सवाल करना लोकतंत्र के लिए प्राणवायु है, इसीलिए बोलते ही रहिए!
हमें लोकतंत्र की रक्षा के लिए बोलना चाहिए, अगर हम बोलना बंद कर दें, तो समझो खेल खत्म!
क्या सवाल करें तो प्राण लेते हैं? क्या यही लोकतंत्र है?
कई जाने-माने प्रसिद्ध साहित्यकारों ने कहा है कि सवाल अब शासकों को डरा रहे हैं। एक जमाने में सवाल करना सही और न्यायसंगत माना जाता था। हालांकि, अब सवाल करना एक अपराध बनता जा रहा है। अब ऐसी स्थिति आ गई है सरकारें ही व्यापार करने वाली संस्थान बन गई हैं।
प्रमुख क्रांतिकारी कवि, लेखक और केंद्र साहित्य अकादमी पुरस्कार ग्रहिता निखिलेश्वर की तीन तेलुगु पुस्तकों के लोकार्पण के दौरान वक्ताओं ने उपर्युक्त चिंताएं व्यक्त की हैं!
हैदराबाद: क्रांतिकारी कवि, लेखक और केंद्र साहित्य अकादमी पुरस्कार ग्रहिता निखिलेश्वर की तीन तेलुगु पुस्तकों- ‘कहाँ जा रहे हैं हम? कितनी दूर है मंजिल?’, ‘दीवारों के पीछे (जेल की यादें)’, और ‘किसका लोकतंत्र? किस मूल्य का प्रस्थान?’ ( ‘ఎక్కడికీ గమనం? ఎంతదూరమీ గమ్యం?’, ‘గోడల వెనుక (జైలు జ్ఞాపకాలు)’, ‘ఎవరిదీ ప్రజాస్వామ్యం? ఏ విలువలకీ ప్రస్థానం?’) का लोकार्पण रविवार को ध्रुव एलाइट शिवम रोड में किया गया। इस कार्यक्रम को सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस बी. सुदर्शन रेड्डी, अधिवक्ता प्रोफेसर कल्पना कन्नभिरान, प्रोफेसर कट्टा मुत्यम रेड्डी, जाने-माने साहित्यकार डॉ. नंदिनी सिधारेड्डी और वरिष्ठ पत्रकार तेलकपल्ली रवि ने संबोधित किया। कार्यक्रम की अध्यक्षता जाने-माने वामपंथी विचारक डॉ. जतिन कुमार ने की।
इस अवसर पर जस्टिस सुदर्शन रेड्डी ने जोर देकर कहा कि आज लोकतंत्र के नाम पर हो रहे गलत कार्यों पर सवाल उठाने का समय आ गया है। अगर हम इंसान है और लोकतंत्र के बारे में नहीं बोलते है तो इंसान होने का कोई मतलब नहीं है। जस्टिस ने कहा कि केस, हमले और गिरफ्तारी के डर से हम मुंह नहीं खोलते है तो लोकतंत्र नहीं कहा जाएगा। सुदर्शन रेड्डी ने विश्वास के साथ कहा कि भले ही 90 फीसदी लोग बिना कुछ नहीं बोलते हैं और जो बोलते हैं उन्हें बोलते रहना चाहिए और अगर सिर्फ एक व्यक्ति भी सुन लेता है तो जरूर बदलाव आएगा। हम इंसान है। इसीलिए सोचना और बोलना चाहिए। उन्होंने जन सामान्य से अपील की, “अन्याय के खिलाफ बोलो, बोलते रहो और दहाड़ते रहो।” जस्टिस ने याद दिलाया कि निखिलेश्वर जैसे लेखकों के लिखने और बोलने के कारण ही 1971 में हाई कोर्ट के जस्टिस चिन्नापुर रेड्डी और जस्टिस एडीवी रेड्डी ने उनके डिटेंशन केस पर ऐतिहासिक फैसला दिया है। इस मौके पर जस्टिस ने बताया कि प्रोफेसर साईं बाबा बिना कुर्सी के चल फिर नहीं सकने वाला व्यक्ति किस तरह से दहाड़ा है। इनकी दहाड़ पूरे दुनिया में गूंज उठी है। यह हमें भली भांति मालूम है।

जस्टिस सुदर्शन रेड्डी ने खेद व्यक्त करते हुए कहा कि मार्च 2026 के आखिर तक नक्सलियों को खत्म कर दिये जाने की केंद्रीय गृहमंत्रालय की घोषणा संविधान का उल्लंघन है और अन्याय है। साथ ही व्यंग्य कसते कहा ‘एनकाउंटर का दौर खत्म हो गया है’ अब ‘हम जो कहते हैं उसे सुनों वर्ना हम तुम्हें तय तारीख तक खत्म कर देंगे’ कहने का ट्रेंड आ गया है। उन्होंने कहा कि आज का लोकतंत्र ऐसा है। उन्होंने यह भी कहा कि गंभीर मतभेद और दर्दनाक मुद्दे होना आम बात है। फिर भी यह कहना सही नहीं है कि ‘तुम हमसे सहमत नहीं हो, तुम अलग सोचते हो, इसलिए हम तुम्हें मार डालेंगे।’

सुदर्शन रेड्डी ने कहा कि मौजूदा हालात ‘आपके विचार ही आपके दुश्मन हैं’। ऐसे हालात में सवाल उठता है, ‘किसके खिलाफ युद्ध किया जाये’ अर्थात कोई भी बात अपने ऊपर नहीं आती तब तक हमें पता नहीं चलता है। इस अवसर जस्टिस ने जर्मन पादरी मार्टिन नीमोलर का एक उदाहरण दिया-
“पहले वे कम्युनिस्टों के लिए आए।
मैंने इसलिए नहीं बोला क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था।
फिर वे सोशलिस्टों के लिए आए।
मैंने इसलिए नहीं बोला क्योंकि मैं सोशलिस्ट नहीं था।
फिर वे यूनियन मेंबर्स के लिए आए।
मैंने इसलिए नहीं बोला क्योंकि मैं यूनियन मेंबर नहीं था।
आखिर में जब वे मेरे लिए आए।
तब मेरे लिए बोलने वाला कोई नहीं बचा था।”
जस्टिस सुदर्शन रेड्डी ने कहा कि सोचना बंद मत कीजिए। बोलना बंद मत कीजिए। बोलना ही लोकतंत्र की प्राणवायु है।
क्या जजों की भाषा विधि की भाषा जैसी है?
प्रोफेसर कल्पना कन्नभिरान ने कहा कि दिगंबर कवियों में से एक निखिलेश्वर ने डिटेंशन केस की सुनवाई के दौरान जजों के पूछे गए सवालों के जवाब में जो कहा था वह आज भी सच है। उन्होंने कहा कि 1971 में जस्टिस चिन्नपरेड्डी का दिया गया फैसला आज आने वाले फैसलों में जमीन आसमान का अंतर है। कल्पना ने कहा कि आज जज खुद पूछ रहे हैं कि किसी इंसान के हाथ-पैर नहीं है या शरीर में कोई हलचल नहीं है, फिर भी उसकी खतरनाक सोच तो है। ऐसे बोलना जजों की भाषा या संवैधानिक भाषा तो नहीं है। यह गली की भाषा (स्ट्रीट लैंग्वेज) है।

प्रोफेसर कल्पना ने सवाल किया कि 1971 की संवैधानिक विरासत का क्या हुआ। उन्होंने निखिलेश्वर की कही बातें याद कीं जो उन्होंने एक बार बातचीत में उनसे कही थीं। उन्होंने बताया कि जब जलगम वेंगल राव मुख्यमंत्री थे तब निखिलेश्वर को गिरफ्तार किया गया था और उस मामले में दिगंबरकवि जैसे साहित्यकारों को वर्बल नक्सलाइट कहा गया था और अब ऐसे साहित्यकारों को अर्बन नक्सलाइट कहा जा रहा है। उन्होंने कहा कि जो लोग उन पर सवाल उठाते हैं, उनके साथ आज भी वही हाल है जो तब था। उन्होंने अपील की कि जब भी संविधान पर खतरा उत्पन्न होता है तो उसकी रक्षा करना आम आदमी की ज़िम्मेदारी है। कल्पना कन्नभिरान ने बताया कि संविधान के आर्टिकल 21 में लिखा है कि “अवज्ञा मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है” और निखिलेश्वर जैसे लोग इसके मार्गदर्शक हैं।
अस्तित्ववादी आंदोलन खतरे में नहीं हैं!
प्रसिद्ध लेखिक, कवि और तेलंगाना साहित्य अकादमी के प्रथम चेयरमैन, नंदिनी सिधारेड्डी ने कहा कि कोई भी आंदोलन सामाजिक हालात के हिसाब से पैदा होता है। ऐसे समय में अस्तित्ववादी आंदोलन खतरे में नहीं हैं। उन्होंने कहा कि लेखकों में करियरिज़्म रहता है। उन्होंने समझाया कि एक लेखक का लेखक होना गलत नहीं है। कोई भी रचना समय तय करता है कि वह कमज़ोर है या पढ़ने लायक नहीं है। इसी कारण उन रचनाओं को गलत कहना ठीक नहीं है। साथ ही सवाल किया कि क्या बिना करियर के कोई रचना होती है। जो कोई भी इसके बारे में सोचता है, उसे शिकायतें होती है और वही काम निखिलेश्वर ने किया।
प्रोफेसर कट्टा मुत्यमरेड्डी ने निखिलेश्वर के लिखों की समीक्षा की। उन्होंने साउथ अफ्रीका के अश्वेत योद्धा नेल्सन मंडेला के शब्द कोट करते हुए, “दुनिया को बदलने का सबसे ताकतवर हथियार शिक्षा है।” का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि आजकल भारत में सवालों से डरने के दिन आये हैं। शासक सवालों से डर रहे हैं। उन्होंने सुझाव दिया कि विरोध करने वालों के आवाज़ में आवाज़ मिलानी चाहिए।
सीनियर पत्रकार तेलकपल्ली रवि ने निखिलेश्वर के पॉलिटिकल करियर के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि बदलाव स्वाभाविक है। यह सोचने की ज़रूरत नहीं है कि पिछला समय सब अच्छा था और आज सब बुरा है। उन्होंने कहा कि आज की पीढ़ी कल से बेहतर सोचती है और तेज़ी से रिएक्ट हो रही है।

वक्ताओं के भाषणों का जवाब देते हुए इन किताब के लेखक निखिलेश्वर ने “बिहाइंड द वॉल्स” की यादें ताज़ा कीं। उन्होंने बताया कि वे ये तीनों किताबें देश के हालात बदलने की चाहत से प्रकाशित किये हैं। निखिलेश्वर के बेटे और वरिष्ठ पत्रकार के. राहुल ने धन्यवाद ज्ञापन दिया।
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హైదరాబాద్ : పాలకులను ప్రశ్నలూ భయపెడుతున్నాయని, ఒకప్పుడు ప్రశ్నించడమే సహేతుకమని, న్యాయమనే వారని ఇప్పుడు అదే నేరమవుతోందని పలువురు ప్రముఖులు అభిప్రాయపడ్డారు. ప్రభుత్వాలే వ్యాపార సంస్థలుగా మారిపోయిన పరిస్థితులు ఏర్పడ్డాయని ఆవేదన వ్యక్తం చేశారు. ఆదివారం హైదరాబాద్ లో ప్రముఖ కవి, రచయిత, కేంద్ర సాహిత్య అకాడెమి అవార్డ్ గ్రహీత నిఖిలేశ్వర్’ గారి మూడు పుస్తకాల ఆవిష్కరణ సభ జరిగింది. ప్రముఖ వామపక్షవాది డాక్టర్ జతిన్ కుమార్ అధ్యక్షతన జరిగిన సభలో సుప్రీంకోర్టు రిటైర్డ్ జడ్జి జస్టిస్ బి. సుదర్శన్ రెడ్డి, ప్రొఫెసర్ కల్పనా కన్నబిరాన్, ప్రొఫెసర్ కట్టా ముత్యంరెడ్డి, ప్రముఖ సాహితీవేత్త డాక్టర్ నందిని సిధారెడ్డి, సీనియర్ తెలకపల్లి రవి ప్రసంగించారు. సభలో ‘ఎక్కడికీ గమనం? ఎంతదూరమీ గమ్యం?’, ‘గోడల వెనుక (జైలు జ్ఞాపకాలు)’, ‘ఎవరిదీ ప్రజాస్వామ్యం? ఏ విలువలకీ ప్రస్థానం?’ పుస్తకాలను ప్రముఖులు ఆవిష్కరించారు.
అనంతరం జస్టిస్ సుదర్శన్ రెడ్డి ప్రసంగిస్తూ నేడు ప్రజాస్వామ్యం పేరిట జరుగుతున్న అనుచిత చర్యలను ప్రశ్నించాల్సిన సమయం వచ్చిందన్నారు. మనుషులుగా ఉన్నవాళ్లు మాట్లాడకపోతే ప్రజాస్వామ్యానికి అర్థం లేదన్నారు. కేసులు, దాడులు, అరెస్టులకు భయపడి నోరు విప్పకపోతే ప్రజాస్వామ్యం మనజాలదన్నారు. నూటికి 90 శాతం మంది నోరు విప్పకుండా ఉంటారని, మాట్లాడేవారు మాట్లాడుతూనే ఉండాలని, ఒక్కరు విన్నా మార్పు వస్తుందని అభిప్రాయపడ్డారు. మనుషులం గనుక ఆలోచించాలన్నారు. “మాట్లాడండి, మాట్లాడుతూనే ఉండండి, నోరు విప్పిండి” అని పౌరసమాజానికి విజ్ఞప్తి చేశారు.
నిఖిలేశ్వర్ లాంటి వాళ్లు రాయబట్టో, మాట్లాడబట్టో 1971లో ఆనాటి హైకోర్టు న్యాయమూర్తులు జస్టిస్ చిన్నపురెడ్డి, జస్టిస్ ఏడీవీ రెడ్డి లాంటి వాళ్లు డిటెన్షన్ కేసులపై చరిత్రాత్మక తీర్పులు ఇచ్చారని గుర్తు చేశారు. ప్రొఫెసర్ సాయిబాబా లాంటి వాళ్లు కుర్చీలకు అతుక్కుపోయినా నోరు విప్పిన విషయాన్ని ఈ సందర్భంగా ప్రస్తావించారు.
నక్సలైట్లను 2026 మార్చి నెలాఖరుకల్లా నిర్మూలన చేస్తామనే కేంద్ర హోం మంత్రిత్వ శాఖ ప్రకటనను అన్యాపదేశంగా ప్రస్తావిస్తూ జస్టిస్ సుదర్శన్ రెడ్డి కాస్తంత వ్యంగంగానే ‘ఎన్కౌంటర్లకు కాలం చెల్లిందని’ ఆ స్థానంలో ‘మేం చెప్పినట్టు వినండి, లేకుంటే మిమ్మల్ని పలానా తేదీలోపల నిర్మూలిస్తాం’ అనే ధోరణి వచ్చిందని ఆవేదన వ్యక్తం చేశారు. ఇప్పుడున్న ప్రజాస్వామ్యం అట్లా ఉందన్నారు. తీవ్ర విభేదాలు, బాధకరమైన అంశాలు ఉండడం పరిపాటని అంటూ ‘మీరు మాతో విభేదిస్తున్నారు, మీరు మరోలా ఆలోచిస్తున్నారు గనుక చంపేస్తామనడం వేరని’ అన్నారు.
ప్రస్తుత పరిస్థితుల్లో ‘మీ ఆలోచనలే మీ శత్రువులని’ సుదర్శన్ రెడ్డి వ్యాఖ్యానించారు. ఇటువంటి పరిస్థితుల్లో ‘ఎవరి మీద యుద్ధం చేయాలి’ అనే ప్రశ్న సహజంగానే వస్తుందన్నారు. ఏదైనా తమ దాకా వస్తేగాని తెలియదని చెబుతూ జర్మనీకి చెందిన పాస్టర్ మార్టిన్ నీమోలర్ (Martin Niemöller) కొటేషన్ ను ఉదహరించారు.
“మొదట వారు కమ్యూనిస్టుల కోసం వచ్చారు.
నేను కమ్యూనిస్టు కాదు కాబట్టి మాట్లాడలేదు.
తర్వాత వారు సోషలిస్టుల కోసం వచ్చారు.
నేను సోషలిస్టు కాదు కాబట్టి మాట్లాడలేదు.
ఆ తర్వాత యూనియన్ సభ్యుల కోసం వచ్చారు.
నేను యూనియన్ సభ్యుడు కాదు కాబట్టి మాట్లాడలేదు.
చివరకు వారు నాకోసం వచ్చినప్పుడు.
నా కోసం మాట్లాడడానికి ఎవరూ మిగలలేదు.”
అని చెబుతూ ఆలోచించడం మానొద్దని, మాట్లాడడం మానొద్దని, ప్రజాస్వామ్యానికి ఊపిరి మాట్లాడడం అని జస్టిస్ సుదర్శన్ రెడ్డి చెప్పారు.
న్యాయమూర్తుల భాష వీధి భాషలా ఉందా?
ప్రొఫెసర్ కల్పనా కన్నబిరాన్ తన ప్రసంగంలో డిటెన్షన్ కేసు విచారణ సందర్భంలో న్యాయమూర్తులు అడిగిన ప్రశ్నలకు దిగంబర కవుల్లో ఒకరైన నిఖిలేశ్వర్ చెప్పిన మాటలు నేటికీ అక్షర సత్యాలన్నారు. 1971లో జస్టిస్ చిన్నపరెడ్డి ఇచ్చిన తీర్పుకి ఇప్పుడు వస్తున్న తీర్పులకీ అసలు పోలికే లేదని అభిప్రాయపడ్డారు. కాళ్లూ, చేతులు లేకపోయినా, శరీర కదలికలు లేకపోయినా బుర్ర ఉంది కదా అని న్యాయమూర్తులే అడుగుతున్నారంటే ‘న్యాయమూర్తుల భాష రాజ్యాంగపరమైన భాషలాగా లేదని, వీధి భాషగా (స్ట్రీట్ లాంగ్వేజ్) ఉందని’ అన్నారు.
1971నాటి కానిస్టిట్యూషనల్ లెగసీ (రాజ్యాంగ వారసత్వం) ఏమైందని ప్రశ్నించారు. ఓసారి మాటల సందర్భంలో నిఖిలేశ్వర్ తనతో చెప్పిన మాటల్ని గుర్తు చేసుకున్నారు. జలగం వెంగళరావు ముఖ్యమంత్రిగా ఉన్నప్పుడు నిఖిలేశ్వర్ ను అరెస్ట్ చేశారని, ఆ సందర్భంలో దిగంబరకవులు లాంటి వాళ్లను వెర్బల్ నక్సలైట్లుగా అభివర్ణించారని, ఇప్పుడు అటువంటి వాళ్లనే అర్బన్ నక్సలైట్లుగా పిలుస్తున్నారని వివరించారు. ప్రశ్నించే వారి పట్ల ఆనాడు ఏ పరిస్థితి ఉందో ఇప్పుడూ అదే ఉందన్నారు. రాజ్యాంగానికి ప్రమాదం ముంచుకొచ్చినప్పుడల్లా కాపాడుకోవాల్సిన బాధ్యత సామాన్యులదేనని విజ్ఞప్తి చేశారు. “అవిధేయత నా జన్మహక్కు (Disobedience is my birthright)” అని రాజ్యాంగంలోని ఆర్టికల్ 21 చెబుతోందని, దాన్ని కాపాడుకోవడంలో నిఖిలేశ్వర్ లాంటి వారు మార్గదర్శకులని వివరించారు కల్పనా కన్నాబిరన్.
అస్థిత్వ ఉద్యమాలకు కాలం చెల్లలేదు!
సామాజిక సందర్భాలను బట్టి ఉద్యమాలు పుడుతుంటాయని, అస్థిత్వ ఉద్యమాలకు కాలం చెల్లలేదని ప్రముఖ రచయిత, కవి, తెలంగాణ సాహిత్య అకాడమీ తొలి ఛైర్మన్ నందిని సిధారెడ్డి అభిప్రాయపడ్డారు. రచయితల్లో కెరియరిజం ఉంటుందన్నారు. రచయిత రచయితగా ఉండడంలో తప్పు లేదని వివరించారు. ఏదైనా ఒక రచన ఆయా కాలాన్ని బట్టి పల్చబడిందో, చిక్కబడిందో నిర్ణయిస్తుందన్నారు. అంతమాత్రాన ఆయా రచయితల్ని తప్పు బట్టాల్సిన పని లేదని, కెరియర్ లేకుండా రచన ఉంటుందా అని ప్రశ్నించారు. ఎవరైతే ఆలోచిస్తారో వాళ్లకు ఫిర్యాదులూ ఉంటాయని, ఆ పనే నిఖిలేశ్వర్ చేశారన్నారు.
ప్రొఫెసర్ కట్టా ముత్యంరెడ్డి నిఖిలేశ్వర్ రాసిన విద్యారంగ వ్యాసాలను సమీక్షించారు. “ప్రపంచాన్ని మార్చేందుకు అత్యంత శక్తివంతమైన ఆయుధం విద్య” అని దక్షిణాఫ్రికా నల్లజాతి యోధుడు నెల్సన్ మండేలా చెప్పిన మాటను ప్రస్తావిస్తూ ఈవేళ ఇండియాలో ప్రశ్నకు భయపడే రోజులు వచ్చాయన్నారు. ప్రశ్నలకు పాలకులు భయపడుతున్నారని వివరించారు. నిరసనకారులకు గళం ఇవ్వాలని సూచించారు.
సీనియర్ జర్నలిస్టు తెలకపల్లి రవి నిఖిలేశ్వర్ రాజకీయ ప్రస్థానాన్ని వివరించారు. మార్పు సహజమని, గతమంతా బాగుందని, వర్తమానమంతా చెడిపోయిందని భావించాల్సిన అవసరం లేదని చెప్పారు. నిన్నటి కన్నా నేటి తరం బాగా ఆలోచిస్తోందని, వేగంగా స్పందిస్తోందని అన్నారు.
సభికుల ప్రసంగాలకు పుస్తక రచయిత నిఖిలేశ్వర్ స్పందిస్తూ “గోడల వెనుక” జ్ఞాపకాలను గుర్తుచేసుకున్నారు. దేశంలో పరిస్థితులు మారాలనే తపనతోనే ఈ పుస్తకాలను తెచ్చినట్టు వివరించారు. నిఖిలేశ్వర్ కుమారుడు సీనియర్ జర్నలిస్టు, కె.రాహుల్ సభకు వందన సమర్పణ చేశారు.
