स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है, यह दिव्य मंत्र बाल गंगाधर तिलक जी ने दिया और इसे ही मूल मंत्र मानकर पराधीन भारत वासियों ने अंग्रेजो के छक्के छुड़ा दिए। यह मंत्र सर्वथा नया नहीं है। सर्व प्रथम भक्त प्रह्लाद ने ही इस स्वतंत्रता और अपनी आस्था को मान्यता देने की बात की थी। अहंकारी को अपनी ही सत्ता प्रिय होती है। दूसरे की स्वीकार्यता उसे सहन नहीं होती। बात ईश्वर अथवा धार्मिक, सामाजिक आर्थिक स्वततंत्रता की ही क्यों न हो? अहंकारी अपना वर्चस्व और अपनी आराधना चाहता है। तत्वज्ञ और धर्मपरायणता इसे स्वीकार नहीं कर सकती।
यही द्वंद्व अहंकारी पिता हिरण्यकशिपु और पुत्र भक्त प्रहलाद में था। आज्ञाकारी पुत्र भी पिता की अनुचित बातों की अवज्ञा कर सकता है और उसे यथोचित प्रतिकार करना भी चाहिए। प्रजा यदि अवज्ञा करे तो बात समझ में आती भी है किंतु पुत्र द्वारा अवज्ञा। इसे अहंकारी, क्रूर पिता सहन नहीं कर सका। पुत्र मोह से विमुख हो उसके नाश और विनाश के अनेक कुचक्र रच डाले। योग्य संतान पिता के विरुद्ध शस्त्र नहीं उठाते। इसलिए वह अपने मत, आस्था, विश्वास पर अडिग रहा और विनम्र विरोध करते हुए पिता को समझाता रहा। इससे पिता का क्रोध और भी बढ़ गया। सारे प्रयास विफल होने पर अग्नि से बचाव का सुरक्षा कवच वरदान पाए। अपनी बहन होलिका की गोद में पुत्र भक्त प्रह्लाद को बिठाकर अग्नि प्रज्वलित कराकर प्रह्लाद को जिंदा ही जला डालने का कुत्सित कृत्य कर डाला। किंतु परिणाम विपरीत हुआ, होलिका जलकर मर गई, प्रह्लाद सुरक्षित बच गया।
इस बिंदु पर सामान्य बुद्धि वाले व्यक्ति तर्क कुतर्क कर सकते हैं। किंतु सत्यता यही है सत्यवादी सिद्धांत का विनाश नहीं हो सकता। राज्यश्रय या देवाश्रय या वरदान का भी दुरुपयोग होने लगे तो विद्या या वरदान काम नहीं आता, असफल हो जाता है। यही सत्य की असत्य पर जीत है। दूसरे शब्दों में भ्रामक अथवा असत्य सिद्धांत पर सत्य और यथार्थ सिद्धांत की विजय है। होलिका दहन कुबुद्धि और मिथ्या सिद्धांतो की हार और सत्य सिद्धांत की विजय है। सत्य उम्र नही देखता, राज्य बल, सत्ताबल, धनबल नहीं देखता। सत्य अपने में स्वयं ही अपराजेय है। इसी का द्योतक यह कथा है।
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यदि हम मध्यकाल की बात करे तो मुगलों की अन्याई, अत्याचारी सत्ता, मिथ्या अंधविश्वास और धर्मांधता के विरुद्ध सिक्ख गुरुओं ने सत्य सिद्धांत और धार्मिक स्वतंत्रता की अलख जगाई। गुरु तेगबहादुर जी मंत्र दिया- भय काहू को देत नहीं, नहीं भय मानत काहू। अर्थात धार्मिक स्वतंत्रता न किसी को भयभीत करती है न ही किसी से डरती है, भयभीत होती है। यही सत्य और सत्यवादी की परख भी है। इसी गुरु मंत्र ने मुगल सत्ता की नीव हिला दी थी।
सिद्धांत यदि सत्य है तो विजय अवश्य होगी। अनिवार्यतः होगी। भले ही प्रह्लाद, सिक्खों या तिलक जैसे लोगों को अनेक कष्टों का सामना क्यों न करना पड़े। इसी विश्वास भावना को दृढ़, सुदृढ़ करने के लिए इसे पर्व से अनिवार्यतः जोड़ दिया गया। होलिका जलते ही खुश होकर हम लोग एक दूसरे से गले चिपक कर इस दृढ़ता का पुरजोर स्वागत करते हैं और साथ बने रहने का अघोषित संकल्प भी लेते है। आइए हमारा संकल्प सत्य और नैतिक सिद्धांत में अटूट रहे। इसी मंगलकामना के साथ होलिका दहन पर्व की हार्दिक बधाई।
डॉ जयप्रकाश तिवारी, लखनऊ