किट्टूर जो आज के कर्नाटक राज्य में स्थित है, वहां पर अंग्रेजों ने रानी किट्टूर चेन्नम्मा के साथ भी वही नाइंसाफी की थी, जो उन्होंने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के साथ की थी। अंग्रेजों ने देशी रियासतों को हड़पने के लिए नया कानून बनाया था, जिसके अंतर्गत अगर किसी राज परिवार में उत्तराधिकारी का जन्म नहीं होता था तो गोद लिए हुए बच्चे को सिंहासन नहीं मिलेगा और वह राज्य अंग्रेजों के हाथ में चला जाएगा।
काले कानून का विरोध
रानी किट्टूर चेन्नम्मा ने इस काले कानून के विरोध में अंग्रेजों से तीन बार युद्ध किया। उनमें से दो युद्धों में उन्होंने अंग्रेजों को हराया और कई अंग्रेज जनरलों को गिरफ्तार भी किया, लेकिन जब अंग्रेजों ने युद्ध समाप्त करने का वादा किया तो रानी ने उन्हें रिहा कर दिया। लेकिन दगाबाज अंग्रेजों ने अपना वादा तोड़ दिया और फिर से युद्ध हुआ। इस बार रानी युद्ध में हार गईं और उन्हें बंदी बना लिया गया। सन् 1829 ई. में अंग्रेजों की कैद में ही रानी की मौत हो गई। आइए जानते हैं रानी किट्टूर चेन्नमा के बारे में-
रानी किट्टूर चेन्नमा का जन्म
रानी किट्टूर चेन्नमा का जन्म 23 अक्टूबर 1778 को ककाती में हुआ था। यह कर्नाटक के बेलगावी जिले में एक छोटा सा गांव है। उनकी शादी देसाई वंश के राजा मल्लासारजा से हुई, जिसके बाद वह कित्तुरु की रानी बन गईं। कित्तुरु अभी कर्नाटक में है। उनको एक बेटा हुआ था जिनकी 1824 में मौत हो गई थी। अपने बेटे की मौत के बाद उन्होंने एक अन्य बच्चे शिवलिंगप्पा को गोद ले लिया और अपनी गद्दी का वारिस घोषित किया। लेकिन ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी ‘हड़प नीति’ के तहत उसको स्वीकार नहीं किया। हालांकि उस समय तक हड़प नीति लागू नहीं हुई थी फिर भी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1824 में कित्तुरु पर कब्जा कर लिया।
शिवलिंगप्पा का निर्वासन
ब्रिटिश शासन ने शिवलिंगप्पा को निर्वासित करने का आदेश दे दिया। लेकिन रानी चेन्नम्मा ने अंग्रेजों का आदेश नहीं माना। उन्होंने बॉम्बे प्रेसिडेंसी के लेफ्टिनेंट गवर्नर लॉर्ड एलफिंस्टन को एक पत्र भेजा। उन्होंने कित्तुरु के मामले में हड़प नीति को लागू नहीं करने का आग्रह किया। लेकिन उनके आग्रह को अंग्रेजों ने ठुकरा दिया। इस तरह से ब्रिटिश और कित्तुरु के बीच लड़ाई शुरू हो गई। अंग्रेजों ने कित्तुरु के खजाने और आभूषणों के जखीरे को जब्त करने की कोशिश की, जिसका मूल्य करीब 15 लाख रुपये था। लेकिन वे सफल नहीं हुए।
अंग्रेज सेना का आक्रमण
अंग्रेजों ने 20,000 सिपाहियों और 400 बंदूकों के साथ कित्तुरु पर हमला कर दिया। अक्टूबर 1824 में उनके बीच पहली लड़ाई हुई। उस लड़ाई में ब्रिटिश सेना को भारी नुकसान उठाना पड़ा। कलेक्टर और अंग्रेजों का एजेंट सेंट जॉन ठाकरे कित्तुरु की सेना के हाथों मारा गया। चेन्नम्मा के सहयोगी अमातूर बेलप्पा ने उसे मार गिराया था और ब्रिटिश सेना को भारी नुकसान पहुंचाया था। दो ब्रिटिश अधिकारियों सर वॉल्टर एलियट और स्टीवेंसन को बंधक बना लिया गया। तब अंग्रेजों ने वादा किया कि अब युद्ध नहीं करेंगे तो रानी चेन्नम्मा ने ब्रिटिश अधिकारियों को रिहा कर दिया। लेकिन अंग्रेजों ने रानी को धोखा दिया और फिर से युद्ध छेड़ दिया।
सिपाहियों के साथ हमला
इस बार ब्रिटिश अफसर चैपलिन ने पहले से भी ज्यादा सिपाहियों के साथ हमला किया। सर थॉमस मुनरो का भतीजा और सोलापुर का सब कलेक्टर मुनरो मारा गया। रानी चेन्नम्मा अपने सहयोगियों संगोल्ली रायन्ना और गुरुसिदप्पा के साथ जोरदार तरीके से लड़ीं। लेकिन अंग्रेजों के मुकाबले कम सैनिक होने के कारण वह हार गईं। उनको बेलहोंगल के किले में कैद कर दिया गया। वहीं 21 फरवरी 1829 को उनकी मौत हो गई।
कित्तुरु उत्सव का आयोजन
भले ही रानी चेन्नम्मा आखिरी लड़ाई में हार गईं लेकिन उनकी वीरता को हमेशा याद किया जाता है। उनकी पहली जीत और विरासत का जश्न अब भी मनाया जाता है। हर साल कित्तुरु में 22 से 24 अक्टूबर तक कित्तुरु उत्सव मनाया जाता है जिसमें उनकी जीत का जश्न मनाया जाता है। रानी चेन्नम्मा को बेलहोंगल तालुका में दफनाया गया है। उनकी समाधि एक छोटे से पार्क में है जिसकी देखरेख सरकार के जिम्मे है। उनकी एक प्रतिमा नई दिल्ली के पार्लियामेंट कांप्लेक्स में लगी है। कित्तुरु की रानी चेन्नम्मा की उस प्रतिमा का अनावरण 11 सितंबर 2007 को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा देवीसिंह पाटिल ने किया था।
ब्रिटिश संग्रहालय में तलवार
इस प्रतिमा को कित्तुर रानी चेन्नम्मा स्मारक कमेटी ने दान दिया था जिसे विजय गौड़ ने तैयार किया था।
कर्नाटक के लिंगायत समुदाय के लोग रानी किट्टूर चेन्नम्मा को अपने समुदाय का बताते हैं। उन्होंने काफी दिनों तक रानी चेन्नम्मा की तलवार की तलाश की, लेकिन उन्हें वह नहीं मिली। कहा जाता है कि वह ब्रिटिश संग्रहालय में रखी हुई है। रानी किट्टूर चेन्नम्मा का नाम आज भी बहुत सम्मान के साथ लिया जाता है। अपने साहस और बलिदान से उन्होंने स्वाधीनता संग्राम में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित कर लिया।
– सरिता सुराणा वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखिका हैदराबाद