हैदराबाद: केंद्रीय हिंदी संस्थान, अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद तथा विश्व हिंदी सचिवालय के तत्वावधान में वैश्विक हिंदी परिवार की ओर से ‘भारतीय विश्वविद्यालयों में प्रवासी साहित्य का शिक्षण’ विषय पर साप्ताहिक संगोष्ठी आयोजित की गई। ज्ञातव्य है कि शिक्षा जीवन पर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है। ज्ञान दान एवं जीवन के सर्वांगीण विकास में विश्वविद्यालयों की विशिष्ट भूमिका होती है जिस पर राष्ट्र और जीवन जगत की नींव निर्मित होती है। इसमें विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम अहम स्थान रखते हैं जिनमें उत्कृष्ट गुणवत्ता आवश्यक है। साहित्यिक क्षेत्र में प्रवासी साहित्य का अपार भंडार है जिसे भारतीय विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल करने से संबन्धित विषय पर आज अनेक विद्वानों द्वारा आभासी विमर्श किया गया।
आरंभ में मंच की ओर से संरक्षक अनिल शर्मा जोशी जी द्वारा हाल ही में 8 जुलाई को जापान के पूर्व प्रधानमंत्री पद्मविभूषण शिंजों आबे की हत्या पर जापान से हर सप्ताह इस कार्यक्रम में जुडने वाले पद्मश्री डॉ तोमियो मिजोकामी के समक्ष शोक प्रकट किया गया। डॉ मिजोकामी ने भारत सरकार के शोक को अप्रतिम बताया और सांत्वना हेतु आभार प्रकट किया।
विमर्श की प्रस्ताविकी में साहित्यकार प्रो राजेश कुमार ने भाषा और साहित्य की महत्ता को रेखांकित करते हुए प्रवासी साहित्य के विविध आयामों की संक्षिप्त चर्चा की। तदोपरांत केंद्रीय हिंदी संस्थान के गुवाहाटी केंद्र के क्षेत्रीय निदेशक डॉ राजवीर सिंह द्वारा अतिथि परिचय कराते हुए माननीय अध्यक्ष, विशिष्ट वक्ताओं एवं सुधी श्रोताओं का आत्मीयता से शाब्दिक स्वागत किया गया तथा इस वैश्विक विमर्श को आत्मसात करने का आग्रह किया गया। दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कालेज के प्रो विजय कुमार मिश्र ने शालीनता और विद्वता सहित संचालन करते हुए विषय के विस्तृत पक्षों को उजागर किया और विशिष्ट वक्ताओं को आदर सहित विमर्श में आमंत्रित किया।
मेरठ विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो नवीन चंद लोहानी ने सहर्ष कहा कि प्रवासी साहित्य पर चिंतन जागरूकता और गौरव का विषय है। इसे यदा-कदा चर्चाओं और सामयिक विशेषांकों आदि से ऊपर विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम में समुचित स्थान मिलना चाहिए। उन्होंने बताया कि अनेक विद्वानों से विस्तृत विमर्श के बाद उनके विश्वविद्यालय में इसे वर्ष 2009-10 से स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर पर पाठ्यक्रम में समाहित किया गया।
पिछले कई वर्षों से प्रवासी साहित्य पर अनेक शोध कार्य भी हुए हैं। एक शोध के अनुसार प्रत्येक प्रवासी हिंदी पुस्तक में नाम, स्थान, भोजन, रहन सहन आदि से संबन्धित सैकड़ों नए शब्द मिलते हैं जो शब्दकोश में अभिवृद्धि करते हैं। प्रवासी जगत की हिंदी में लगभग 600 से अधिक पुस्तकें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हमारी थाती और साहित्य का विस्तार हैं। हमें प्रवासी की परिभाषा और अन्य विवादों से बचकर उत्कृष्ट साहित्य को पाठ्यक्रम में स्थान देना चाहिए।इसके लिए केंद्र, राज्य और संस्थाओं आदि का गंभीरता से कार्य आवश्यक है। साथ ही प्रवासी साहित्यकारों के भीतर लेखन को लेकर चर्चा जरूरी है। नई शिक्षा नीति के कार्यान्वयन में भी यथेष्ट ध्यान देना श्रेयस्कर होगा।
गुमनामी में साहित्य सर्जना
यूनाइटेड किंगडम से जुड़ी प्रसिद्ध प्रवासी साहित्यकार मैडम दिव्या माथुर ने इस आयोजन पर प्रसन्नता प्रकट करते हुए केंद्रीय हिंदी संस्थान द्वारा हाल ही में प्रवासी शोध संस्थान, की स्थापना का स्वागत किया गया। उन्होंने बड़े अदब से कहा कि केवल गिने चुने प्रवासी साहित्यकारों तक सीमित न रहकर गुमनामी में साहित्य सर्जना कर रहे सैकड़ों उत्कृष्ट साहित्यकारों की गुणवत्तायुक्त रचनाओं को भी पाठ्यक्रम में समुचित स्थान देकर न्याय होना चाहिए और संबन्धित प्रवासी साहित्यकारों को अवगत कराया जाना चाहिए। इसके अलावा प्रवासी साहित्य प्रकाशन से संबन्धित कठिनाइयों का भी निराकरण होना चाहिए और समय- समय पर ऐसी संगोष्ठियाँ आयोजित होनी चाहिए।
प्रवासी जीवन
दिल्ली स्थित डॉ बी आर अंबेडकर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के प्रोफेसर सत्यकेतु सांकृत का कथन था कि प्रवासी जीवन की अनुभूतियों के सहारे विश्वविद्यालयों के लिए मुकम्मल पाठ्यक्रम बनाया जाना चाहिए। बहुत पहले आदरणीय गोयनका जी ने इसकी पृष्ठभूमि तय कर दी थी। प्रेमचंद, प्रभा खेतान, गिरिराज किशोर और नासिरा शर्मा तथा अभिमन्यु अनत सरीखे साहित्यकारों की रचनाएँ भी विदेशी पृष्ठभूमि को लेकर विचारणीय हैं। हमें देशी, विदेशी और प्रवासी आदि की जकड़न से दूर रहकर गुणवत्तायुक्त रचनाओं को पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए और भारत को विश्व गुरु का दर्जा दिलाने के लिए समग्रता से पेश आना चाहिए तथा प्रवासियों की वेदना के मद्देनजर बेमानी प्रश्न नहीं उठाने चाहिए। प्रमुख विषयों के शास्त्रार्थ के समय हर हाल में प्रवासी संवेदना का ध्यान रखना चाहिए और फासले में रहते हुए भी विश्वबंधुत्व और बसुधेव कुटुंबकम कायम रखना चाहिए। उन्होंने यह भी अवगत कराया कि वे इस समय ‘प्रवासी साहित्य का इतिहास’ लिख रहे हैं।
साहित्यकार आगामी समय का पूर्वाभास कराते
अमेरिका में सेवारत प्रसिद्ध प्रवासी साहित्यकार मैडम अनिल प्रभा कुमार का मन्तव्य था कि उत्कृष्ट प्रवासी साहित्य देश-विदेश के बीच सेतु सदृश हैं। साहित्यकार आगामी समय का पूर्वाभास कराते हैं और आत्मप्रचार से दूर रहकर विदेशी धरती और समुद्र से मोती निकालकर साहित्य में पिरोते हैं। इसमें ठूसे हुए तथ्यों के लिए कोई स्थान नहीं है। सतसाहित्य बेशक पाठ्यक्रम में न हो किन्तु समीक्षकों की नजर में रहता है। उन्होंने बताया कि उनकी कुछ रचनाएँ अमेरिकी पाठ्यक्रम में हैं। भूमंडलीकरण में यह कार्य आसान हुआ है। लेखक, पाठक, शोधार्थी और संस्थाएँ भारत – भारतीयता की कसौटी पर खरा उतरें।
गुणवत्ता के एक ही मानदंड
अमेरिका के पेंसिल्वेनिया विश्वविद्यालय के पूर्व आचार्य प्रो सुरेन्द्र गंभीर की टिप्पणी थी कि यदि हम विश्व को सार्वभौमिक इकाई मानते हैं तो दुनियाँ के किसी भी भाग से आने वाली रचना को गुणवत्ता के एक ही मानदंड पर रखकर पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए। कैलीफोर्निया से हिंदी सेवी कवि एवं आधुनिक तकनीकीविद श्री अनूप भार्गव का मत था कि स्त्री साहित्य, दलित साहित्य आदि वर्गीकरण में प्रवासी साहित्य भी स्वाभाविक है तथा प्रवासी साहित्य के लिए प्रवास का अनुभव आवश्यक है। बेशक गुणवत्ता जरूरी है किन्तु हर तरह के साहित्य को एक ही हांडी में डालकर समुचित विमर्श और आकलन करना संभाव्य नहीं है।
पशु, पक्षी और प्रकृति में भी प्रवास की विवशता और आवश्यकता
आस्ट्रेलिया और अमेरिका की सुप्रसिद्ध प्रवासी साहित्यकार मैडम मृदुल कीर्ति ने कहा कि पशु, पक्षी और प्रकृति में भी प्रवास की विवशता और आवश्यकता होती है। हम वसुधैव कुटुंबकम के पोषक हैं। सरहदें देह की होती हैं, मन की नहीं। मन का पखेरू तो उड़कर ही रहेगा। हमारा बोया हुआ वैचारिक बीज एक दिन वटवृक्ष बनता है। लहू में संचार करने हेतु पाठ्यक्रम में सतसाहित्य जरूरी है।
गहरी और सकारात्मक रुचि
भोपाल से प्रोफेसर ललिता रामेश्वर का मत था कि हम साहित्य और संवेदनाओं को न बाँधें। जहां मनुष्य है वहाँ भावनायें हैं। जापान से जुड़े पद्मश्री डॉ तोमियो मिजोकामी ने भी इस विषय पर गहरी और सकारात्मक रुचि दिखाई। प्रवासी संसार पत्रिका के संपादक डॉ॰ राकेश पाण्डेय का कहना था कि भारतवंशी, गिरमिटिया और प्रवासी आदि अनेक शब्द चलन में हैं किन्तु प्रवासी शब्द अपना विशेष अर्थ ले चुका है। हमें इसे आत्मसात करना चाहिए। प्रवासी तत्वों का निर्धारण रचना के आधार पर होना चाहिए। उन्होंने बनारसी दास चतुर्वेदी, कृष्ण बिहारी मिश्रा और अर्चना आदि साहित्यकारों के योगदान को रेखांकित किया।
साहित्य के विस्तार
केरल के तिरुवन्तपुरम स्थित श्री शंकराचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की अध्यक्ष प्रो श्रीलता ने बताया कि वहाँ प्रवासी साहित्य पर पर्याप्त शोध कार्य हो रहा है। हमें इसे खेमों में न बांटकर साहित्य के विस्तार के रूप में देखना चाहिए। इसके जटिल विरोधाभासों की पहचान के लिए गहरा विमर्श जरूरी है।
प्रवासी साहित्य साधना की प्रशंसा
केंद्रीय हिंदी शिक्षण मण्डल के उपाध्यक्ष एवं इस कार्यक्रम के संरक्षक श्री अनिल जोशी ने माननीय अध्यक्ष, अतिथियों, वक्ताओं और देश-विदेश से उपस्थित विद्वानों की भाषा और प्रवासी साहित्य साधना की प्रशंसा की। ध्यातव्य है कि लगभग एक दशक से अधिक समय तक विदेश में सेवारत और प्रवास कर चुके श्री जोशी स्वयं प्रवासी साहित्य के लेखक और मर्मज्ञ हैं। उन्होंने आजीवन प्रवास पर रहने वाले “आप्रवासी” शब्द तथा इससे संबन्धित मंत्रालय की ओर भी सबका ध्यान आकृष्ट किया। उनका कहना था कि बहुतायत मात्रा में प्रवासी लेखन, विकास का ही एक स्वरूप है। प्रवासी लेखकों की पुरजोर ढंग से विपुल जानकारी देते हुए श्री जोशी ने कहा कि इनका समुचित मूल्यांकन होना चाहिए।
प्रवासी साहित्य में अस्मिता का संघर्ष
अधिकांश प्रवासी लेखकों से संबन्धित जानकारी सामान्य पाठक वर्ग को भी नहीं है। जैसे लक्ष्मीधर मालवीय, शालिग्राम शुक्ल और दिव्या माथुर आदि। यदि हम दस सर्वश्रेष्ठ कहानियों का चयन करें तो उनमें अधिकांश प्रवासी कथाकारों की मिलेंगी। शैक्षिक क्षेत्र से जुड़े विद्वानों से अपेक्षा है कि वे विश्वविद्यालयों के लिए सर्वश्रेष्ठ साहित्य चुनें। यह केवल एक भाषा या हिंदी तक ही सीमित नहीं है। हमें दुनियाँ की सोच और पीढ़ियों के अंतर को भी ध्यान में रखना होगा। प्रवासी साहित्य में अस्मिता का संघर्ष निहित होता है। बीसवीं शताब्दी डायसफोरा और प्रवास की शताब्दी है। श्री जोशी जी ने आत्मीय और भावपूर्ण शब्दों में कहा कि भूमंडलीकरण के दौर में प्रतिनिधि प्रवासी साहित्यकारों को पढ़ना एवं उनकी दूरदृष्टि रूपी अलख को समझना तथा जीवन में यथोचित पक्ष को आचरण में लाना आवश्यक है।
प्रवासी साहित्य पर गंभीर चिंतन
अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रेमचंद मर्मज्ञ एवं प्रख्यात साहित्यकार डॉ कमल किशोर गोयनका जी ने इस गंभीर चर्चा पर हार्दिक प्रसन्नता प्रकट की एवं अनेक क्षेत्रों में दिशा निर्देशन तथा मार्ग प्रशस्त करने के लिए श्री अनिल जोशी के नेतृत्व की मुक्तकंठ से सराहना की। उन्होंने गांधी जी और स्वामी विवेकानंद की विदेश यात्रा की याद दिलाते हुए प्रवासी साहित्य पर गंभीर चिंतन की सलाह दी तथा इस चर्चा में आमंत्रित विद्वानों की साधना का समादर किया। उनका मत था कि प्रवासी शब्द और साहित्य को सीमित दायरे में न रखा जाए।
भारतीय अस्मिता का भाव
उन्होंने बताया कि प्रवासी साहित्यकारों की कई सौ संग्रहीत पुस्तकें उनके द्वारा एक पुस्तकालय को संरक्षण-संवर्धन के लिए दी गई हैं। प्रवासी साहित्य को दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल करने के लिए वर्ष 1980 से उनका सत प्रयत्न जारी था। अनेक दृष्टान्तों के माध्यम से उन्होंने समझाया कि प्रवासी संवेदना का आधार आवश्यक है। इसमें भारतीय अस्मिता का भाव भी स्वाभाविक है। विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों के लिए भी आवश्यक है कि वे केवल पठन-पाठन, शोध और नौकरी तक सीमित न रहें बल्कि अपने विषय की वैश्विक विशेषज्ञता हासिल करें। डॉ गोयनका जी की सदिच्छा थी कि नए विद्वान शिक्षक, समीक्षक और आलोचक तैयार हों। प्रवासी साहित्य भारतीय साहित्य का ही एक अंग है। उन्होने केंद्रीय हिंदी संस्थान को प्रवासी साहित्य के प्रकाशन का विधिवत दायित्व संभालने की सलाह दी तथा ऐसे गंभीर विमर्श करते रहने का आग्रह किया।
उपस्थिति
गोष्ठी में पद्मश्री डॉ तोमियो मीजोकामी, अनूप भार्गव, मीरा सिंह, दिव्या माथुर, अरुणा अजितसरिया एवं आशा बर्मन, शिखा रस्तोगी, विवेक मणि त्रिपाठी, प्रो वी रा जगन्नाथन, प्रो नारायण कुमार, प्रो बीना शर्मा, सुरेश उरतृप्त, गंगाधर वानोडे, अपर्णा सारस्वत, मोहन बहुगुणा, किरण खन्ना, सुषमा देवी, विजय नगरकर, जवाहर कर्नावट, प्रमोद कुमार शर्मा, राजीव कुमार रावत, जय शंकर यादव आदि उपस्थित थे।
धन्यवाद
सिंगापुर विश्वविद्यालय में सेवारत प्रवासी भारतीय एवं इस वैश्विक विमर्श की एक संयोजक प्रो संध्या सिंह ने हर्षोल्लासमयी मनभावन वाणी में माननीय अध्यक्ष, विशिष्ट वक्ताओं और सुधी श्रोताओं के प्रति कृतज्ञता प्रकट की तथा उनके कथनों को संक्षेप में रेखांकित किया। उन्होंने इस कार्यक्रम से देश-विदेश से जुड़ी संस्थाओं एवं व्यक्तियों का नामोल्लेख सहित आत्मीय ढंग से विशेष आभार प्रकट किया। दशकों से सिंगापुर में सेवारत अनुभवी विदुषी एवं भारतीय भाषा-संस्कृति की प्रेमी और पोषक डॉ संध्या सिंह ने हिंदी का वैश्विक गौरव बढ़ाने हेतु इस कार्यक्रम से जुड़े सभी श्रोताओं, अभिप्रेरकों, संयोजकों, मार्गदर्शकों तथा विभिन्न टीम सदस्यों को हृदय से धन्यवाद दिया।