अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष: स्त्री विमर्श नारी बनाम नारी

डॉ. जयप्रकाश तिवारी द्वारा रचित कृति नारी बनाम नारी स्त्री विमर्श ग्रंथ को अद्योपरांत पढ़ा है और महीनों तक समझा है, स्त्री-विमर्श प्रभृति समसामयिक सामाजिक विषय पर एक अत्यंत गंभीर और बहुआयामी पथप्रदर्शक ग्रंथआलोच्य ग्रंथ मे, नारी-विमर्श पर पिछले डेढ़-दो दशकों से राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय फ़लक पर लगातार चल रहे और समय-समय पर अनूदित / प्रकाशित हो रहे अनेकशः नारी विषयक परिचर्चाओं मे सबसे अलग एक अत्यंत अनूठा किन्तु अतिविशिष्ट परिचर्चा है, ऐसा कहने मे मुझे तनिक भी झिझक नहीं। क्योकि, इस विमर्श मे कई चीजें एकदम नई-नवेली तेवर और प्रयोग धर्मिता के रूप मे है तो अंदाज भी है हम तुझसे कम नहीं, के रूप मे संगत मिलाता हुआ, विषय नया नहीं लेकिन इसकी प्रस्तुति, कथ्य और तथ्य रूप मे एकदम नया-नया; जोशीला और ताजगी से भरा हुआ। नारी पर अनाचार और अत्याचार के विरोध मे प्रतिशोध का नारी गुस्सा इतना तीव्र कि कानून को भी नजर अंदाज कर, एकबार अपराधी को उसके घर मे घुसकर उसी की भाषा मे मजा चखाने को उद्यत। आक्रोश का यह अंदाज नारी के कालिका रूप से कम नहीं। अंदाज तो देखिये इस तर्क, व्यंग्य और आक्रोश का –

दोष क्या था बेचारी अहिल्या का? / क्यों पत्थर सी जड़वत बन गयी थी वह? / इसीलिये न कि अंततः न्याय नहीं मिल सका था उसे / गौतम ने भी तब कहाँ दिया था साथ? / क्या ऋषि होने का अर्थ यही है / अन्यायी, दोषी को क्षमा कर देना? / फिर क्षमा या सजा का अधिकार भी / अहिल्या को था न कि गौतम को. / और कौन जाने / माफ़ भी किया था उन्होंने, / या डर गए थे मायावी देवेन्द्र से? / उसकी शक्ति से, उसके कुचक्र से? / जिस क़ानून ने कुदृष्टि रखने वाले / जयंत की आँख फोड़ दी थी, / अपहर्ता रावण का समूल वध कर दिया, / उसी कानून ने इंद्र के लिए क्या किया? / इस इंद्र का कहाँ कोई कुछ कर पाया है / सतयुग से लेकर कलियुग, कलयुग तक, / विज्ञान और तकनीकी युग तक? / और यदि कभी कोई इंद्र पर / धावा बोलने लायक हो भी जाता तो / त्रिदेवों का सुप्रीम कोर्ट ही उसे बचाता, / पुनः सत्ता वापस दिलाता, गद्दी पर बिठाता. / आज भी तो इंद्र, चन्द्र, जयंत घूम रहे मजे से / सुबह से देर रात तक, शिकार की तलाश में. / जब पड़ता बहुत दबाव, तो चन्द्र और जयंत / जैसे प्यादे पिट जाते है, जेल जाते हैं / लेकिन दुष्ट इंद्र / क्या कभी गया जेल आजतक? / लेकिन इन्साफ होगा, अवश्य होगा, / सजा मिलेगी, और जरूर मिलेगी / अहिल्या स्वयं देगी सजा दुष्ट इंद्र को, / उसी के गृह में, उसके अन्तःपुर में घुसकर. / इंद्र के सामने ही, शची को अहिल्या बनाकर / और अपने गौतम को ही देवेंद्र बनाकर …/

यह केवल व्यक्ति-नारी का आक्रोश नहीं, केवल किसी एक विशिष्ट समस्या पर आक्रोश नहीं, यह मानव चेतना का आक्रोश है, नागरिकों का असंतोष है, पंगु होते सामाजिक व्यवस्था के प्रति। ऐसे ही क्षणों मे जनता उतर आती है सड़कों पर। दामिनी प्रकरण मे इसकी झलक हम दिल्ली की सड़कों पर देख चुके हैं. यह क्रांति की पृष्ठ भूमि है, अपराधियों के प्रति कानूनी और राजनीतिक इच्छा शक्ति की शिथिलता के विरोध मे असंतुष्टि- आक्रोश का क्रोधित स्वर है जिसे साहित्य की भाषा मे पौराणिक विम्बों के माध्यम से साहित्यिक अभिव्यक्ति मिली है। लेकिन उतना ही अच्छा तर्कपूर्ण समाधान और सुझाव भी है जो निश्चित ही सराहनीय है । कीचड़ से गंदगी साफ नहीं होती, वह स्वच्छ जल से ही साफ होगी और स्वच्छ जल है कानून और कानूनी व्यवस्था। उसी को कड़ाई से लागू कर अथवा नया कानून बनाकर इसका उचित समाधान ढूंढा जा सकता है। रचनाकार की आस्था, दृढ़-आस्था कानून की मर्यादा पालन मे है, तभी तो वह परिचर्चा की दूसरी प्रतिभागी आशा के मुख से सुझाव देता है, इस उग्र विचारधारा के क्रियान्वयन पर प्रभावी अंकुश लगाता है–

नहीं, नहीं, सखि ! / ऐसा मत सोच! पतन है यह / ऋषि का भी, ऋषि पत्नी का भी. / करके वही अपराध, दोषी तुम बन जाओगी / उपहास का अब नया पात्र एक बन जाओगी. / करना है तो करो, अपनी दृष्टि को जागृत / जिससे परख सको, असली-नकली का भेद / दबोच सको अपराधी को मौके पर ही. / हाँ, सहमत हूँ इस बात से सखि, / कि अहिल्या अब पाषाण नहीं बनेगी. / बनेगी अब ‘दामिनी’, ‘निर्भया’ / वह जूझेगी, लड़ेगी दम भर / और दुराचारियों को पहुचायेगी / फांसी के फंदे तक. / बनना होगा इसके लिए हमे / सुशिक्षित, सक्षम और सबल, / सर्वांग सबल, भौतिकता से भी, / साथ ही आध्यात्मिकता से भी / और नैतिकता से भी साथ ही साथ यहाँ इस विंदु पर ग्रंथकार के बहुआयामी व्यक्तित्व का दर्शन होता है; एक ओर तो वह सिपाही की भूमिका निभाते हुये सामाजिक आक्रोश को स्वर देता है लेकिन यह आक्रोश कहीं व्यवस्था के लिए घातक न हो जाये, लोग कानून को ही हाथ मे न लेने लगे, इस विंदु पर भी पूरी तरह सतर्क है और सृजनात्मक भूमिका मे है। यह एक विलक्षण दूरदर्शिता है जिसके लिए रचनाकार निश्चित रूप से बधाई का पात्र है।

इस ग्रंथ के कलेवर को देखकर और शैली को पढ़कर इस नई साहित्यिक-विधा को क्या नाम दिया जाय, संभवतः इस पर भी प्रश्न उठे, समीक्षक उठाएंगे भी लेकिन यह तो बाद की बात है। रचनाकार ने इसे ‘नारी-विमर्श की अद्भुत काव्य-कहानी’ कहा है. मैं भी इसे अभी एक ‘परिचर्चा’ और एक ‘काव्यात्मक विमर्श’ मानकर ही अग्रगामी हो रहा हूँ। इस विमर्श के बहाने रचनाकार ने स्त्री की व्यक्तिगत-जातिगत, समष्टिगत-भावगत, सामाजिक-दार्शनिक, और मनोवैज्ञानिक tatha लोकरंजक समस्याओं का यथोचित समाधान प्रस्तुत किया है। यह प्रस्तुति दो नारियों के बीच एक सार्थक और गूढ विमर्श रूप मे हुआ है, अतएव ग्रंथ का शीर्षक ‘नारी बनाम नारी’ सर्वथा यथेष्ट है। विषय और कथ्य की दृष्टि से एक अन्तः-विषय की वार्ता जहां क्षणिक विराम लेती है, ठीक उसी विंदु को लक्ष्यकर प्रश्न, प्रतिप्रश्न और कथ्य का सारगर्भित-ओजस्वी अंदाज इस काव्यात्मक विधा मे, काव्य के साथ-साथ नाटक का भी आनंद प्रदान करता है। पौराणिकता और ऐतिहासिकता का समसामयिक संदर्भ मन को बहुत गहराई तक छू जाता है जिसमे कई बातें ऐसी भी हैं जिसकी जानकारी बहुतों को नहीं है, यह एक और विशेषता है जो रचनाकार के गहन अध्ययन, विषय मर्मज्ञता के साथ–साथ अपनी निजी संस्कृति से उसके आत्मीय लगाव का स्वतः परिचायक भी है। एक साथ इतनी बातों का होकर सार्थक दिशा मे उसका नियोजन, निश्चय ही सराहनीय और प्रशंसनीय है।

इस विमर्श के नारी पात्रों के रूप मे ‘प्रगति’ और ‘आशा’ आज की यथार्थ और जागरूक नारी पात्र हैं, यद्यपि रचनाकार ने इन्हे कल्पित या वास्तविक विम्बपात्र के रूप मे चयन की पूर्व स्वीकृति दे रखी है, विकल्प की कोई आवश्यकता नहीं क्योकि ये पात्र नितांत यथार्थ मे सजीव हो उठे हैं। ‘प्रगति’ जहाँ पाश्चात्य विचारों से ओतप्रोत शीघ्र फलाकांक्षावाली एक सामान्य चंचला नारी है, वहीं ‘आशा’ धीर-गंभीर भारतीय संस्कृति, दर्शन, मनोविज्ञान और इतिहास-मर्मज्ञ नारी है जो रचनाकार स्वयं ही है नारी रूप और आशा की छद्म संज्ञा मे। चर्चा का प्रारम्भ ही प्रगति ने पौराणिक पात्र सूर्पणखा के संदर्भ से किया है, और चौखट को अनौचित्यपूर्ण कहते हुये अपने कथ्य को वह गीत का नाम देती है, अतएव आशा के समक्ष प्रगति की समस्या और चौखट की सार्वकालिक महत्व-औचित्य तथा गीत-साहित्य की विशेषता को तार्किक विहंगावलोकन कराना अनिवार्य हो जाता है।

इन्ही तीन विंदुओं को लेकर नारीविमर्श का सूत्रपात हुआ है और अनेक पड़ावों को पार करता हुआ यह नारी की वर्तमान समस्या, उसके अपने अधिकार, अपनी स्वतन्त्रता का प्रश्न और कलहपूर्ण टूटते दाम्पत्य की समस्या का अत्यंत व्यापक विमर्श, समष्टिगत नारी विमर्श से प्रारम्भ होकर प्राथमिक नोक-झोंक के पश्चात, परस्पर स्नेह-सद्भाव का आश्रय लेकर टूटते परिवार का सस्नेह बसना, फूलना-फूलना हृदय को जहां हर्ष से अत्यंत आह्लादित करता है, वही यह सोचकर आत्मसंतोष होता है कि इस साहित्यिक विमर्श पर अपूर्णता का दोषारोपण नहीं लगेगा। सचमुच नितांत व्यक्तिगत किन्तु अलगाव और तलाक के मार्ग पर दूर तक हताशा से भरे किसी यात्री को उसके अपने घर मे मान-सम्मान सहित सुखद वापसी न केवल इस विमर्श को सुखांत बनाता है अपितु नई पीढ़ी को भी एक आदर्श मार्ग उपलब्ध करता है, यह सबसे अच्छी बात है।

इस विमर्श का चरमोत्कर्ष तो तब हिमालयी शिखर को चूम लेता है जब भारतीय परंपरा की विद्रोहिणी-सी बन चुकी प्रगति स्वयं अपने हाथ मे भारतीय संस्कृति के ध्वज को लेकर भ्रमित नई पीढ़ी की कुशल पथप्रदर्शक बन जाती है। इस प्रकार भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता और सामर्थ्य की पाश्चात्य संस्कृति पर श्रेष्ठता की स्थापना भी नारी विमर्श के साथ-साथ इस ग्रंथ का उद्देश्य प्रतीत होता है, और रचनाकार इस उद्देश्य मे शतप्रतिशत सफल है।

यदि साहित्य समाज का दर्पण है तो साहित्य का यह पुनीत कर्तव्य बन जाता है कि साहित्यिक विधाओं के माध्यम से न केवल इन सामाजिक समस्याओं को उठाया जाये अपितु उचित समाधान भी सुझाया जाये । इस विंदु पर ध्यान आकृष्ट करते हुये वरिष्ठ साहित्यकार शैलेंद्र सागर जी ने ठीक ही लिखा था– “रचनाकार से उम्मीद की जाती है कि वह समाज और समय की धड़कनों को न केवल सुने और गुने बल्कि उसका पूर्वाभास भी करे और अपनी रचनाओं मे अभिव्यक्त भी करे जिससे समाज को न केवल अपना वर्तमान नजर आए, भविष्य की पदचाप की आहट भी सुनाई पड़े।”

साहित्यकार के लिए कठिनाई यह नहीं होती कि उसे समाज का दर्द सुनना पड़ता है, आत्मसात करना पड़ता है; संवेदी होने के कारण यह कार्य तो वह सरलता से कर लेता है, कठिनाई अभिव्यक्ति-विधा, भाषा-शैली को लेकर आती है। यदि भाषा अधिक साहित्यिक और प्रांजल हो गयी तो समस्या के नेपथ्य मे चले जाने का भय और यदि भाषा अत्यधिक सरल और सतही हुयी तो उसके साहित्यकार होने पर ही प्रश्न चिह्न उठेगा। आलोच्य ग्रंथ मे रचनाकार डॉ॰ तिवारी ने न केवल समसामयिक महत्वपूर्ण विंदु को गहराई से समझा है, आत्मसात किया है, उठाया है अपितु भाषा-शैली भी जनसामान्य के लिए सरल ही है, कहीं-कहीं मांग के अनुरूप चुटीलापन है तो कहीं कथ्य गंभीर दार्शनिक रूप ले लेता है, लेकिन वह बाधक नहीं बनता क्योकि तारतम्यता और सतत प्रवाह मे अंतर्वस्तु का मर्म और निहितार्थ समझ मे आसानी से आ जाता है, सर्वसमाज के लिए आवश्यक है।

विषय विश्लेषण से पूर्व प्रसाद जी की अमरकृति कामायनी की पंक्तियों का उल्लेख इसमे संदर्भवाहक रूप मे विशेष सहायक बन पड़ा है। बात-बात पर कामायनी का उल्लेख और अंत मे प्रतिपक्षी प्रगति द्वारा भी कामायनी का आलंबन यह दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि कामायनी मे वैयक्तिक जीवन और समाजिक जीवन दोनों ही क्षेत्रों की समस्याओं को सुलझाने की पर्याप्त शक्ति है। आश्चर्य नहीं होगा यदि कोई समीक्षक कह उठे इस परिचर्चा का उद्देश्य कामायनी की इस गुप्त शक्ति का रहस्योद्घाटन करना है। आशा द्वारा बात-बात पर कामायनी के उद्धरण से नारी विमर्श का पक्ष कुंद पड़ गया है, ऐसा मानना उचित नहीं।

सत्य तो यह है कि इस प्रयोग से नारी समस्याओं का सम्यक समाधान हुआ है और यह इस ग्रंथ की अपनी अनूठी और एकदम नवीन सृजनात्मक विशेषता है जो नए रचनाकारों की अभिव्यक्ति को प्रेरित और प्रदीप्त करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है। स्वयं रचनाकार भी वर्तमान पढ़ी द्वारा कामायनी से यथोचित लाभ न लेने के कारण कुछ व्यथित भी है॰ रचनाकार स्वयं कहता है कामायनी के संदर्भ मे – “युगीन चिंतन अब यह भटक रहा / मानव चौराहे पर ही अटक रहा”। ग्रंथकार यहीं रुकता नहीं, कामायनी मे जीवन समस्याओं की समाधान शक्ति अंतर्निहित है, इसे बताने मे चूकता नहीं, आशा के मुख से इसकी विशेषताओं को इस प्रकार कहलाया गया है–

“यह ग्रंथ नहीं पलायनवादी / न प्रतिक्रियावादी, न भौतिकवादी / सम्यक समाधान किया है प्रस्तुत / ले ले सीख जो भी हो इच्छुक, / कामायनी युगीन एक महाकाव्य है / जिसका उद्देश्य आनंद प्राप्ति है / अपार हर्ष हो रहा मुझे अब / मिला तुझे भी यह आनंद है”।

हाँ, एक बात जरूर खटकती है, वह है उप-शीर्षकों मे इसका विभाजन ना किया जाना । यदि ऐसा किया गया होता तो इसकी उपादयता और सहजता में वृद्धि होती। उपसर्गों में विभाजित ना करने के संदर्भ में रचनाकार ने कोई वक्तव्य प्रदर्शित नही किया है। कुल मिलाकर नारी जगत की अनेकानेक आंतरिक, अंतर्जागतिक, सामाजिक समस्याओं को इतने बड़े फ़लक पर विश्लेषित करना नितांत दुरूह कार्य है, बिना पराई पीर की स्वानुभूति को आत्मसात किए यह संभव ही नहीं। रचनाकार ने अपना कथन पूरी तरह निभाया है, विनम्रता और संवेदनशीलता के साथ – “नारी समाज! चिर ऋणी हूँ, रहूँगा, आपका / कुछ कहने सुनने को, लिया शरण आपका, / बनकर एक नारी, छेडी यह ‘नारी – परिचर्चा’ / आप के सम्मुख प्रस्तुत है अब यह परिचर्चा” . इस कृति के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुये रचनाकार ने स्वयं घोषणा की है –

“कोई भी ऐतिहासिक, साहित्यिक विवेचन और दार्शनिक सन्दर्भ / अथवा उल्लेख गौरवमयी अतीत का, नहीं होता गड़े मुर्दे उखाड़ना / होता है यह तार्किक विश्लेषण, उन घटनाओं के घटित होने का. / समाज, संस्कृति, सभ्यता, राष्ट्र पर, उसके प्रभाव – दुष्प्रभाव का. / परिचर्चा यह भी बतलाता, क्या अबतक सीखा यह समाज विशेष / क्या कुछ सीखना, समझना और सुधरना अभी रह गया है शेष? / क्या हमसब नहीं जानते यह सिद्धांत? हराना हो किसी देश को यदि / मिटा दो उसकी निजसंस्कृति, कर दो विकृत उसकी दार्शनिक प्रवृत्ति. / निकलते ही प्राण, तन गिर जाएगा, वह देश अपने आप ही मिट जायेगा।

क्या स्त्री विमर्श पर इससे भी अधिक कुछ चिंतन किया जा सकता है? ऐसे ही उत्कृष्ट और गंभीर चिंतन मिल का पत्थर प्रमाणित होते है। “नारी बनाम नारी” ऐसी ही कृति है जो मिल का पत्थर है। निश्चित रूप से इस पुस्तक स्त्री विमर्श को एक दिशा मिलेगी।

डा रामचंद्र मिश्र, सेवानिवृत्त प्राचार्य
नेहरू इंटर कॉलेज, अमहिया, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश

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