुए ऐलम्मा ने ‘चाकली’ शब्द के प्रयोग अपने नाम के शुरुआत में किया और अपने आपको एक सशक्त महिला के रूप में प्रस्तुत किया। वंचितों के हकों की रक्षा करने, अन्य महिलाओं को जमीदारों और निजाम सरकार की बर्बरतापूर्ण कृत्यों से मुक्त होने हेतु रचनात्मक आंदोलनों में सहभागी बनने वाली और महिलाओं की समानता की पक्षधर वीरांगना चाकली ऐलम्मा का निधन 10 सितंबर 1985 को वरंगल जिले के पालकुर्ती गांव (तेलंगाना) में हो गई।
नारीवाद को बहुत आगे बढ़ाया
वह स्वतंत्रता के बाद भी कई वर्षों तक जीवित रहीं परंतु कुछ न्यूज पोर्टलों के अलावा उन पर शायद ही विस्तार से लिखा गया हो। चाकली ऐलम्मा ने अशिक्षित होते हुए भी भारत में नारीवाद को बहुत आगे बढ़ाया पर आज के नारीवादी अध्ययन के पाठ्यक्रम में (तेलंगाना से बाहर) शायद ही उन्हें शामिल किया गया हो। जबकि होना यह चाहिए कि उन्हें न केवल स्त्री अध्ययन बल्कि इतिहास और सबाल्टर्न स्टडीज़ के पाठ्यक्रमों में भी शामिल किया जाना चाहिए जिससे आने वाली पीढ़ियां उनके संघर्ष को जान सकें और प्रेरणा ले सकें। साथ ही तेलंगाना किसान विद्रोह के वीर-वीरंगनाओं और इतिहास के उस काले अध्याय को भी, जिसमें हजारों लोग मारे गए तथा जमींदारों के क्रूर अत्याचार और उत्पीड़न का शिकार हुए, जान सकें। चाकली ऐलम्मा ने जो लड़ाई तेलंगाना के लोगों और तेलुगु के आत्मसम्मान और प्रतिष्ठा के लिए लड़ी थीं उसके लिए वे आज भी लोगों की यादों में जीवित हैं।
लेखक नरेन्द्र दिवाकर
मोबाइल नंबर- 9839675023